क्या उच्चतम न्यायालय द्वारा एसआईटी को यह कहा जाना कि वह अपनी अंतिम रिपोर्ट या आरोपपत्र अहमदाबाद की अदालत के सामने रखे, मोदी के लिए कानूनी और नैतिक जीत है?
एमिकस क्यूरी के तौर पर मैं आदेश के पक्ष या विपक्ष में नहीं बोलना चाहूंगा. हालांकि, मैं यह जरूर चाहूंगा कि आदेश को ठीक ढंग से समझा जाए. उच्चतम न्यायालय के आदेश में कोई कमी नहीं है. इसमें शिकायत करने वाले और संभावित अभियुक्त दोनों पक्षों के हितों की रक्षा की गई है. अब कानून अपना काम करेगा. मेरी रिपोर्ट में स्वतंत्र तौर पर उन बातों का आकलन किया गया है जो संबंधित गवाहों ने बताई थीं. ट्रायल कोर्ट के सामने मेरी और एसआईटी दोनों की रिपोर्ट होगी. मुझे इस बात को लेकर कोई संदेह नहीं है कि अदालत अपना काम कानून के हिसाब से करेगी और इस मामले में न्याय होगा. क्लीन चिट या कसूरवार ठहराए जाने को लेकर बात करना जल्दबाजी होगी.
शिकायतकर्ता ने दो मांगें रखी थीं. पहली यह कि बड़े पैमाने पर साजिश करने के लिए अलग एफआईआर दर्ज हो और दूसरी यह कि मामले की जांच का जिम्मा सीबीआई या एसआईटी से अलग किसी अन्य एजेंसी को दे दिया जाए. ये दोनों मांगें अदालत ने खारिज कर दीं. क्या यह राज्य सरकार की जीत नहीं है?
जहां तक पहली मांग का सवाल है तो अब यह प्रासंगिक नहीं है क्योंकि स्वतंत्र जांच के बाद सभी सबूतों और दस्तावेजों को उचित अदालत के सामने रखने का निर्देश दिया जा चुका है. सीबीआई को जांच देने के मामले में अदालत ने इसकी जरूरत नहीं समझी क्योंकि पूरी जांच अदालत द्वारा नियुक्त एसआईटी ने की है. इस मामले में न तो किसी की जीत हुई और न किसी की हार.
उच्चतम न्यायालय की कानूनी सक्रियता के इतिहास में यह आदेश कहां टिकता है? कई वरिष्ठ वकीलों ने सार्वजनिक तौर पर कहा है कि कानून की जीत नहीं हुई.
अदालत की निगरानी में होने वाली जांच के संदर्भ में देखें तो यह उच्चतम न्यायालय के सबसे अच्छे आदेशों में एक है. इसमें दोनों पक्षों के हितों की रक्षा की गई है. यह एकदम विधिसम्मत है.
2010 के नवंबर में एसआईटी ने अपनी स्टेटस रिपोर्ट में कहा था कि वह शुरुआती जांच थी न कि अपराध दंड संहिता के तहत की गई जांच. पर इस आदेश में कहा गया है कि जांच का काम खत्म हो गया और अब ट्रायल कोर्ट सुनवाई करेगा. आखिर किस चरण में शुरुआती जांच को ही जांच मान लिया गया?
एसआईटी ने खुद जो जांच की और जनवरी, 2011 में मेरी पहली रिपोर्ट के बाद जो जांच हुई वह गुलबर्ग सोसाइटी मामले में अपने आप में पूरी जांच थी.
उच्चतम न्यायालय ने अपने आदेश के आठवें और नौवें पैराग्राफ में कहा है, ‘अदालत की निगरानी में होने वाली जांच के मामले में अदालत इस बात को सुनिश्चित करने को लेकर चिंतित होती है कि जांच एजेंसियां ईमानदारी से काम करें न कि आरोप तय करने को लेकर. यह काम आरोपपत्र दाखिल होने के बाद सुनवाई के दौरान सक्षम अदालत करेगी.’ क्या इससे यह नहीं लगता कि जाकिया जाफरी के आरोपों पर एसआईटी ने जो जांच की है उससे उच्चतम न्यायालय संतुष्ट है?
अदालत ने कानूनी प्रक्रिया का निर्वाह किया है. एक बार जांच पूरी हो जाने के बाद अपराध दंड संहिता की धारा 173(2) के तहत जांच रिपोर्ट संबंधित अदालत में देनी होती है. अदालत ने मामले के गुण-दोष या जांच पर कुछ कहने से परहेज किया है. इसलिए एसआईटी और एमिकस की रिपोर्ट पर अदालत के खुश-नाखुश होने का सवाल ही नहीं उठता.
जैसा कि कहा जाता है सिर्फ न्याय होना जरूरी नहीं है बल्कि यह लगना भी चाहिए कि न्याय हुआ है. इस लिहाज से क्या इस फैसले का मकसद कहीं पीछे नहीं छूटा है क्योंकि प्रभावित इसे कमजोर आदेश के तौर पर देख रहे हैं?
इस तरह की बनती राय को देखकर ही मैं आपसे बात कर रहा हूं. एमिकस के तौर पर पहले मैं मीडिया से बात करने को तैयार नहीं था. मैंने अदालत के आदेश का अर्थ आपको समझा दिया है और मुझे लगता है कि इस मामले में न्याय हुआ है.
जाकिया ने कहा है कि वे आदेश से असंतुष्ट और नाखुश हैं. उन्होंने यह भी कहा कि अगर उच्चतम न्यायालय कोई रुख अख्तियार नहीं कर सकता तो फिर अहमदाबाद की निचली अदालत भला ऐसा कैसे कर सकती है?
मैं किसी की ऐसी प्रतिक्रिया पर कुछ नहीं बोलना चाहता हूं जिसके बारे में जानकारी मुझे मीडिया के मार््फत मिली हो. हालांकि, उच्चतम न्यायालय कोई ट्रायल कोर्ट नहीं है जो कोई रुख अख्तियार करे. सबसे ऊपरी अदालत द्वारा ऐसा किए जाने से ऐसा शिकायतकर्ता या संभावित आरोपित दोनों में किसी के खिलाफ ऐसा पूर्वाग्रह बन सकता है जिसकी भरपाई न हो.
गुजरात की न्यायिक प्रक्रिया और इस मामले में पहले के उच्चतम न्यायालय के आदेशों को देखते हुए क्या अहमदाबाद की निचली अदालत से न्याय की उम्मीद करना बेमानी नहीं होगा?
जब मामले के गुण-दोष पर सर्वोच्च न्यायालय ने कुछ नहीं कहा हो तो फिर इस बात की कोई वजह नहीं दिखती कि निचली अदालत न्याय नहीं कर सकती. अगर भविष्य में किसी स्तर पर कोई शिकायत आती है तो इसके निवारण के लिए कानून में पर्याप्त प्रावधान हैं.
हम सब जानते हैं कि एसआईटी ने अपनी पहली स्टेटस रिपोर्ट में कहा था कि ऐसे सबूत नहीं हैं जिनके आधार पर मोदी के खिलाफ कानूनी कार्रवाई की जा सके. अब उच्चतम न्यायालय के इस आदेश के संदर्भ में इसी एजेंसी से आखिर यह उम्मीद कैसे की जा सकती है कि वह अपनी पिछली बात से पलट जाए? क्या इस मामले में ऐसा नहीं होगा कि भविष्य की सभी जांच और कानूनी प्रक्रियाएं पहले से ही पूर्वाग्रह और विरोधाभासों से भरी हुई हों?
ये रिपोर्टें तब तक गोपनीय हैं जब तक अदालत में औपचारिक तौर पर पेश नहीं की जाएं. अदालत के फैसले से यह साफ है कि मेरी रिपोर्ट पर एसआईटी विचार करेगी. अगर एसआईटी और मेरी राय में कहीं कोई फर्क होगा तो मुझे इस बात में कोई संदेह नहीं है कि दोनों बातों को अदालत के सामने रखा जाएगा.
पर कुछ लोग यह मान सकते हैं कि एसआईटी अपने पहले वाले रुख से नहीं पलटेगी. तो क्या अदालत के इस आदेश से प्रभावित व्यक्ति और शिकायतकर्ता खुद को ठगा हुआ महसूस नहीं करेंगे?
मुझे ऐसा नहीं लगता कि जहां एसआईटी और मेरी राय अलग होगी वहां मेरी राय पर एसआईटी विचार नहीं करेगी. अगर एसआईटी क्लोजर रिपोर्ट फाइल करती है तो भी कानून के तहत शिकायत करने वालों के पास काफी अधिकार होंगे इसलिए ‘ठगा हुआ’ महसूस करने की बात गलत है.
जनहित से जुड़े गुजरात दंगों जैसे मसलों में एमिकस क्यूरी की क्या भूमिका होती है?
आरंभ में एमिकस क्यूरी को कोर्ट द्वारा ऐसे आपराधिक मामलों के लिए नियुक्त किया गया था जिसमें अभियुक्त या अपराधी अपना बचाव नहीं कर सकते थे. इस तरह के एमिकस से उम्मीद की जाती थी कि वह आखिर तक बचाव पक्ष के सलाहकार के तौर पर काम करेंगे. उसकी जवाबदेही अदालत के प्रति होती थी. बाद में, कोर्ट ने कानून के पेचीदा सवालों में मदद करने के लिए वरिष्ठ और प्रतिष्ठित वकीलों को एमिकस क्यूरी नियुक्त करना शुरू कर दिया भले ही केस में दोनों ही पक्ष पूरी तरह अपना बचाव करने में समर्थ हों. जनहित याचिका के आगमन और फिर जेल सुधार, हिरासत में मौत जैसे तमाम मसलों से लगातार कोर्ट के घिरे रहने की वजह से एमिकस क्यूरी की भूमिका का महत्व बढ़ता गया. एमिकस को निष्पक्ष रहते हुए न सिर्फ मुकदमे के अलग-अलग पक्षों से दूरी रखनी चाहिए बल्कि साथ ही खुद की पसंद, नापसंद, झुकाव, पूर्वाग्रह को भी मामले से दूर रखना चाहिए. अदालत को विशेष सहयोग देने के अलावा एमिकस का यह भी कर्तव्य है कि वह संवैधानिक रूप से कानूनी कार्यप्रणाली के अनुसार चलने में अदालत की मदद करे. एमिकस का काम है कोर्ट को सही फैसला लेने में सहयोग करना और उसे उसके अधिकारों का पूरा इस्तेमाल करने के लिए जागरूक करना. साथ ही जरूरत पड़ने पर कोर्ट को उसके अधिकार क्षेत्र से बाहर जाने से रोकने के लिए आगाह करना भी एमिकस का ही काम है.
दंगों के शिकार आक्रोशित भी हैं और असमंजस में भी कि कैसे अदालत ने अपने आखिरी आदेश में उसी एसआईटी पर पूरा भरोसा जताया जिसकी रिपोर्ट पर वह कुछ महीनों पहले तक खुद ही असंतुष्ट थी और जिसकी वजह से उसने आपको सबूतों और तथ्यों का स्वतंत्र मूल्यांकन करने को कहा था.
इस बात पर काफी गलतफहमी है. अदालत ने एसआईटी को जांच-पड़ताल करने के लिए नियुक्त किया था. उसने उसी समय एक एमिकस को भी नियुक्त किया था. इसका मकसद यह था कि एसआईटी की रिपोर्ट को एक स्वतंत्र नजरिये से भी देखा जाए. इसी वजह से एमिकस को पांच मई को अपना मूल्यांकन देने को कहा गया था. इसका मतलब एसआईटी से असंतुष्ट होना या फिर एसआईटी पर विश्वास न करना नहीं है. अदालत एक स्वतंत्र नजरिया चाहती थी.
आप एसआईटी से किन बिंदुओं पर असहमत हैं?
मैं इस सवाल का जवाब नहीं दे सकता क्योंकि हमारी रिपोर्टें अभी तक गोपनीय हंै. मगर मैं यह जरूर स्पष्ट करना चाहूंगा कि एक स्वतंत्र मूल्यांकन मांगा गया था और वही दिया गया है. जब इस तरह की कवायद होती है तो जिन बिंदुओं पर मतभेद होता है उन्हें साफ-साफ कहा जाता है.
क्या कोर्ट ने आपकी रिपोर्ट के ऊपर एसआईटी की रिपोर्ट को तरजीह दी है जिस वजह से आपके निष्कर्षों का महत्व खत्म हो गया?
सीआरपीसी के अंतर्गत रिपोर्ट देना जांच एजेंसी (इस मामले में एसआईटी) की जिम्मेदारी है. एमिकस कोई जांच एजेंसी नहीं होता. वह एक वकील होता है जिसने अपना स्वतंत्र मूल्यांकन दे दिया है. अदालत ने इसे प्रासंगिक समझा है और इसीलिए एसआईटी को एमिकस की रिपोर्ट पर ध्यान देना है.
तो क्या अब यह समझा जाए कि आपकी रिपोर्ट न सिर्फ एसआईटी को सही राह दिखाएगी बल्कि आने वाले वक्त में इस तरह की कानूनी कार्रवाइयों के लिए एक मील का पत्थर भी साबित होगी?
अपनी ही रिपोर्ट पर इस तरह की बातें कहना मेरे हिसाब से बिल्कुल ठीक नहीं होगा. हां, मगर मैं यह जरूर कह सकता हूं कि एमिकस के नजरिये को उच्च न्यायालय ने प्रासंगिक माना है और इसलिए मुझे यकीन है कि इसकी प्रासंगिकता आगे भी बनी रहेगी.