ईश्वर को पाने के लिए मज़हबों का सहारा लेना ज़रूरी नहीं है। मज़हब तो केवल ज्ञान का स्रोत हैं। लेकिन किसी मज़हब में परिपूर्ण ज्ञान नहीं है। अगर परिपूर्ण होता, तो फिर दुनिया में कई मज़हबी किताबों की आवश्यकता ही नहीं होती। न ही इतने मज़हब बनते। सबका एक ही मज़हब होता। सब एक ही मज़हब को तरजीह देते। लेकिन मज़हब विचारों की देन हैं। जिस तरह अरबों लोगों के विचार किसी भी काल में एक समान नहीं हो सके, उसी तरह एक मज़हब का होना भी असम्भव था। सो जिस काल में जो भी सन्त या विद्वान हुए, उन्होंने अपने-अपने हिसाब से ईश्वर और उस तक पहुँचने के रास्ते बताने का प्रयास किया। लेकिन सबने एक बात पर सबसे ज़्यादा बल दिया, और वह है- मानवता अर्थात् इंसानियत। किसी ने दो ईश्वर नहीं बताये। किसी ने जल, वायु, अग्नि, पृथ्वी और आकाश को अपना बताने और सभी का उस पर अधिकार होने से इन्कार नहीं किया; और कोई भी इन तत्त्वों के टुकड़े नहीं कर सका।
फिर आपस में प्यार क्यों नहीं? क्यों सब एक होकर नहीं रह सकते? इसका सीधा-सा जवाब है- लोग एकमत नहीं हैं। उनके विचार अलग-अलग हैं। हालाँकि सभी मज़हब लोगों को जोडऩे की बात करते हैं। लेकिन सभी मज़हबों की किताबें अलग-अलग होने की वजह से लोग अपनी-अपनी पसन्द से उन मज़हबों को स्वीकार करते हैं और उनमें विश्वास रखते हैं; और सभी इन मज़हबों के सहारे ईश्वर को पाना चाहते हैं। अर्थात् उद्देश्य एक होने के बावजूद लोग आपस में कभी एक नहीं होते। भले ही वे यह स्वीकार करते हैं कि उनका मालिक एक ही ईश्वर है और यह भी जानते हैं कि वही ईश्वर सभी का पिता है। आश्चर्य की बात है कि दुनिया के अधिकांश लोग इस बात पर एकमत होते हुए भी एक नहीं हैं। इसकी वजह यह है कि लोग एक-दूसरे को ख़ुद से, ख़ुद के विचार से, ख़ुद के अस्तित्व से ऊपर न मानना चाहते हैं और न देखना।
हैरानी की बात यह है कि लोग अपनी-अपनी मर्ज़ी के मज़हबों को इसलिए पकड़े बैठे हैं; क्योंकि उनमें यह विश्वास कूट-कूटकर भरा है कि ये मज़हब उन्हें ईश्वर तक ले जाएँगे। और यही लोगों की सबसे बड़ी मूर्खता है। ये ठीक ऐसे ही है, जैसे वाहन चलाने का हुनर न जानने वाले लोग उसमें बैठ जाएँ और अपेक्षा करें कि वह वाहन उन्हें गन्तव्य तक ले जाएगा। दरअसल वाहन तो गन्तव्य तक ले जाने के लिए साधन मात्र है। जिस तरह वाहन को ठीक से चलाना आने पर ही वह गन्तव्य तक ले जा सकेगा, उसी तरह मज़हबों के मार्गदर्शन पर चलना आना चाहिए और वह भी ठीक से। वाहन और मज़हब दोनों के सहारे चलने पर छोटे-बड़े गड्ढे अर्थात् परेशानियाँ, अनेक तरह की मुसीबतें, मुश्किलें आती हैं। केवल ध्यान, सन्तुलन, गति, स्फूर्ति आदि का ध्यान रखना होता है। लेकिन इन सबसे इतर एक महत्त्वपूर्ण चीज़ है और वह यह है- गति। जिस तरह वाहन में स$फर करते समय वाहन की गति की तरफ़ हमारा शरीर गतिमान रहता है, ठीक उसी तरह मज़हब का सहारा लेने के समय हमें शरीर और मन, दोनों से उसकी गति (मज़हबी किताब में बताये गये मार्ग) की ओर अनवरत तय करनी होगी। अन्यथा कोई फ़ायदा नहीं।
कोई भी मज़हब ईश्वर को पाने या उस तक पहुँचने का दावा नहीं करता। न ही मज़हबी किताबें यह कर सकती हैं; जब तक कि इंसान इसके लिए शुद्ध कर्म न करे। मज़हब के बताये मार्ग पर उसूलों के साथ न चले। सवाल यह है कि अगर कोई किसी मज़हब को नहीं मानता हो, तो वह क्या करे? इसके लिए वह विशुद्ध कर्म करे। कर्म तो सभी लोग करते हैं। एक चोर भी चोरी करता है, तो वह कर्म ही है। कोई किसी को मारता है, तो उसका मारना भी एक प्रकार का कर्म है। लेकिन वह ग़लत है। इंसान को विशुद्ध अर्थात् शुद्धातिशुद्ध कर्म करना चाहिए। सीधे शब्दों में कहें, तो अच्छे कर्म, नेक कर्म करने चाहिए; वे कर्म, जिससे किसी का अनुचित या बुरा न हो, किसी को दु:ख न पहुँचे। सच तो यह है कि सभी लोग किसी का दिल दुखाये बग़ैर, उसका बुरा किये बग़ैर भी जी सकते हैं। लेकिन कुछ लोग फिर भी दूसरों का बुरा करने में सुख देखते हैं।
कहने का तात्पर्य यह है, इंसान को अपने ही विशुद्ध कर्मों के आधार पर ईश्वर की निकटता हासिल हो सकती है। दूसरा कोई रास्ता साधन उसे ईश्वर से नहीं मिला सकता। अर्थात् अगर कोई व्यक्ति उम्र भर ग़लत काम करे और अपने मज़हब की किताब को हर रोज़ पढ़ता रहे। धार्मिक अनुष्ठान करता रहे, तो ईश्वर की शरण को कभी प्राप्त नहीं हो सकता। ईश्वर की शरण पाने के लिए तो अनपढ़ भी उतना ही योग्य हो सकता है, जितना एक मज़हब को मानने और उसके उसूलों पर चलने वाला। लेकिन दोनों में ही विशुद्ध सत्कर्मों, निश्छलता, पावनता, समभाव, सद्भाव, सरलता, परहित, प्रेम, करुणा, दया, विनम्रता, विश्वास, व्याकुलता, अहसास का होना परम् आवश्यक है। लेकिन इसके लिए तन-मन और विचारों से पवित्र होना पड़ेगा। पतित तो हमेशा नीचे ही जाता है, फिर चाहे वह कितना भी विद्वान क्यों न हो। कितना भी मज़हबी क्यों न हो। ऐसा व्यक्ति लोगों में सम्मान भी पा सकता है; लेकिन ईश्वर को नहीं। क्योंकि लोग तो मूर्खों के भी गुण गाने लगते हैं। लेकिन ईश्वर को पाने के लिए तो मासूम बच्चे की तरह निश्छल और निर्मल होना पड़ेगा, जल की तरह स्वच्छ होना पड़ेगा, वायु की तरह कोमल होना पड़ेगा और अग्नि की तरह पवित्र होना पड़ेगा।