प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी के चहेते बनने की बात पर प्रदेश भाजपा अध्यक्ष डॉ. सतीश पूनिया मुस्कुरातेहुए कहते हैं- ‘लगता है मेरी कड़ी मेहनत रंग ला रही है।’ कोरोना-काल में किये गये उनके कार्यों पर प्रधानमंत्री मोदी द्वारा की गयी प्रशंसा ने सबका ध्यान उनकी तरफ खींचा है। राजनीतिक विश्लेषकों का कहना है कि प्रदेश की राजनीति में बेशक उनकी हैसियत बढ़ी है; लेकिन इसके साथ ही वसुंधरा और सतीश पूनिया के समर्थकों के बीच टकराव की शुरुआत होती है, तो किसी को आश्चर्य नहीं होना चाहिए। बहरहाल भाजपा के राजनीतिक गलियारों में चर्चा है कि वसुंधरा समर्थक बेशक चुप्पी साधे हुए हैं, लेकिन उनकी कुलबुलाहट साफ दिखायी दे रही है।
भाजपा के एक वरिष्ठ नेता केंद्रीय नेतृत्व के मूल्यांकन का हवाला देते हैं, जिसमें सतीश पूनिया को मज़बूत माना जा रहा है। उन्होंने तहलका को बताया कि कभी सत्ता और संगठन पर एक छत्र दबदबा रखने वाली वसुंधरा राजे को अपनी विदाई की धुन सुन लेनी चाहिए। सूत्रों का कहना है कि डॉ. पूनिया ने संगठन को राजे की छाया से निकालकर उस पर अपनी पकड़ मज़बूत बना ली है। जिस संगठन को ओम माथुर के हटने के बाद गरिमा की तलाश थी, वह अब बहाल होता नज़र आ रहा है। अतीत की चर्चा में हो रहे सूत्रों का कहना है कि यद्यपि यह अवसर अध्यक्ष रहते हुए संघनिष्ठ अरुण चतुर्वेदी को भी मिला था, किन्तु प्रदेश में भाजपा सरकार बनते ही वह संगठन का मुखिया पद छोड़कर केवल सत्ता के बनकर रह गये। उनके अध्यक्ष रहते वैसे भी वसुंधरा राजे ने संगठन पर अपनी पकड़ बना ली थी। संघनिष्ठ प्रदेश अध्यक्ष पूनिया कुछ अलग ही मिट्टी के बने हुए हैं। सूत्रों की मानें तो सांगठनिक मामलों में 38 साल के अनुभवी पूनिया की भाजपा अध्यक्ष नड्डा के साथ जिस तरह की जुगलबंदी दिखायी दे रही है, विश्लेषक उन्हें भाजपा का नया चेहरा बताने से गुरेज़ नहीं करते। लेकिन राजनीतिक पंडितों का यह भी कहना है कि फिलहाल कुछ भी कहना जल्दबाज़ी होगी। राजनीतिक पंडित इस उक्ति को दोहराते नहीं थकते कि राजस्थान में भाजपा का मतलब ही वसुंधरा राजे हैं, वहाँ कोई और चेहरा कैसे खिल पायेगा?
वसुंधरा राजे को प्रदेश की राजनीति से दरकिनार किये जाने की चर्चाओं को लेकर भाजपा के राष्ट्रीय उपाध्यक्ष ओम माथुर कहते हैं कि पार्टी में कोई साइड लाइन (किनारे की रेखा) नहीं होती; सिर्फ भूमिका बदल जाती है। भाजपा तो नेतृत्व की भूमिकाएँ बदलती रहती है। बात स्पष्ट करते हुए उन्होंने कहा कि आिखर तो एक दिन हर किसी के नाम के आगे पूर्व लगना ही है। वसुंधरा राजे के नाम के आगे भी लग सकता है। उधर विधानसभा में उपनेता प्रतिपक्ष राजेन्द्र सिंह राठौड़ जिस तरह राजे से दूरियाँ बनाते हुए पूनिया से नज़दीकियाँ बना रहे हैैं, उसे देखते हुए लगता है कि राठौड़ को समझ में आ गया है कि अब राजस्थान में वसुंधरा राजे युग का तकरीबन अन्त हो गया है। सूत्र इस बात को यह कहते हुए पुख्ता करते हैंं कि जिस समय राज्यसभा के चुनाव हो रहे थे, राठौड़ ने वसुंधरा का स्वागत करने की बजाय संगठन की मीटिंग में जाने को प्राथमिकता दी। ज़ाहिर है उन्होंने अपने इरादे साफ कर दिये। बहरहाल सूत्रों की मानें तो चेहरे में बदलाव के सारे पत्ते संघ (आरएसएस) खेल रहा है।
वैसे भी वसुंधरा सरकार का पतन जिस ड्रामाई अंदाज़ में हुआ, उसको लेकर किसी को भी हैरत नहीं होनी चाहिए। क्योंकि प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी उन्हें काफी समय से नज़रअंदाज़ कर रहे हैं। दरअसल वसुंधरा ने जिस निष्ठुरता से राज्य में शासन चलाया और पार्टी आलाकमान को कड़ुवा संकेत भी दे दिया कि न तो वह किन्हीं मुद्दों पर ढीली पड़ेंगी और न ही अपना ताज किसी को छीनने देंगी; उससे उनके खिलाफ हवा बनाने में भाजपा के केंद्रीय नेतृत्व को आसानी हुई। फिलहाल केंद्रीय नेतृत्व की यह ठण्डी रणनीति है कि केंद्रीय मंत्री बनाकर इनकी जगह नये नेताओं को बिठाकर नयी पौध तैयार की जाए। इस नयी पौध में जोधपुर से सांसद और केंद्रीय कृषि राज्यमंत्री गजेन्द्र सिंह शेखावत का चेहरा झिलमिलाने भी लगा था, किन्तु बाद में उसकी जगह पूनिया ने ले ली। बहरहाल समस्या सिर्फ वसुंधरा राजे को लेकर है। अव्वल तो संघ का शीर्ष नेतृत्व ही यह कहते हुए राजे के विरोध में है कि राजे आरएसएस की परम्पराओं और संस्कृति के अनुकूल नहीं हैं; इसलिए उन्हें साथ लेकर लुढ़कने का जोखिम नहीं उठाया जा सकता? इस बात को गहराई से समझें तो लोकसभा चुनावों से ठीक पहले राजस्थान समेत पाँच राज्यों की पराजय से संघ की बेचैनी बढ़ गयी थी। वरिष्ठ पत्रकार प्रकाश कुमावत ने इसका बड़ा कारण गिनाते हुए कहा कि सत्ता में रहते हुए जिस तरह संघ की शाखाओं के विस्तार को लेकर पंख लगे थे, आइंदा उनकी परवाज़ को लगाम लग सकती है। ऐसे में संघ क्यों वसुंधरा पर फिर से दाँव खेलने को तैयार होगा? सूत्र कहते हैं कि भाजपा नेतृत्व राजस्थान में चेहरे में बदलाव के साथ संगठन की खामियाँ दूर कर पार्टी को पटरी पर लाने की जद्दोजहद में है। लेकिन विश्लेषकों का सवाल है कि जब शीर्ष नेतृत्व के गेंदबाज़ वसुंधरा का स्टम्प चटखाने की कोशिश करेंगे, तो क्या वह संयम बनाये रख सकेंगी? विश्लेषकों का कहना है कि चुनावी नतीजों को देखें, तो वसुंधरा बिल्कुल फिसड्डी नहीं रहीं। उनका प्रदर्शन भाजपा नेतृत्व को सोचने को मजबूर कर सकता है कि विरोधी माहौल के बावजूद उन्होंने 73 सीटें झटक लीं। कम-से-कम पार्टी का सूपड़ा साफ तो नहीं हुआ। विश्लेषकों का कहना है कि शेखी में सत्ता गँवा चुकीं राजे के सामने अब अपनी साख बचाने का सवाल है। राजे इन दिनों दिल्ली में हैं और जिस तरह पार्टी नेताओं से मिल-जुल रही है; लेकिन वह बेबस तो कतई नज़र नहीं आ रहीं। यानी इस कदर सहज है, जैसे कुछ हुआ ही नहीं हो। उनके सियासी मिज़ाज को लेकर भाजपा के ही एक कद्दावर नेता का तो यहाँ तक कहना है कि वसुंधरा राजे जब भी चुनौतियों से दो-चार होती हैं, तो हमेशा लोकतांत्रिक होती हैं, और जब वह सत्ता में होती हैं, तो उनका अहंकारी और निरंकुश चेहरा साफ नज़र आता है। विश्लेषक उनके अतीत को खंगालते हुए एक बात तो साफ कहते हैं कि उन्हें हल्के में नहीं लिया जा सकता। राजनीतिज्ञों का कहना है कि अगर वसुंधरा को किनारे किया गया, तो वह थर्ड फस्र्ट (तीसरे को पहला) बनाने से गुरेज़ नहीं करेगी।
वसुंधरा राजे ने भाजपा की मुश्किलों में जो इज़ाफा किया, वो आज भी यथावत् है। उन्होंने ऐलानिया तौर पर कह दिया है कि पार्टी उपाध्यक्ष पद के दायित्व का तो मैं निष्ठापूर्वक निर्वहन करूँगी, लेकिन राजस्थान नहीं छोड़ूँगी। उन्होंने बहुचॢचत मायड़ भाषी कहावत में अपनी मंशा पिरोते हुए साफ कह दिया था- ‘मेरी डोली राजस्थान में आयी थी और अर्थी भी यहीं से जाएगी।’ वसुंधरा राजे को पार्टी संगठन में राष्ट्रीय उपाध्यक्ष बनाये जाने के बाद यह कयास लगाये जा रहे थे कि राजस्थान की राजनीति में उनका दखल कम हो जाएगा। लेकिन पिछले कुछ दिनों से उलटफेर कर दिये जा रहे उनके बयानों ने ‘उडि़ जहाज़ का पंछी, उडि़ जहाज़ पर आवे’ की उक्ति चरितार्थ करते हुए बेशुमार सवालों का गुबार छोड़ दिया है। राजनीतिज्ञों का कहना है कि राजस्थान में राजनीतिक संगति का यह संयोग मुश्किल ही बन पायेगा। राजनीतिज्ञ इसे यह कहकर तर्कसंगत नहीं बताते कि जिस सूबे में भाजपा का अर्थ ही वसुंधरा है, वहाँ पार्टी नेतृत्व कूटनीतिक करवट कैसे ले पायेगा?
हालाँकि राज्य में समग्र बदलाव का खाका खींचने के लिए केंद्रीय नेतृत्व ने राजे को विकल्प भी दिया था कि आम चुनाव जीतने के बाद विधानसभा सीटों से इस्तीफा दिलाकर उनके बेटे दुष्यंत को चुनाव लड़वाया जाए, ताकि राज्य की सियासत में युवा सक्रिय भूमिका निभा सके। लेकिन राजे ने केंद्रीय नेतृत्व के दाँव पर खेलने से साफ इन्कार कर दिया। राजे लोकसभा चुनाव लडऩे के लिए इसलिए भी तैयार नहीं थीं कि इससे उनके बेटे दुष्यंत की उम्मीदवारी खतरे में पड़ जाएगी, जो तब झालावाड़ से सांसद थे। राजे के निकटवर्ती सूत्रों का कहना है कि वह इस व्यवस्था के पीछे छिपा संदेश पढ़ चुकी थीं। उन्होंने इस बात को भी समझ लिया था कि उन्हें सियासत की किस धुरी पर स्थापित किया जाएगा? सूत्र कहते हैं कि राजे ने इस मुद्दे पर भी नाराज़गी भरी चुप्पी साध रखी है कि उन्हें पार्टी संगठन में उपाध्यक्ष का ओहदा तो बख्श दिया; लेकिन लोकसभा चुनावों के लिए बनायी गयी 17 समितियों में से उन्हें एक में भी जगह नहीं दी गयी? भाजपा का केंद्रीय नेतृत्व राजे के बदलते तेवर देख तो पा रहा है; लेकिन उनके पैंतरों को पकड़ नहीं पा रहा है।