उत्तर प्रदेश की जेलों में बड़ी संख्या में बुजुर्ग कैदियों की मौजूदगी जेलों और इन कैदियों दोनों को भारी पड़ रही है. एक ओर जहां क्षमता से अधिक कैदियों की मौजूदगी से जेलें प्रभावित हो रही हैं वहीं ये उम्रदराज कैदी महज इसलिए सलाखों के पीछे दिन काट रहे हैं क्योंकि इनकी रिहाई में कभी सरकारी नियम-कायदे तो कभी परिजनों की उपेक्षा आड़े आ रही है. कई मामलों में तो कैदी सजा पूरी होने के बाद भी बंद हैं क्योंकि उनके लिए नियमानुसार जमानतदार की व्यवस्था नहीं हो पा रही है.
राज्य के जेल आईजी आरपी सिंह पर यकीन किया जाए तो पूरे प्रदेश में बुजुर्ग कैदियों की संख्या केवल एक हजार के आस-पास है जबकि एक अन्य वरिष्ठ अधिकारी की मानें तो प्रदेश में बुजुर्ग बंदियों की संख्या छह से सात हजार के बीच है. अकेले बरेली केंद्रीय कारागार और बरेली जिला जेल में ही 800 के करीब बुजुर्ग कैदी बंद हैं. ये वे कैदी हैं जिनकी उम्र 60 से 90 साल के बीच है. इन बुजुर्ग कैदियों को उठाने-बैठाने तक के लिए जेल प्रशासन को दूसरे कैदियों या बंदी रक्षकों की मदद लेनी पड़ती है.
उम्र के इस पड़ाव पर बुजुर्ग बंदियों को आए दिन कोई न कोई बीमारी घेरे रहती है. ऐसे में जेल अस्पताल के एक बड़े हिस्से में इन्हीं का इलाज चलता रहता है. इन कैदियों के इलाज में भी जेल अधिकारियों को खासी दिक्कतों का सामना करना पड़ता है. पश्चिमी उत्तर प्रदेश में तैनात एक जेलर बताते हैं कि जेल के अस्पतालों की स्थिति कुछ खास अच्छी नहीं है. लिहाजा इलाज के लिए बुजुर्ग कैदियों को आस-पास के जिलों में स्थित मेडिकल कॉलेजों में भेजना पड़ता है. मेडिकल कॉलेज में बेहतर इलाज के लिए सबसे बड़ी समस्या धन की आती है. बीमार कैदी के इलाज के लिए शासन से धन की व्यवस्था करने की प्रक्रिया इतनी लंबी है कि जब तक व्यवस्था हो पाती है तब तक बीमार बुजुर्ग कैदी या तो अपने प्राण त्याग देता है या भगवान की कृपा से ही ठीक हो जाता है.
ऐसे हजारों कैदी हैं जो बिना सहारे के चल तक नहीं सकते. नियमों के मुताबिक रिहाई के हकदार ये कैदी प्रशासनिक उपेक्षा के चलते अब तक कैद हैं
जेल के एक अधिकारी बताते हैं कि नियमों के अनुसार आजीवन कारावास की सजा काट रहे किसी कैदी को यदि जेल में 14 साल हो चुके हों तो उसे छोड़ा जा सकता है. लेकिन इन कैदियों के बुजुर्ग होने के बावजूद इनको छोड़ने की प्रक्रिया में न तो सरकार ही कोई दिलचस्पी लेती है और न प्रशासन. 1938 के प्रोबेशन एक्ट के अनुसार यदि बुजुर्ग कैदी 14 साल की सजा पूरी कर चुका है तो जेल से उसका फॉर्म ए भरवाया जाता है. फिर जेल से जिलाधिकारी के यहां और वहां से आईजी जेल के यहां रिपोर्ट जाती है. आईजी जेल के यहां से रिपोर्ट शासन को भेजी जाती है. शासन का एक बोर्ड अपनी रिपोर्ट राज्यपाल के यहां भेजता है. इस प्रक्रिया के बाद राज्यपाल की संस्तुति से बुजुर्ग कैदियों को छोड़ने का नियम है.
हत्या के जुर्म में आजीवन कारावास की सजा काट रहे देवकली बंडा निवासी 71 साल के छोटे सिंह इन्हीं नियमों के शिकार हैं. वे 14 साल से ज्यादा समय बरेली केंद्रीय कारागार में बिता चुके हैं और डंडे के बिना जरा भी चलने में असमर्थ हैं. गांव देवकली में 1977 में हुई एक हत्या के मामले में अदालत ने छोटे सिंह को 1979 में सजा सुनाई. 1979 से लेकर 1985 तक छह साल लगातार छोटे सिंह जेल में रहे. इस बीच छोटे सिंह के परिजनों ने जमानत के लिए सुप्रीम कोर्ट का दरवाजा खटखटाया, जहां सुनवाई के बाद सुप्रीम कोर्ट ने 1985 में छोटे सिंह को जमानत पर रिहा करने का निर्देश दिया. छह साल जेल में बिताने के बाद सुप्रीम कोर्ट से जमानत मिलने की स्थिति में छोटे सिंह 11 साल तक अपने परिवार के बीच रहे.
इस बीच हत्या के मामले की सुनवाई हाई कोर्ट में चलती रही. हाई कोर्ट ने मामले की सुनवाई करते हुए 1997 में छोटे सिंह को आजीवन कारावास की सजा सुनाई. हाई कोर्ट से सजा होने के बाद 1997 से लेकर आज तक छोटे सिंह लगाकार जेल में हैं. जेल के अधिकारी बताते हैं कि यदि सरकार के नियम को देखें तो छोटे सिंह उम्र को देखते हुए अपनी न्यूनतम 14 साल से करीब आठ साल अधिक सजा भुगत चुके हैं. लेकिन सरकारी अमले की शिथिलता कहें या उपेक्षा, वे अब जेल की दीवारों के पीछे दिन काट रहे हैं.
जेल विभाग के एक बड़े अधिकारी कहते हैं, ‘रिहाई संबंधी रिपोर्ट भेजने की प्रक्रिया में हर स्तर पर अधिकारी अपने को बचाने का काम करते हैं. लिहाजा रिपोर्ट के साथ एक लाइन यह भी बढ़ा दी जाती है कि बंदी को छोड़ने पर समाज में भय व आतंक व्याप्त हो सकता है. इस लाइन के बढ़ने के बाद छूटने की प्रक्रिया पर विराम लग जाता है.’
बुजुर्ग कैदियों के साथ ही प्रदेश की जेलों में दर्जनों की संख्या में ऐसे कैदी भी बंद हैं जिनकी रिहाई का आदेश राज्यपाल या कोर्ट की ओर से तो दे दिया गया है लेकिन सालों या महीनों से उनकी रिहाई नहीं हो पा रही है. क्योंकि रिहाई बांड भरने के लिए उन्हें जमानतदार ही नहीं मिल पा रहे हैं.
तमिलनाडु निवासी जॉन डैनियल बरेली के केंद्रीय कारागार में करीब 20 साल से बंद हैं. वे उन दर्जनों कैदियों में से एक हैं जो न्यायालय द्वारा निर्धारित सजा पूरी करने के बाद भी नहीं छूट पा रहे हैं. 20-22 साल पहले डैनियल रोजी-रोटी की तलाश में घर से सैकड़ों किलोमीटर दूर बरेली आए थे. यहां आकर उन्होंने चिटफंड कंपनी खोली जो कुछ दिनों बाद ही बैठ गई. कंपनी में जिन लोगों का रुपया लगा था उन लोगों ने पुलिस में शिकायत की. 11 लोगों की शिकायत के आधार पर पुलिस ने डैनियल के खिलाफ 1993 में धोखाधड़ी के 11 अलग-अलग मुकदमे दर्ज किए. डैनियल के मुताबिक मुकदमों के आधार पर न्यायालय में सुनवाई शुरू हुई जहां से 1995 में उन्हें दस साल की सजा हुई. सजा के खिलाफ उन्होंने हाई कोर्ट का दरवाजा खटखटाया.
हाई कोर्ट ने इस सजा को कम करते हुए सात साल कर दिया और एक लाख रुपये का जुर्माना लगाया. जुर्माने की रकम अदा न कर पाने की स्थिति में तीन साल का कारावास और निर्धारित किया गया. डैनियल जुर्माने की रकम अदा नहीं कर पाए लिहाजा उन्होंने तीन साल की सजा और काटी. जेलर एके सक्सेना बताते हैं कि न्यायालय से डैनियल को जो सजा हुई थी वह 2005 में ही पूरी हो चुकी है. इसके बावजूद रिहाई न हो पाने का कारण यह है कि हाई कोर्ट से उन्हें पांच मामलों में सजा देते समय यह शर्त भी रख दी गई थी कि उन्हें जेल से छूटते वक्त हर मामले में दो-दो लोगों की जमानत देनी होगी. रिहाई के लिए डैनियल को दस स्थानीय जमानतदार नहीं मिल सके इसलिए सजा पूरी होने के सात साल बाद भी वे जेल में हैं.
प्रदेश की जेलों पर यदि नजर डालें तो यहां की कुल 40 हजार व्यक्तियों को रखने की क्षमता वाली 65 जेलों में करीब 82 हजार लोग कैद हैं.
पीलीभीत निवासी 48 साल के गिरधारी का मामला भी इससे बहुत अलग नहीं है. हत्या के मामले में पिछले 26 साल से जेल की दीवारों के पीछे कैद गिरधारी को गत अक्टूबर माह में उस वक्त रिहाई की उम्मीद जगी जब कैद की अवधि को देखते हुए राज्यपाल की ओर से उनकी रिहाई के आदेश दिए गए. लेकिन रिहाई के आदेश को तीन माह से अधिक का समय हो गया है पर छूटने के आसार अभी नहीं दिख रहे हैं. इसके लिए लिए उन्हें दो जमानती चाहिए. जेल के अधिकारी बताते हैं, ‘ गिरधारी के परिवार को रिहाई के आदेश की जानकारी दे दी गई है. लेकिन परिवार इतना गरीब है कि दो जमानतदारों की व्यवस्था नहीं कर पा रहा है जिसके कारण रिहाई नहीं हो पा रही है.’ लंबे समय से जेल में रहने के कारण गिरधारी की मानसिक स्थिति भी अब ठीक नहीं है. उनकी हरकतों को देखते हुए जेल अधिकारी उन्हें अब यदा-कदा ही बैरक से बाहर निकालते हैं. गिरधारी के साथी कैदी बताते हैं कि जैसे ही कोई उनके सामने जाता है वे अपनी रिहाई की बात शुरू कर देते हैं और मारपीट तक पर आमादा हो जाते हैं. जेल अधीक्षक एके राय बताते हैं, ‘बिना जमानतदार के रिहाई संभव नहीं है.’
एक और मामला है शाहजहांपुर के 85 साल के बुजुर्ग लालजीत सिंह का. 35 साल पूर्व 1977 में शाहजहांपुर जिले के छोटे-से गांव पिपराजप्ती में जमीनी रंजिश के चलते दो पक्षों के बीच हुई गोलीबारी में चार लोगों की मौत हो गई थी. विवाद में एक पक्ष की ओर से लिखाए गए हत्या के मुकदमे में लालजीत सिंह को 1997 में हाई कोर्ट ने आजीवन कारावास की सजा सुनाई. मरने वालों में लालजीत का एक भाई भी शामिल था. लालजीत अब चलने-फिरने से भी लाचार हैं. उन्हें उठाने-बैठाने के लिए दो लोगों की जरूरत होती है. ऊपर से अनेक बीमारियों ने भी उन्हें जकड़ रखा है. उनकी शारीरिक हालत को देखते हुए जेल प्रशासन उनसे अब कोई काम भी नहीं ले सकता. आजीवन कारावास के लिए जो न्यूनतम सजा सरकार की ओर से 14 साल की निर्धारित है वो लालजीत काट चुके हैं इसके बावजूद उनकी रिहाई संभव नहीं है तो इसलिए कि हत्या के आरोप में वे अकेले जेल में नहीं हैं बल्कि उनका छोटा भाई 65 साल का राजेन्द्र सिंह भी बरेली केंद्रीय कारागार में बंद है. हाईकोर्ट से सजा होने के बाद सुप्रीम कोर्ट में सजा के खिलाफ अपील क्यों नहीं की. इस सवाल पर लालजीत बताते हैं, ‘परिवार में कोई बचा ही नहीं था. वैसे भी मुकदमे आदि में रुपया काफी लग जाता है.’
प्रदेश की जेलों पर यदि नजर डालें तो यहां की कुल 40 हजार व्यक्तियों को रखने की क्षमता वाली 65 जेलों में करीब 82 हजार लोग कैद हैं. प्रदेश की जेलें क्षमता से अधिक कैदियों के अलावा स्टाफ की कमी की दोहरी समस्या से भी जूझ रही हैं. यदि केंद्रीय जेलों की बात करें तो प्रदेश में स्थित पांच केंद्रीय जेलों की क्षमता सिर्फ दस हजार कैदियों की है लेकिन इन जेलों में 27 हजार से ज्यादा कैदी बंद हैं. जेलों में क्षमता से दोगुनी संख्या में कैदियों के होने का सबसे बड़ा कारण है कि प्रदेश के कुशीनगर, संतकबीरनगर, श्रावस्ती, अमरोहा, चंदौली, संतरविदासनगर, औरैया, हाथरस, महोबा, अमेठी, हापुड़, संभल और शामली जिलों में जिला जेल ही नहीं है. यदि बात इलाहाबाद की करें तो वहां एक केंद्रीय जेल तो है लेकिन जिला जेल अभी तक नहीं बन सकी है. जिन जिलों में जेल नहीं है उन जिलों के कैदियों को आस-पास के जिलों में भेजा जाता है. अंबेडकरनगर, गौतमबुद्धनगर, चित्रकूट और कासगंज सहित चार जिलों में नई जेल बनाने का काम चल रहा है. लेकिन काम इतना धीमा है कि ये कब पूरी होंगी यह तय ही नहीं है.
जेलों में अधिकारियों व कर्मचारियों की तैनाती की स्थिति भी काफी दयनीय है. कैदी तो जेलों में क्षमता से दोगुने हैं लेकिन तैनाती प्रस्तावित पदों से भी कम है. पूरे प्रदेश की जेलों के लिए डिप्टी जेलरों के 448 पद स्वीकृत हैं जबकि तैनाती मात्र 222 डिप्टी जेलरों की है. इसी तरह जेलर के 87 पद हैं और तैनात 76 ही हैं.
आलम यह है कि जेल में कर्मचारियों की कमी होने के कारण कैदियों तक से काम लेना पड़ रहा है. ऐसा ही एक कैदी है उत्तराखंड के अल्मोड़ा का निवासी उमेश चंद्र जोशी. 1997 में बीएससी पार्ट वन की पढ़ाई कर रहा था उसी समय अल्मोड़ा के गढ़ाई गंगोली में एक हत्या के आरोप में उमेश नामजद हुआ और न्यायालय ने 1999 में आजीवन कारावास की सजा सुना दी. 33 साल का उमेश 1999 से लेकर आज तक बरेली जेल में ही बंद है. वैसे तो उमेश जेल में आजीवन कारावास की सजा काट रहा है लेकिन 1999 से ही वह जेल कार्यालय में लिखापढ़ी का काम देख रहा है. पहली नजर में उसके कामकाज के तरीके को देख कर कोई भी उसे सजायाफ्ता मुजरिम नहीं कहेगा.
क्योंकि जेल के सिपाही हों या जेलर या अधीक्षक सभी को जेल में बंद किसी भी कैदी के बारे में कोई भी जानकारी चाहिए होती है तो घंटी बजा कर जोशी को ही बुलाता है. कौन सा कैदी किस मामले में कब से सजा काट रहा है या किसके ऊपर कितने मामले चल रहे हैं और मामले लोअर कोर्ट से लेकर सुप्रीम कोर्ट में किस स्थिति में हैं ये सारी जानकारी जोशी के पास रहती है. कैदियों का पूरा सिजरा उमेश को मुंहजबानी याद है. हाई कोर्ट से सजा होने के बाद अब उसका मामला सुप्रीम कोर्ट में लंबित है. इस सबसे लगता है कि उत्तर प्रदेश की जेलों की अंधेरी कोठरियों में बंद उम्रदराज कैदियों के लिए फिलहाल रोशनी की कोई किरण दूर दूर तक नहीं है.