12 साल की आयु में सरिता ताई (बदला हुआ नाम) की शादी गन्ना काटने का काम करने वाले एक मज़दूर से हुई। 17 साल की उम्र तक सरिता तीन बच्चों की माँ बन गयीं। जब सरिता ताई की उम्र 20 वर्ष हुई, तो एक निजी चिकित्सक ने उसे बताया कि उन्हें कैंसर होने का खतरा है। उसने इसका सरल समाधान सुझाया कि आपको (सरिता को) अपना गर्भाशय निकलवाना होगा। जीवन के इस पड़ाव तक शिक्षा से महरूम और जागरूकता से दूर रहने वाली सरिता अपने तीन छोटे बच्चों के अनिश्चित भविष्य की चिन्ता के भय में फँस गयीं और डॉक्टर के द्वारा दिया गया आसान-सा फैसला ले बैठीं। उन्होंने बिना हिचक के डॉक्टर को 50,000 रुपये की राशि अदा कर दी, ताकि सर्जरी करके उनका गर्भाशय शरीर से बाहर निकाल दिया जाए। तहलका की प्रमुख संवाददाता ने सरिता ताई, जो अब 45 साल की हैं और दो पोतों की दादी हैं; से बातचीत की, तो हैरत भरी जानकारी हासिल हुई।
ताई! क्या बजह थी कि आपको डॉक्टर के पास जाना पड़ा?
मैं 20 साल की थी। मुझे पेट के निचले हिस्से और पीठ में लगातार दर्द रहता था और जननांग से भारी रक्तस्राव और गाढ़ा सफेद स्राव होता था।
सर्जरी के बाद कोई सुधार हुआ?
नहीं; खून बहना तो रुक गया, लेकिन मुझे अन्य शारीरिक व्याधियों से छुटकारा नहीं मिला है। सच तो यह है कि मुझे अब अन्य स्वास्थ्य समस्याएँ हो गयी हैं। 33 साल पहले यानी शादी के कुछ हफ्ते बाद गरीबी ने ताई को महाराष्ट्र के बीड में गन्ना काटने का काम करने को मजबूर कर दिया। आजीविका की तलाश में पति के साथ उन्होंने पश्चिमी महाराष्ट्र और पड़ोसी राज्यों में गन्ने के खेतों में जगह-जगह प्रवास पर रहना शुरू कर दिया। विदित हो कि गन्ने के खेतों में काम करना बेहद कठिन और कमर तोड़ देने वाला होता है, खासकर महिलाओं के लिए। यही नहीं, उन्हें लगातार 12 से 16 घंटे काम करना होता है और महीनों तक कोई अवकाश भी नहीं मिलता। यह सब इन महिलाओं की ज़िन्दगी को दुश्वारियों से भर देता है।
मासिक धर्म से जुड़ी महिलाओं की समस्याएँ गन्ने के खेतों में नियमित उपस्थिति में एक बड़ी बाधा हैं। काम से एक दिन की भी गैर-हाज़िरी पर परिवार को भारी ज़ुर्माना भरना पड़ता है, जिसे वे वहन नहीं कर सकते। यह भी एक प्रमुख कारण है कि खासकर बीड की महिलाएँ, गर्भाशय निकालने (हिस्ट्रेक्टमी) को लेकर डॉक्टर की सलाह पर सवाल नहीं उठातीं; जबकि गर्भाशय निकलवाने से पहले अभी तक किसी परीक्षण से यह भी पुष्टि की गयी है कि किसी महिला को वास्तव में कैंसर था। दरअसल, भविष्य में कोई और गम्भीर समस्या न घेर ले और उन्हें खेतों में काम पर जाने में कोई बाधा न आये, इसके डर से महिलाएँ डॉक्टर की सलाह पर गर्भाशय निकलवाने को एक आसान विकल्प चुन लेती हैं।
बीड के केज तालुका में नवचेतना सर्वांगीण विकास केंद्र ने 2018 में एक सर्वे में पाया कि 12 से 48 साल की 48 फीसदी महिलाओं के गर्भाशय इसी तरह कैंसर का डर दिखाकर निकाले जा चुके थे। इस बात की पड़ताल के लिए तहलका की प्रमुख संवाददाता ने बीड में 25 महिलाओं से बातचीत की, जिनमें से 15 केज की थीं। इन महिलाओं में से अधिकतर ने बताया कि महज़ 20 साल की उम्र में ही उनका गर्भाशय निकाला जा चुका है। आश्चर्य की बात है कि ये महिलाएँ बुजुर्ग और कमज़ोर-सी दिखने लगी हैं और उनके चेहरे पर झुर्रियाँ आ गयी हैं। ये महिलाएँ ऐसी दिखने लगी हैं, जैसे 60 साल की हों। इस बारे में एक स्थानीय डॉक्टर ने बताया कि गर्भाशय निकालने से महिलाओं की उम्र ढलने की प्रक्रिया तेज़ तेज़ गति से होती है और शरीर सामान्य रूप से कार्य नहीं करता है। इन महिलाओं को भी सरिता ताई की तरह ही डॉक्टरों ने एक ही कारण बताया- कैंसर का खतरा। हालाँकि, इन महिलाओं ने दावा किया कि सर्जरी उनकी स्वास्थ्य समस्याओं में सुधार करने में विफल रही, बल्कि उनकी स्थिति और खराब हो गयी। 45 वर्षीय सविता बाई (बदला नाम) ने बताया कि ऑपरेशन के बाद भी, उसके पेट के निचले हिस्से में दर्द खत्म नहीं हुआ। कभी-कभी मेरा हृदय तेज़ गति से धडक़ने लगता है और मुझे साँस लेने में तकलीफ होती है। कमज़ोरी भी महसूस होती है। उन्होंने कहा कि अभी से बूढ़े लोगों की तरह मेरी नज़र कमज़ोर हो गयी है।
तहलका की प्रमुख संवाददाता ने पाया कि इन सभी महिलाओं को सविता बाई की तरह ही कोई-न-कोई स्वास्थ्य समस्या है। इस बारे में स्थानीय डॉक्टर शुभांगी अहंकारी ने बताया कि बहुत ही आपात स्थिति में कम उम्र की किसी महिला का गर्भाशय निकाला जाता है और अगर किसी महिला को कैंसर होने का डर है या गर्भाशय स्वत: बाहर आ जाता है या बहुत अधिक रक्तस्राव होता है, तब 35 से 49 साल की उम्र में उसे निकाला जाता है।
कोई समाधान नहीं
महाराष्ट्र के बीड में गन्ने के खेत में कार्य की व्यस्तता के बीच पति के साथ दोपहर के खाने के लिए बैठी 27 वर्षीय मालती ने कहा कि मैडम! मैं इस बार अपना गर्भाशय निकलवा दूँगी। डॉक्टर ने मुझे बताया कि भारी रक्तस्राव के कारण मेरे भीतर कैंसर विकसित हो सकता है। मालती, जो 8 और 12 वर्ष की दो बेटियों की माँ हैं; मार्च में गन्ने की कटाई के सीजन के खत्म होने के बाद अपने गाँव उस्मानाबाद लौटकर गर्भाशय हटाने की कष्टप्रद सर्जरी से गुज़रने वाली हैं।
आँसू भरी आँखों के साथ पति की तरफ देखते हुए मालती कहती हैं कि यदि मैं अपने गर्भाशय को जल्द-से-जल्द नहीं निकलवाऊँगी, तो मैं निश्चित रूप से कैंसर से मर जाऊँगी। हम ऑपरेशन के लिए पैसे की व्यवस्था के लिए कड़ी मेहनत कर रहे हैं। मासिक धर्म के कारण काम से एक दिन भी अनुपस्थित रहने का मतलब है कि मुकद्दम (ठेकेदार) भारी ज़ुर्माना ठोक देगा, जिसे हम वहन नहीं कर सकते।
कुल मिलाकर यहाँ भारी रक्तश्राव का मतलब कैंसर विकसित होने का खौफ है, जो सभी महिलाओं को घेरे है। मालती ने कहा कि मैं मासिक धर्म के दौरान होने वाले दर्द के चलते हर बार छुट्टी लेकर आॢथक दण्ड (ज़ुर्माना) भुगतने का जोखिम नहीं ले सकती। सिर्फ अभी तीन दिन पहले ही मैंने उन्हें तीन दिन की छुट्टी के लिए 1500 रुपये का ज़ुर्माना अदा किया है; क्योंकि मैं मासिक धर्म के दर्द के कारण काम नहीं कर पा रही थी। गन्ना कटाई के ही काम से जुड़ी एक अन्य महिला, जो गन्ना पेराई सीजन के बाद हिस्ट्रेक्टमी के दौर से गुज़रेगी; ने कहा कि मैंने तीन बार चेकअप कराया। गोलियाँ लीं। लेकिन सफेद पानी के स्राव और पेट के निचले हिस्से में दर्द की समस्या में सुधार नहीं हो रहा है। डॉक्टरों ने कहा है कि अगर मैं अपने गर्भाशय को नहीं निकवाऊँगी, तो मुझे गम्भीर समस्या हो जाएगी।
क्या डॉक्टर ने बताया कि आप किस तरह की समस्या से पीडि़त हो सकती हैं?
उसने तुरन्त जवाब दिया- हाँ, कैंसर।
चिलचिलाती धूप से बचने के लिए शेड के नीचे एक साथ खाना खा रहे किसानों के साथ मुकद्दम (ठेकेदार) भी उपस्थित था। तहलका संवाददाता का उससे मिलना एक संयोग ही था। प्रमुख संवाददाता को देखकर करीब 30 साल की एक महिला मज़दूर ने गुस्से से भरकर ठेकेदार की तरफ इशारा करते हुए कहा कि मैडम! इस आदमी को देखो, यही हमारे भारी मेडिकल बिलों के लिए ज़िम्मेदार है। जब हम बीमार पड़ते हैं, तो वह हमें छुट्टी नहीं देता है। अगर हम मजबूरीवश छुट्टी कर लेती हैं, तो यह हमारी मज़दूरी काटने के अलावा हम पर भारी ज़ुर्माना भी लगाता है। महिला की शिकायत है कि इसी की तरह बाकी के ठेकेदार दशकों से आपराधिक प्रथाओं का इस्तेमाल करते हुए मज़दूरों का शोषण कर रहे हैं।
लालची डॉक्टरों को कैसे दें चुनौती?
भगवान के बाद डॉक्टर ही होता है। लेकिन यहाँ के कुछ डॉक्टर पैसे के लालच में महिलाओं को कैंसर का भय दिखाकर उनका गर्भाशय निकलवाने की सलाह देते हैं और मज़दूर महिलाएँ डर से गर्भाशय निवलवा देती हैं। बीड के बंजारा बस्ती की महिलाओं के एक समूह ने बताया कि डॉक्टरों ने यह कहकर कि उनका गर्भाशय गम्भीर रूप से क्षतिग्रस्त हो चुका है और देरी होने पर कैंसर हो जाएगा; उन्हें गर्भाशय निकलवाने की सलाह दी थी। साक्षात्कार के दौरान कई पीडि़तों ने पुष्टि की कि डॉक्टरों के कहने पर उन्होंने अपने-अपने गर्भाशय निकलवा दिये। हैरत की बात कि ये डॉक्टर महिलाओं को सलाह देते हैं कि अब उनके कई बच्चे हैं, इसलिए उन्हें बच्चेदानी की ज़रूरत नहीं है और उन्हें सर्जरी करा लेनी चाहिए, ताकि कैंसर से बच सकें। बता दें कि सूखाग्रस्त मराठवाड़ा क्षेत्र में लालची डॉक्टरों द्वारा गढ़ी गयी इन परिभाषाओं ने गरीब ग्रामीण महिलाओं के बीच एक धारणा बना दी है कि हिस्ट्रेक्टमी ही सभी समस्याओं का इलाज है। महिलाओं के दिमाग में यह भर दिया गया है कि इस तरह की सर्जरी किसी भी तरह की स्त्रीरोग सम्बन्धी समस्याओं, यहाँ तक कि मासिक धर्म के दर्द को भी दूर कर देती है। यह डॉक्टर महिलाओं को सर्जरी के गम्भीर नतीजों के बारे में कुछ भी नहीं बताते। इसलिए, वे आसानी से गर्भाशय को निकलवाने का विकल्प चुन लेती हैं। बता दें कि डॉक्टरों की यह बेशर्मी चौंकाने वाली है और व्यापक मीडिया रिपोट्र्स के बाद भी इन डॉक्टरों के िखलाफ कोई कार्रवाई नहीं की जाती है। तहलका की प्रमुख संवाददाता को नाम न छापने की शर्त पर एक डॉक्टर ने बताया कि कई ठेकेदार एक-एक बार में दज़र्नों महिलाओं को बहला-फुसलाकर डॉक्टरों के पास ले जाते थे और गर्भाशय निकलवा देते थे। जब मीडिया ने इस मामले को उठाया है, तबसे ठेकेदार सर्जरी के लिए महिलाओं को ले जाने से बच रहे हैं।
कैंसर : अफवाह है या असलियत?
देश के सर्वश्रेष्ठ कैंसर अनुसंधान संस्थानों में से एक, नरगिस दत्त मेमोरियल कैंसर अस्पताल महाराष्ट्र के बार्शी में स्थित है। सांकेतिक मामलों की जाँच के लिए इस संस्थान द्वारा कई गाँवों में स्वास्थ्य शिविर और कैंसर जाँच क्लीनिक समय-समय पर लगाये जाते हैं। ऐसे शिविरों से कई ग्रामीण लोग भी लाभान्वित हुए हैं।
सवाल यह है कि अगर मराठावाड़ा क्षेत्र में महिलाओं में कैंसर होने की सम्भावना इतनी ज़्यादा रहती है, तो अभी तक किसी स्वास्थ्य केंद्र ने इस मामले को संज्ञान में क्यों नहीं लिया? अभी तक कोई स्वास्थ्य अलर्ट जारी क्यों नहीं किया गया? और डॉक्टरों द्वारा इस तरह ऑपरेशन करने के मामले की जाँच क्यों नहीं की गयी? जबकि कुछ स्थानीय डॉक्टरों ने कैंसर का डर दिखाकर अधिकतर महिलाओं के गर्भाशय निकाल दिये। क्या कैंसर के नाम पर सर्जरी करके गर्भाशय निकालने वाले इन डॉक्टरों ने महिलाओं का प्री-कैंसरस सेल्स एग्ज़ामिनेशन टेस्ट कराया था? जो कि कैंसर के ऑपरेशन से पहले बेहद ज़रूरी होता है। क्या ऑपरेशन से पहले और बाद में डॉक्टरों की टीम ने मेडिकल काउंसलिंग की थी?
सरकारी स्वास्थ्य केंद्रों पर भरोसा नहीं
हैरानी की बात यह है कि मराठवाड़ा में अधिकतर ग्रामीण स्वास्थ्य सेवा की ज़रूरतों के लिए निजी अस्पतालों में जाने को प्राथमिकता देते हैं। कारण? चूँकि, अधिकांश ग्रामीण स्वास्थ्य के आधार पर छुट्टी लेने का जोखिम नहीं उठा सकते हैं। इससे दैनिक मज़दूरी का नुकसान होता है। वहीं, लम्बे समय तक उपचार और नशीली दवाओं के उपयोग का उनके लिए अर्थ है- ज़्यादा परिवहन लागत, दवा की लागत और डॉक्टर को अदा किया जाने वाला ज़्यादा शुल्क। इसलिए अधिकांश ग्रामीण महिलाएँ तत्काल स्वास्थ्य समाधान के लिए निजी अस्पतालों में जाना पसन्द करती हैं। एक धारणा बन गयी है कि सरकारी अस्पतालों में काम (इलाज) धीमी गति से होता है। इसके अलावा सार्वजनिक अस्पतालों में स्वास्थ्य लाभ की योजनाओं और सुविधाओं के बारे में ग्रामीणों में जागरूकता का नितांत अभाव है; जबकि सच यह है कि वहाँ स्वास्थ्य सुविधाएँ कमोवेश मुफ्त में उपलब्ध हैं।
अब तक की कार्रवाई
मई, 2019 में कई मीडिया रिपोट्र्स के ज़रिये जब इन डॉक्टरों की दुर्भावनाओं की जानकारी सामने आयी और गरीब ग्रामीण महिलाओं पर हिस्ट्रेक्टमी (उनका गर्भाशय निकाल देने) की चौंकाने वाली दर का खुलासा हुआ, तो महाराष्ट्र राज्य संदेह के घेरे में आ गया। फेडरेशन ऑफ ऑब्स्ट्रेटिक एंड गायनेकोलॉजिकल सोसाइटीज ऑफ इंडिया (एफजीएसआई) ने ‘गर्भाशय बचाओ’ अभियान के तहत बड़े पैमाने पर जागरूकता अभियान चलाया। इस मामले को देखने के लिए सरकार ने सात सदस्यीय समिति नियुक्त की और नये निर्देश जारी किये, जिसके तहत अब निजी अस्पतालों को ज़िला सिविल सर्जन या तालुका स्वास्थ्य अधिकारी से प्रक्रिया पूरी करने की अनुमति लेनी होगी। इसके अलावा, अब महिला गन्ना मज़दूरों की उनके प्रवास और उसके बाद गन्ने के खेतों से लौटने पर स्वास्थ्य जाँच आवश्यक होगी। इस मामले में तहलका ने राष्ट्रीय महिला आयोग (एनसीडब्ल्यू) से बात की। एनसीडब्ल्यू ने दावा किया कि उसने 2009 की मीडिया रिपोर्ट पर संज्ञान लिया था। एनसीडब्ल्यू ने कहा कि उसने महाराष्ट्र सरकार से इस मामले में सख्त कार्रवाई करने को भी कहा था और पीडि़तों के पुनर्वास और मुख्यधारा के लिए भी कार्रवाई की माँग की है। इसके अलावा प्रवास करने से पहले और अब महिला गन्ना मज़दूरों की गन्ने के खेतों से लौटने के बाद स्वास्थ्य जाँच होगी। हालाँकि, प्रमुख संवाददाता को कई महिला मज़दूरों ने बताया कि प्रवास से पहले उनकी कोई भी जाँच नहीं की गयी। हिस्ट्रेक्टमी या अन्य स्त्रीरोग सम्बन्धी मुद्दों, जैसे- गले का कैंसर, फाइब्रॉयड ट्यूमर, सफेद प्रदर, भारी रक्तस्राव, गर्भाशय में परेशानी, एंडोमेट्रियोसिस आदि मामले में गरीब महिलाओं में जागरूकता स्तर शून्य है। राज्य सरकार ने भी इन महिलाओं की स्वास्थ्य जाँच के लिए कोई कदम नहीं उठाया है, जो अतीत में हिस्ट्रेक्टमी से गुज़री थीं।
न मुआवज़ा, न कार्रवाई, आखिर क्यों?
अब उन महिलाओं का क्या, जिनकी हिस्ट्रेक्टमी हुई थी? उनकी वर्तमान स्वास्थ्य स्थिति पर जाँच करने का कोई निर्देश क्यों नहीं दिया गया? गम्भीर चिकित्सा जटिलताओं के बावजूद प्रभावित महिलाओं को राज्य सरकार की तरफ से कोई सहायता क्यों नहीं प्रदान की गयी है? और दोषी डॉक्टरों के िखलाफ क्या कार्रवाई हुई? क्या डॉक्टरों और गन्ना खेत ठेकेदारों के बीच मिलीभगत है? जबकि यह साफ है कि इन महिला मज़दूरों में मासिक धर्म की बुनियादी जानकारी का अभाव है, तो सरकार इन ज़िलों में बड़े पैमाने पर जागरूकता अभियान क्यों नहीं चला रही है? हिस्ट्रेक्टमी से गुज़र चुकी कई महिलाओं की स्वास्थ्य स्थिति बिगड़ रही है और उनकी स्थिति की जाँच करने का कोई राज्य का निर्देश नहीं है। न ही उन डॉक्टरों या अस्पतालों के िखलाफ कोई कार्रवाई की गयी थी, जहाँ यह सब हुआ?
अनइंडिकेटेड हिस्ट्रेक्टमी के मामलों और डॉक्टरों के िखलाफ कोई कार्रवाई नहीं होने को लेकर बीड ज़िले के सिविल सर्जन डॉ. अशोक थोरात कहते हैं कि हमारे पास अस्पतालों की, जो सूची है उसके डॉक्टरों को लेकर कोई विसंगति नहीं मिली है। न ही यह साबित किया जा सका है कि किसी डॉक्टर ने किसी रोगी को हिस्ट्रेक्टमी के लिए मजबूर किया था या उसे धमकी दी थी।
थोरात ने कहा कि अब हम हिस्ट्रेक्टमी के नये मामलों की जाँच के तरीकों के साथ सामने आये हैं। सिविल सर्जन की अनुमति के बिना अस्पताल हिस्ट्रेक्टमी नहीं कर सकते। उदाहरण के लिए इस रिपोर्ट को देखें (एक मरीज़ की मेडिकल रिपोर्ट की ओर इशारा करते हुए, जो सिविल सर्जन से अनुमोदन लेने के लिए आया था), इसकी रिपोर्टों में कहा गया है कि उसके गर्भाशय में रसोली (गाँठ) है। पूरी तरह जाँच के बाद ही हम अस्पताल को सर्जरी के लिए अनुमति देंगे। राज्य सरकार की तरफ से जारी किये गये आँकड़े बताते हैं कि 2016 से 2019 तक तीन वर्षों में करीब 4,605 महिलाओं ने 99 अस्पतालों में महाराष्ट्र में हिस्ट्रेक्टमी सर्जरी की। यह भी बताया गया है कि बीड ज़िले में राज्य या देश के लिहाज़ से हिस्ट्रेक्टमी की दर 14 गुना ज़्यादा है। राज्य के स्वास्थ्य अधिकारियों ने यह भी खुलासा किया है कि उनके पास उन सभी अस्पतालों और डॉक्टरों का रिकॉर्ड था, जिन्होंने हाल के वर्षों में इस तरह की सर्जरी की; फिर भी हमने देखा कि उनके िखलाफ कोई कार्रवाई नहीं हुई है।
‘तहलका’ ने ज़मीनी हकीकत भी देखी। गन्ने के खेतों में कोई शौचालय नहीं है, जिसके परिणामस्वरूप ये महिलाएँ जंगल में शौच करती हैं। पीने के साफ पानी की कोई सुविधा नहीं है, वे झुगियों में रहती हैं और उनके छोटे बच्चों के लिए क्रेच आदि की कोई सुविधा नहीं है। महिलाओं की ज़रूरतों के लिए सैनिटरी नैपकिन और अन्य सुविधाओं का नितांत अभाव है। राज्य सरकार के अधिकारियों की तरफ से महिलाओं में मासिक धर्म और स्त्री रोग सम्बन्धी मुद्दों पर जागरूकता जगाने की कोई कोशिश नहीं हुई है। पूर्ण अज्ञानता के चलते, ग्रामीण महिलाएँ आसानी से झाँसे में आ जाती हैं और उनका शोषण होता है। लेकिन सरकार की तरफ से उन्हें इस चंगुल से बाहर निकालने के लिए कोई प्रयास नहीं दिखा है। इस स्थिति को देश भर के मीडिया ने उजागर किया है, लेकिन अब तक राज्य सरकार की तरफ से इसके समाधान के लिए कोई विश्वसनीय कोशिश नहीं की गयी है।
इन ज़िलों के कई डॉक्टर पिछले कई साल से 20 साल की छोटी उम्र की महिलाओं को भी गर्भाशय निकालने की सलाह दे रहे हैं। वे इस सर्जरी को इन क्षेत्रों में युवा महिलाओं के बीच उनकी तमाम समस्याओं के रामबाण हल के रूप में बेच रहे हैं और कथित तौर पर उन्हें बता रहे हैं कि गर्भाशय को निकालने में देरी से उन्हें कैंसर होने का पूरा खतरा है। ऐसे कई सवाल हैं, जिनके जवाब हमें नहीं मिले। महाराष्ट्र के अलावा कर्नाटक, बिहार, छत्तीसगढ़, राजस्थान और आंध्र प्रदेश में भी इस तरह के इसी तरह के अनावश्यक हिस्ट्रेक्टमी के मामले सामने आये हैं, जिनके पीछे का कारण गरीबों का शोषण है। दुर्भाग्य से इन राज्यों में भी हमने समस्या के निवारण की दिशा में कोई प्रगति नहीं देखी। अदालत में मामले दायर किये गये हैं, लेकिन न्याययिक प्रणाली को फैसले तक पहुँचने में समय लगता है।
सुलगते सवाल
क्या सभी महिलाओं को पूर्व-कैंसर कोशिकाओं की परीक्षा से गुज़रना पड़ा या उनकी स्थिति के बारे में परामर्श दिया गया?
अगर चीनी पट्टी (शुगर बेल्ट क्षेत्र) की महिलाओं को वास्तव में कैंसर विकसित होने की आशंका है, तो राज्य सरकार ने कभी कोई रिपोर्ट या बयान जारी क्यों नहीं किया?
यदि कैंसर वास्तविकता नहीं है, तो कैंसर की अफवाह किसने फैलाई और क्यों?
क्या कैंसर का इलाज करने के लिए महिलाओं का गर्भाशय निकालना ही समाधान है?
क्या महिलाओं का गर्भाशय निकालने वाले डॉक्टर प्रशिक्षित हैं? या ऐसे ही कैंची और दूसरे औज़ारों का प्रयोग करके वे ऑपरेशन कर डालते हैं?
क्या महिलाओं का गर्भाशय निकालने वाले डॉक्टर इस बात की गारन्टी लेते हैं कि उनके द्वारा किये गये ऑपरेशन से महिलाओं को दूसरी नयी बीमारियाँ नहीं होंगी?
अगर चीनी पट्टी (शुगर बेल्ट क्षेत्र) की महिलाओं को वास्तव में कैंसर विकसित होने की आशंका है, तो राज्य सरकार ने कभी कोई रिपोर्ट या बयान जारी क्यों नहीं किया?
इस मामले में प्रमुख संवाददाता ने सिविल सर्जन डॉ. अशोक थोरात से बातचीत की…
बीस साल से कम उम्र की इतनी सारी महिलाएँ हिस्ट्रेक्टमी से क्यों गुज़रती हैं?
मासिक धर्म की कमी और व्यक्तिगत स्वच्छता, गन्ने के खेतों में शौचालय की सुविधा की कमी आदि के कारण लगातार जननांग संक्रमण आदि हिस्ट्रेक्टमी के मुख्य कारण हैं।
क्या सर्जरी से पहले सभी महिला मज़दूर स्वास्थ्य जाँच से गुज़रती हैंै, जैसा कि नयी गाइडलान में कहा गया है?
हमने ज़िला स्वास्थ्य अधिकारियों (डीएचओ) को अधिकृत किया है और उन्हें सुझाव दिया है कि इसकी निगरानी और जाँच करना उन पर निर्भर है। मैं 100 प्रतिशत नहीं कह सकता, लेकिन उनमें से अधिकांश ने बीड में स्क्रीनिंग की है।
अनइंडिकेटेड हिस्ट्रेक्टमी करने वाले डॉक्टरों के िखलाफ कोई कार्रवाई क्यों नहीं की गयी है?
हमारी तरफ से की गयी जाँच कहती है कि सभी 5,000 महिलाओं के पास पूरे मामले के कागज़ात, रिपोर्ट और दस्तावेज़ हैं और इसमें उनके हिस्ट्रेक्टमी के संकेत मिले थे। इसके अलावा, अस्पतालों की जाँच के दौरान हमें ऐसे रिकॉर्ड मिले, जिनसे साबित होता है कि उनके पास सर्जरी करने के पर्याप्त कारण थे। हमें ऐसा कोई मामला नहीं मिला, जिससे यह साबित किया जा सके कि डॉक्टरों ने मरीज़ों के साथ बल या धमकी का इस्तेमाल किया। दूसरे, पुराने मामलों में पर्याप्त सुबूत के बिना, कोई यह चुनौती नहीं दे सकता है कि रोगियों को दिया गया कारण वास्तव में वास्तविक था या नहीं।
लेकिन, ज़्यादातर महिलाओं को ज़्यादातर डॉक्टरों ने हिस्ट्रेक्टमी के पीछे कारण के रूप में कैंसर क्यों बताया?
बीड में ऐसा कोई रिकॉर्ड उपलब्ध नहीं है।
फिर कैंसर की अफवाह कौन फैला रहा है?
मैं वास्तव में नहीं जानता। कम-से-कम डॉक्टर तो नहीं। पूछताछ दो स्तर पर थी। ज़िला और राज्य स्तर पर। ऐसी एक भी रिपोर्ट नहीं मिली, जिसके आधार पर हम यह कह सकते हैं कि किसी भी डॉक्टर ने महिलाओं को हिस्ट्रेक्टमी के लिए धमकी दी या बल प्रयोग किया। किसी एनजीओ की तरफ से अफवाह थी कि अनइंडिकेटेड हिस्ट्रेक्टमी वाली महिलाओं को राज्य सरकार की तरफ से 50,000 रुपये का मुआवज़ा मिलेगा। इसका नतीजा यह हुआ कि मुआवज़े के लालच में कई महिलाओं ने यह झूठ ही कह दिया कि उन्हें अनइंडिकेटेड हिस्ट्रेक्टमी है। यह सम्भव है कि जिन महिलाओं से आपकी बात हुई, वे वही महिलाएँ हों, जो यह लाभ (मुआवज़ा) पाने की हसरत रखती हों।
स्थिति सुधारने के लिए आप क्या करते हैं?
इसके लिए हम ज़िले में हेल्थ स्क्रीनिंग कर रहे हैं, ताकि कोई भी अनइंडिकेटेड हिस्ट्रेक्टमी न हो। हमने निजी चिकित्सकों को भी नियमों से अवगत कराया है और उन्हें उपचार के लिए चिकित्सा नियमों का पालन करने की हिदायत दी है। हमने हरेक निजी क्लिनिक में हिस्ट्रेक्टमी पर नियमों को दर्शाने वाले बोर्ड डिस्प्ले करवाये हैं।
ग्रामीण स्तर पर जागरूकता के लिए क्या कर रहे हैं?
ज़मीनी स्तर पर स्थानीय लोगों की मदद के लिए हमारे पास आँगनवाड़ी और स्वास्थ्य कार्यकर्ता हैं।