जैसे उसके घर के दरवाजे पर दूसरी बार तेज दस्तक हुई तो उसने साडी के पल्लू को कंधे पर डाला और वह घर से बाहर निकल कर गंदे आंगन में खडी थी। उसने देखा कि उसका बुर्जुग, अत्यन्त परेशान पति उस गंदगी पर बैठा था और बुदबुदा रहा था – ”कागजात, वे यह साबित करने के लिए कागजात देखना चाहते हैं कि हम यहां पैदा हुए थे।’’
‘क्या’! वह मुश्किल से इतना ही बोल सकी।
‘हमें यह साबित करना होगा कि आप और मैं इस भूमि से संबंधित है। अन्यथा हमें बाहर निकाल दिया जाएगा। हमारे नाम नागरिकों की उस सूची में नहीं हैं पता नहीं अब हमारे साथ क्या होगा?’
‘लेकिन क्या वे जानते नहीं कि पिछले साल की बाढ़ ने हमारे सारे सामान को बर्बाद कर दिया था, हमारे बक्से पानी में बह गए थे-’
‘ अब-सारा गांव यह जानता है परन्तु सरकार नहीं। हम बर्बाद हो गए– हमें समुद्र या जंगलों में फैंक दिया जाएगा या मार दिया जाएगा।’ उसका पति उससे आगे कुछ नहीं बोल पाया और एक तरफ लुढ़क गया।
असम के सैंकड़ों और हज़ारों निवासी निर्वासित होने से पहले हर दिन धीरे-धीरे मर रहे हैं। आखिरकार असम के नागरिकों के राष्ट्रीय रजिस्टर के नवीनतम मसौदे में 40 लाख लोगों के नाम शामिल नहीं है, जी हां असम की 12 फीसद आबादी को छोड़ दिया गया है।
नागरिकों की सूची से नाम बाहर होने का सदमा उन्हें मारने के लिए पर्याप्त है। हालांकि आज तक असम के इन 40 लाख लोगों के स्वास्थ्य संबंधी कोई जांच नहीं की गई। दिल के दौरे, या मधुमेह या रक्तचाप के बढ़ते स्तर की जांच करने के लिए कुछ नहीं किया गया। लेकिन यह महत्वूपर्ण खोज हो सकती है, साथ ही यह जानना महत्वपूर्ण होगा कि क्या सरकार ने सरकार की तीव्रता और सदमें के कारण बीमार पडऩे वाले या धीरे-धीरे मरने वालों के लिए चिकित्सकों और स्वास्थ्य देखभाल करने वालों को नियुक्त किया है।
हालांकि वे जिन्हें एनआरसी से बाहर रखा गया है। उन्हें अपनी भारतीय नागरिकता साबित करने का दूसरा मौका दिया जाएगा, लेकिन यह अपने आप में एक बहुत कठिन प्रक्रिया है। क्या प्रतिष्ठान यह उम्मीद करता है कि इन लोगों के पास उनके जन्म, नागरिकता और पैतृक पृष्ठभूमि के कागज़ात होंगे। अगर एनआरसी देश के अन्य राज्यों में नागरिकता का सर्वेक्षण करता है तो देश में गृह युद्ध फैल सकता है। अगर लाखों लोगों का भारतीय नागरिक स्वीकार नहीं किया जाता तब उनकी जिंदगी के साथ क्या होगा। क्या हम लाखों लोगों को निर्वासित कर देंगे, क्योंकि वे यह साबित नहीं कर सके कि वे इस देश से संबंधित हैं।
प्रोफेसर वीके त्रिपाठी जो आईआईटी दिल्ली में भौतिक विज्ञान पढ़ाते है,ं सदभव मिशन भी चलाते हैं और असम संकट पर ध्यान केंद्रित कर रहे हैं के अनुसार -”मिट्टी का बेटा वह नहीं जो राष्ट्र की मिट्टी में जन्मा हो। परन्तु वह जो मिट्टी में रहता है, भूमि में काम करता है और राष्ट्र के लिए अन्न उगाता है और आसपास के लोगों के साथ अपने आराम और उतार-चढ़ाव को बांटता है। वह भूमि का बेटा है। वह चाहे हिंदू हो या मुसलमान, असमिया, बाग्ंला,बोडो,हिंदी या अन्य भाषा बोलता हो। सभी मज़दूर वर्ग के लोग मिट्टी के सच्चे बेटे हैं। वे यहां पैदा हुए, उनके पूर्वज शताब्दियों से यहां रहते आए हैं। उन्होंने इस धरती में अपना खून, पसीना मिलाया है, और अपनी कमाई का आधा हिस्सा देश के लिए दिया है। धरती का टुकडा जहां वे रहते हैं उनके साथ संबंधित है। उन्होंने कभी भी किसी की संपत्ति को लुटा नहीं, लेकिन कई बार वे शोषक और आततायी लोगों के शिकार हुए। उनके पास मातृभूमि में स्वतंत्रता और गरिमा के साथ रहने का मौलिक अधिकार उनसे कही अधिक जो शासन और शोषण करते हैं।
प्रोफेसर त्रिपाठी ने आंकड़ों और तथ्यों के साथ तर्क दिया ” 1871 की जनगणना में असम में मुस्लिम आबादी 28.7 फीसद थी, 1941 मेें 25.72 फीसद, 1971 में 24.56 फीसद, 1991 में 28.43 फीसद, 2001 में 30.92 फीसद और 2011 में 34.2 फीसद (राज्य की कुल 320 लाख की जनसंख्या में)।’’
हालांकि भूमि और संपत्ति में उनका फीसद हिस्सा बहुत कम है। केवल 7.9 फीसद शहरों में और 5.8 फीसद ग्रामीण इलाकों में औपचारिक रूप से है। हिन्दुओं के लिए ये आकंड़े 23.1 फीसद और 12.3 फीसद है।
”बाकी अनौपचारिक सेक्टर में हिंदू और मुस्लिम जनता की आय कम है- 36 फीसद लोग गरीबी रेखा से नीचे हैं (अखिल भारतीय औसत 26 फीसद के खिलाफ)। जि़ले जहां मुस्लिम आबादी 45 फीसद से ज़्यादा है धुबरी के अपवाद के अलावा। (धुबरी 28.6 फीसद, गौलपाडा 60.3 फीसद, बारपेटा में 50.19 फीसद, कैला कंडी 43.79 फीसद, करीमगंज 48.23 फीसद, नागांव 39.96 फीसद, मारिगांव 80.14 फीसद)।
उन्होंने आगे कहा,” असम में प्रति व्यक्ति आय राष्ट्रीय औसत का केवल 60 फीसद है, जबकि विकास दर राष्ट्रीय औसत का आधा है।
1991-2000 के दौरान असम में मजदूरी की वार्षिक वृ़िद्ध दर नेगटिव (-0.12 फीसद) है जबकि देश में यह $3.36 फीसद थी इसके लिए यदि हम असुरक्षा का डर जोड़ते हैं तो काम करने वालों के लिए असम आकर्षण का स्थान नहीं है। वास्तव में पिछले दो दशकों से बड़े पैमाने पर लोग असम से केरल की तरफ प्रवास कर चुके हैं और केरल के स्थानीय लोग मध्य पूर्व की ओर चले गए हंै।
प्रोफेसर त्रिपाठी ने आगे कहा कि मज़दूर वर्ग की नागरिकता पर हमला करने के लिए भारत के विभाजन को वजह नहीं बनाया जा सकता। विभाजन वास्तव में -शासन प्राधिकरण का विभाजन था- कुछ राज्य मुस्लिम लीग द्वारा शासित थे और शेष कंाग्रेस द्वारा। लोग जहंा चाहे रह सकते हैं। यहां मजदूर वर्ग के हितों और उनकी दुर्दशा के लिए कोई सोच नहीं है। न्याय की मांग है कि भारत में पैदा हुए मजदूर वर्ग में से चाहे कोई भी हो उसे भारतीय नागरिक के रूप में माना जाना चाहिए।
”वास्तव में नागरिकता अधिनियम 1955 की धारा 3 में 2003 में हुए संशोधन के अनुसार निम्न आधार पर भारतीय माना जाएगा:
1. 1950 और 1987 के बीच पैदा हुआ व्यक्ति उसके माता-पिता की नागरिकता कुछ भी हो।
2. 1987 और 2003 के बीच पैदा हुआ व्यक्ति जिसके माता पिता में से कोई एक भारतीय हो।
3. 2003 के बाद पैदा हुए व्यक्ति जिसके माता-पिता भारतीय नागरिक हैं।
इस संशोधन के संदर्भ में एनआरसी को निर्वासित मामलों को फिर से देखना चाहिए। सरकार को मज़दूर वर्ग के लिए भारत-पाकिस्तान-बाग्ंला देश की सीमा को पार करने का प्रयास करना चाहिए, क्योंकि इन वर्गों को ब्रिटिश भारत या नए बने राष्ट्र में कभी भी उनकी सही महत्व नहीं दिया गया। विदेशों में जाने वाले भारतीयों को वहां कुछ साल काम करने के बाद उस देश की नागरिकता मिल जाती है। कई देश वहां अवैध प्रवासियों के पैदा हुए बच्चों को पूर्ण नागरिकता प्रदान करते है। यहा हम उन लोगों की बात कर रहे है जिनके पूर्वजों शताब्दियों से यहां रहते थे और इस धरती को सेवा करते थे। वे उन अधिकारों के लायक है जिनकी मांग हम अप्रवासी भारतीयों के लिए अन्य देशों में करते हैं – प्रोफेसर त्रिपाठी ने कहा।