पंजाब देश का पहला राज्य बन गया है, जिसने न्यूनतम समर्थन मूल्य पर खरीद न करने पर दंड का प्रावधान किया है। पास विधेयक के अनुसार, राज्य में केंद्र के न्यूनतम समर्थन मूल्य पर खरीद करने वाले को तीन साल की सज़ा और ज़ुर्माने का प्रावधान रखा गया है। यह कानून बनने के बाद लागू होंगे; क्योंकि इसमें अभी कई तरह की अड़चने आने वाली हैं। हरियाणा में ऐसे किसी विधेयक के आने की सम्भावना न के बराबर है। वहाँ तो सरकार किसानों को केंद्र के तीनों कृषि कानूनों को उनकी िकस्मत बदल देने वाला बता रही है। यह काम पंजाब में भाजपा अपने स्तर पर कर रही हैं। केंद्र के तीनों कृषि कानूनों में कृषि उत्पाद के भण्डारण करने पर कोई रोक नहीं है। पर पंजाब में पास किये विधेयक में ऐसा करने पर रोक रहेगी। पर देश के अन्य हिस्सों का क्या होगा? क्योंकि वहाँ तो किसी तरह की रोक का प्रावधान नहीं होगा।
न्यूनतम समर्थन मूल्य पर किसान का भय अकारण नहीं है। वह इस मुद्दे पर ज़रा भी भ्रमित भी नहीं है, उसे पक्का भरोसा हो गया है कि भविष्य में पहले की तरह गेहूँ और धान न्यूनतम समर्थन मूल्य पर नहीं खरीदा जाएगा। सरकार तय स्टॉक की खरीद के बाद काम बन्द कर देगी और बाकी का काम निजी कारोबारी सँभाल लेंगे। उन्हें नमी या अन्य कारणों का हवाला देकर उत्पाद कम कीमत पर बेचने पर मजबूर होना पड़ेगा। पहले गेहूँ और धान की दोनों राज्यों में हाथ-ओ-हाथ खरीद और भुगतान होता रहा है। 24 घंटे के अन्दर फसल की बिक्री और पैसा मिल जाता था। इस वर्ष वह परम्परा टूटी है। अब धान की सरकारी खरीद न्यूनतम समर्थन पर हो रही है; लेकिन भुगतान हाथ-ओ-हाथ नहीं, बल्कि तीन से चार दिन लग रहे हैं। अभी तो कानून पूरी तरह से सक्रिय भी नहीं हुआ है। बड़े कॉरपोरेट अभी मैदान में उतरे भी नहीं है; बावजूद इसके किसान हलकान हुआ जा रहा है।
केंद्र की मंशा तो किसान की आय दोगुनी करने की है; पर यह होगा कैसे? जब उसका उत्पाद लागत से कम पर बिकेगा, तो उसकी आय आधी रहने की आशंका ज़्यादा है। कृषि से जुड़ी हर चीज़ पर केंद्र अनुदान की व्यवस्था करे, तो यह सम्भव जान पड़ता है। खाद, बीज, मशीनरी और डीज़ल पर उन्हें विशेष रियायत मिलनी चाहिए। ऐसा तो इन कानूनों में कोई प्रावधान नहीं है। पश्चिमी देशों की तर्ज पर भारत के किसान को कारोबारी बनाना बहुत मुश्किल है। किसानों का एक बड़ा हिस्सा छोटी जोत का है। छोटे और मझौले किसान अपने को बदलना नहीं चाहते। अभी उनकी मानसिकता पारम्परिक खेती की ही है। सरकार देश के किसान को यूरोपीय देशों की तरह अग्रणी बनाना चाहती है। वहाँ तो वृहद स्तर पर सरकारें अनुदान देती हैं। किसानों को किसी भी स्थिति में नुकसान नहीं होता, पर हमारे यहाँ की अर्थ-व्यवस्था तो ऐसी नहीं कि यह कर सके।
केंद्र सरकार के तीन कृषि कानूनों के खिलाफ सबसे ज़्यादा सक्रियता पंजाब में ही हुई है। हालाँकि आंदोलन की शुरुआत हरियाणा के पिपली (कुरुक्षेत्र) मेें से हुई। जहाँ तीनों बिलों के विरोध में किसान जमा हुए और पुलिस ने लाठीचार्ज किया। हरियाणा में भाजपा-जजपा की गठबंधन सरकार तो शुरू से ही कृषि विधेयकों का समर्थन करती आ रही है। वह केंद्र के खिलाफ नहीं जा सकती; लेकिन पंजाब में कांग्रेस सरकार के साथ ऐसी कोई मजबूरी नहीं; लिहाज़ा उसने विधानसभा का विशेष सत्र बुलाया और सर्वसम्मति से तीनों कृषि बिलों में संशोधन कर इसे पास कर दिया।
प्रमुख विपक्षी दल आम आदमी पार्टी और शिरोमणि अकाली दल ने भी संशोधिन विधेयकों में सरकार का साथ दिया। यह पहला मौका है कि इस मुद्दे पर मुख्यमंत्री कैप्टन अमरिंदर सिंह ने विपक्ष को साथ जोड़ लिया। इसे दोनों दलों की मजबूरी भी कहा जा सकता है। कृषि प्रधान राज्यों में कोई भी पार्टी किसानों के खिलाफ नहीं जा सकती। उनके हितों से ज़्यादा उन्हें वोट बैंक की चिन्ता रहती है, लिहाज़ा उन्हें सरकार का समर्थन करना ही था।
सवाल यह कि क्या पंजाब सरकार के विशेष सत्र में केंद्र के तीन कृषि कानूनों के खिलाफ विधेयक पारित करने से किसानों को राहत मिलेगी? क्या इससे पंजाब में पहले जैसी ही व्यवस्था हो जायेगी? क्या इस कदम से पंजाब में किसान पहले की तरह गेहूँ और धान न्यूनतम समर्थन मूल्य पर बेच सकेंगे? नये प्रावधान में न्यूनतम समर्थन मूल्य पर सबसे ज़्यादा ज़ोर दिया गया है। मगर जब तक राष्ट्रपति इस पर हस्ताक्षर नहीं करते, ये विधेयक कानून का रूप नहीं ले सकेंगे। वहीं पंजाब के राज्यपाल ने भी हस्ताक्षर नहीं किये हैं, वह संवैधानिक और कानूनी राय लेने के बाद ही वह इसके बारे में फैसले लेंगे। सरकार और विपक्षी दलों के प्रतिनिधियों की इस मुद्दे पर राज्यपाल वी.पी. सिंह बदनौर से लम्बी बात हुई है। कहने को मुख्यमंत्री और विपक्ष इस मुद्दे पर आश्वस्त दिखते हैं; लेकिन इनके कानून बनने की सम्भावना बहुत कम ही नज़र आती है।
विशेषज्ञों की राय में केंद्र सरकार के किसी भी कानून को राज्य सरकार इस तरह रद्द नहीं कर सकती। पंजाब विधानसभा के विशेष सत्र में कमोबेश तीनों कृषि कानूनों को एक तरह के रद्द करने का फैसला ही लिया गया है। यह एक तरह से केंद्र को चुनौती ही कहा जा सकता है। ऐसे कानूनों को न्यायालय में तो चुनौती दी जा सकती है; लेकिन उनके खिलाफ विधेयक लाकर उन्हें रद्द नहीं किया जा सकता। तीनों कृषि कानूनों में कहीं भी न्यूनतम समर्थन मूल्य की बात से इन्कार नहीं किया गया है।
प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी और कृषि मंत्री नरेंद्र सिंह तोमर कई बार न्यूनतम समर्थन मूल्य में किसी तरह का कोई बदलाव न करने का भरोसा दे चुके हैं; लेकिन किसानों को उनके बयानों या बात पर ज़रा भी भरोसा नहीं है। वे लिखित तौर पर पहले की तरह समर्थन मूल्य पर उत्पाद बिकने की गारंटी चाहते हैं। केंद्र यही गारंटी देने को तैयार नहीं है।
सवाल यह है कि जिस न्यूनतम समर्थन मूल्य की किसान माँग कर रहे हैं, केंद्र सरकार उसकी लिखित गारंटी क्यों नहीं दे रही? क्या कारण है कि देश भर में किसान आंदोलन पर उतारू हैं; विशेषकर पंजाब और हरियाणा में आंदोलन इतना लम्बा खिंच गया है। किसान रेल-पटरियों और टोल टेक्स नाकों पर बैठे हैं। केंद्र अब पहले की तरह दोनों राज्यों से गेहूँ और धान की पूरी खरीद नहीं करना चाहती। वह केवल ज़रूरत के हिसाब से ही खरीद करना चाहती है; बाकी की खरीद का काम बड़े कारोबारियों के हाथों में सौंपना चाहती है। केंद्र सरकार का हज़ारों टन गेहूँ और धान हर वर्ष खराब होता है। उसे बचाया जा सकता है और उसका सदुपयोग भी किया जा सकता है; पर सही में इस तरफ ध्यान नहीं दिया जा रहा है। कहा जा सकता है कि केंद्र सरकार अब न्यूनतम समर्थन मूल्य की गारंटी नहीं देना चाहती और किसान इस माँग से पीछे नहीं हट सकते। यह उनका एक तरह से अधिकार है। वे दोनों नकदी फसलों के अलावा अन्य किसी की खेती करने के पक्ष नहीं हैं। फसल बदलाव एक बेहतर प्रक्रिया है; लेकिन इसके लिए किसान को लागत मूल्य मिलने की गारंटी चाहिए। उसे जो न्यूनतम समर्थन मूल्य चाहिए, वह कागज़ों में तो है; मगर उस पर खाद्यान्न बिकते नहीं हैं।
पंजाब और हरियाणा में मंडी व्यवस्था बहुत मज़बूत है; इसलिए यहाँ गेहूँ, धान, कपास और अन्य उत्पाद न्यूनतम समर्थन मूल्य पर बिक जाते हैं। ऐसे राज्यों की क्या बात करें? जहाँ मण्डी-व्यवस्था न के बराबर है, वहाँ मजबूरी में किसानों को औने-पौने दामों में उत्पाद बेचने पर मजबूर होना पड़ता है। नये कृषि कानूनों से पंजाब और हरियाणा में मण्डी-व्यवस्था कायम रह सकेगी, इसमें भी कुछ संदेह लगता है। जब बड़े कॉरपोरेट और किसान सीधे ही सौदा कर सकेंगे, तो मण्डियों का वह स्परूप भला कैसे बचेगा? मण्डी व्यवस्था को मज़बूत करने की ज़रूरत है; जबकि नये कृषि कानूनों के अनुसार यह कमज़ोर हो रही है।
इस्तीफा जेब में…
पंजाब सरकार के इस कदम को केंद्र किस तरह लेगा इस पर कई तरह की अटकलें लग रही हैं। कुछ राज्य में राष्ट्रपति शासन लगने या सरकार को बर्खास्त करने जैसी बातें कर रहे हैं। मुख्यमंत्री अमरिंदर सिंह भी प्रतिक्रिया दे चुके हैं। वह कहते हैं कि वह तो इस्तीफा अपनी जेब में रखते हैं। जब भी ज़रूरत होगी, वह इसके लिए तैयार हैं; पर किसानों के खिलाफ नहीं जाएँगे। वह किसान यूनियनों का कुछ हद तक भरोसा जीतने में सफल भी रहे हैं। किसान रेल रोका आंदोलन को नवंबर के पहले सप्ताह तक टालने पर सहमत हो गये हैं। सब ठीक रहा तो किसान रेल पटरियों से हट जाएँगे। पंजाब में मालगाडिय़ाँ फिर से शुरू हो सकती हैं।
चुनौती देंगे
पंजाब में कैप्टन अमरिंदर सिंह सरकार के प्रति किसानों का रोष बहुत कम है। विधानसभा के विशेष सत्र में तीनों कृषि कानूनों में बड़े स्तर पर संशोधन करने का कदम उन्हें अपने हित में लगा है। अमरिंदर कह चुके हैं कि किसानों के हितों के लिए अगर ज़रूरत हुई तो उनकी सरकार सुप्रीम कोर्ट में नये कृषि कानूनों को चुुनौती देगी। उन्हें उम्मीद है विधानसभा में पास विधेयक राज्यपाल व राष्ट्रपति के हस्ताक्षर के बाद कानून का रूप लेंगे। इसकी वजह से न्यूनतम समर्थन मूल्य हर हालत में कायम रहेगा। उल्लंघना करने वालों के खिलाफ सज़ा का प्रावधान भी रखा गया है।