हिंदी में लिखने वाली पंजाब की अपनी बेटी कृष्णा सोबती को 92 साल की उम्र में ज्ञानपीठ पुरस्कार के लिए नामित किया गया। वे आज़ादी के पहले अखंड पंजाब के गुजरात में जन्मी थीं। हिंदी में लिखते हुए वे धड़ल्ले से पंजाबी शब्दों, मुहावरों का इस्तेमाल करती हैं। इतना ही नहीं उनकी अपनी शैली में पंजाबी के अलावा उर्दू और हिंदी की अपनी तहजीब भी है।
कृष्णा सोबती का नाम मित्रो मरजानी, ए लड़की, दिल-ओ-दानिश, जि़ंदगीनामा और यात्रा वृतांतों के कारण है। ज्ञानपीठ के प्रवक्ता के अनुसार कृष्णा सोबती की पहली कहानी 1944 में छपी थी। उनकी मशहूर कहानियों में ‘सिक्का बदल गयाÓ है।
यह कृष्णा सोबती की खासियत है कि वे न केवल स्थान बल्कि भाषा का जो इस्तेमाल करती हैं वह पंजाबी होता है। पंजाब आटर््स कौंसिल के अध्यक्ष सुरजीत पातर ने कहा, कृष्णा सोबती को ज्ञानपीठ मिलना पंजाबियों के लिए बड़े सम्मान की बात है। उन्हें यह पुरस्कार बहुत पहले ही मिलना चाहिए था।
इस साल उनकी नई किताब ‘गुजरात पाकिस्तान से गुजरात हिंदुस्तानÓ आई है। यह कृष्णा सोबती की अपनी जि़ंदगी की कहानी है। यह उनकी कहानी है जो अपने ही देश में विस्थापित हैं।
कृष्णा सोबती के बारे में बताते हुए जवाहर लाल नेहरू विश्व विद्यालय के पूर्व प्राध्यापक चमनलाल ने कहा कि कृष्णा सोबती हमारे बीच की ‘अपराइटÓ लेखकों में हैं। उन्होंने विभाजन और पंजाब पर खूब लिखा है। उन्होंने हमेशा सांप्रदायिक ताकतों के खिलाफ लोहा लिया। उन्होंने विभाजन के पहले के पंजाब के उदार माहौल का चित्रण अपनी लेखनी में किया है।
कृष्णा सोबती ने कन्नड़ लेखक एम एम कलबुर्गी की हत्या और दादरी में हुई हिंसा में विरोध में अक्तूबर 2015 में साहित्य अकादमी पुरस्कार वापस कर दिया था और फेलोशिप भी लौटा दी थी। उन्होंने 2010 में सरकारी सम्मान पद्म भूषण भी लेने से इंकार कर दिया था।
एक किताब के शीर्षक को लेकर उनकी खटपट एक और महिला कवि और लेखक अमृता प्रीतम से हुई थी। उन्हें जि़ंदगीनामा पर साहित्य अकादमी पुरस्कार मिला था। इस नाम से मिलता जुलता नाम अमृता प्रीतम ने अपनी एक किताब का रख दिया था। इस पर मुकदमा चला। जीत कृष्णा सोबती की हुई।