इन दिनों कृषि सम्बन्धी तीन नये विधेयकों को लेकर सड़क से लेकर संसद भवन तक हंगामा हो रहा है। हरियाणा और पंजाब में इन विधेयकों के खिलाफ आंदोलन भी शुरू हो चुका है। राज्यसभा में हंगामे के बाद निलंबित किये आठ सांसद संसद परिसर में धरने पर भी बैठे; हालाँकि उन्हें अगले दिन उप सभापति हरिवंश सिंह चाय पिलाने के निमंत्रण देने भी आये थे, पर सांसदों ने मना कर दिया। आम आदमी पार्टी के सांसद संजय सिंह ने इन कृषि विधेयकों के खिलाफ मोर्चा खोला हुआ है, तो वहीं पंजाब के अकाली दल की इकलौती मंत्री अपना इस्तीफा दे चुकी हैं। इसके अलावा भाजपा के कई सहयोगी दल और खुद भाजपा नेता केंद्र सरकार के इस निर्णय के पक्ष में नहीं हैं। नाम न छापने की शर्त पर एक भाजपा नेता ने बताया कि वह सरकार की निंदा नहीं करना चाहते, लेकिन सरकार खुद ऐसे काम कर देती है कि अनायास ही मन खट्टा हो जाता है। उन्होंने कहा कि हम ज़मीन से जुड़े हैं और लोगों की प्रतिक्रियाओं से अच्छी तरह वािकफ हैं कि लोग मौज़ूदा सरकार की कितनी कड़ी निंदा करते हैं। किसान मुद्दों पर उन्होंने कहा कि किसान देश की जान हैं, अगर देश में खाद्य पदार्थों की ही कमी हो जाएगी, तो फिर बाकी क्षेत्र तरक्की ही नहीं कर पायेंगे।
एक बड़े किसान चौधरी रमन सिंह का कहना है कि कृषि इस देश का सबसे मुख्य और प्राथमिक ज़रिया है। उन्होंने कहा कि किसान साल में अनेक बार भूखों रहकर भी लगातार काम करता है, देश का पेट भरता है और फिर भी किसी से कोई शिकायत नहीं करता। और अगर अपनी परेशानियाँ बताना भी चाहता है, तो न अफसर सुनते हैं उसकी और न सरकार।
अगर किसानों की दशा और आत्महत्या की बात करें, तो दु:खद आँकड़े सामने आते हैं। राष्ट्रीय अपराध रिकॉर्ड ब्यूरो (एनसीआरबी) के आँकड़े बताते हैं कि वर्ष 2019 में 42480 किसानों और मज़दूरों ने आत्महत्या की है। देश के अन्नदाताओं और मेहनतकशों द्वारा इस तादाद में हत्या के मामले में एक वरिष्ठ पत्रकार ने टिप्पणी करके लिखा कि 2019 में 42,480 किसानों, खेतीहर मज़दूरों और अन्य क्षेत्र से जुड़े मज़दूरों ने आत्महत्या की, जो काफी दु:खद है। राहुल गाँधी कई बार किसानों और मज़दूरों की आत्महत्या का मुद्दा चुके हैं; लेकिन सरकार ने इस ओर कभी गौर नहीं किया। एक नेशनल अखबार की रिपोर्ट के मुताबिक, 2019 में 2018 के मुकाबले किसानों-मज़दूरों की आत्महत्या के मामले 6 प्रतिशत बढ़े। एनसीआरबी के मुताबिक, 2019 में कृषि क्षेत्र से जुड़े कुल 10,281 लोगों ने आत्महत्या की। इनमें से 5,957 किसान थे, जबकि 4,324 खेतिहर मज़दूर थे। वहीं शेष अन्य क्षेत्रों से जुड़े मज़दूर, बेरोज़गार चल रहे मज़दूर तथा दिहाड़ी मज़दूर थे।
सवाल यह है कि आज जब देश की जीडीपी -23.9 फीसदी नीचे चली गयी है, तब उसे कैसे उबारा जाए? केंद्र सरकार समेत बड़े-बड़े अर्थ-शास्त्री इस पर सलाह दे रहे हैं और टिप्पणियाँ कर रहे हैं। प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी और उनकी अगुआई में चल रही केंद्र सरकार को शुरू से ही चेतावनी देने वाले अर्थशास्त्री और व्यापारी अब सरकार से नाराज़ हैं और केंद्र सरकार से लुढ़कती अर्थ-व्यवस्था को पटरी पर लाने की अपील कर रहे हैं। बड़ी बात यह है कि आज जब देश की अर्थ-व्यवस्था चौपट हो चुकी है और तकरीबन सभी औद्योगिक क्षेत्र बुरी तरह औंधे मुँह पड़े हैं, तब अकेला कृषि क्षेत्र है, जो 3.4 फीसदी प्लस में है। कह सकते हैं कि आज कृषि क्षेत्र ही है जो अर्थ-व्यवस्था की रीढ़ बना हुआ है। ऐसे में केंद्र सरकार और देश को चलाने वाली सभी शिख्सयतों को सोचना चाहिए कि कृषि क्षेत्र के उद्धार के बगैर देश की तरक्की सम्भव नहीं है; क्योंकि भारत एक कृषि प्रधान देश है और यहाँ कृषि ही प्रमुख आय का साधन है। कुल मिलाकर कहने का तात्पर्य यह है कि कृषि क्षेत्र को सुधारकर सभी क्षेत्रों को बुलंदी पर ले जाया जा सकता है। कुछ कृषि विशेषज्ञों और अनुभवी किसानों की राय के आधार पर समझते हैं कि कृषि क्षेत्र में वे सुधार कौन-कौन से हैं, जिनके करने से देश की अर्थ-व्यवस्था सुधर सकती है और लोग सुखी हो सकते हैं।
किसानों में जागरूकता का प्रसार
प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी वाली एनडीए सरकार के पहले कार्यकाल में किसानों में खासा उत्साह था। इसकी वजह यह थी कि खुद प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी किसानों की आय दोगुनी करने का वादा किया था। लेकिन ऐसा हो नहीं पाया। इस मामले पर फसलों के बीज विक्रेता लाला राम अवतार करते हैं कि अभी किसानों की दशा बेहद खराब है। हालत यह है कि अधिकतर किसान बीज और खाद भी उधार लेते हैं और चुकाने के समय उन पर भरपूर पैसे तक नहीं होते। इसकी एक बड़ी वजह बीजों, खादों और कीटनाशकों का लगातार महँगा होना है। यहाँ तक कि डीज़ल भी बहुत महँगा हो चुका है, जिसके चलते अब हर किसान परेशान है। वहीं एक बुजुर्ग किसान लालता प्रसाद कहते हैं कि अब किसान मरे या जीए, आज इस पर न तो सरकार चर्चा करती है और न ही कोई पत्रकार इस पर बात करता नज़र आता है। अब टीवी चैनलों पर दिन भर ऐसी खबरें आती हैं, जिनका किसानों-मज़दूरों से कोई लेना-देना नहीं होता, और ऐसी ही खबरों पर चार-छ: लोग दिन भर चिल्लाते रहते हैं। पहले दूरदर्शन पर 24 घंटे में एक-दो घंटे के कृषि कार्यक्रम होते थे, रेडियो पर कृषि कार्यक्रम होते थे, जिससे किसानों को काफी लाभ मिलता था। लालता प्रसाद कहते हैं कि हमारे शुरुआती ज़माने में पूरे गाँव में दो-तीन रेडियो होते थे। रेडियो पर शाम को रामस्वरूप भैया का कृषि जगत कार्यक्रम आता था और दिन में कृषि समाचार। उन दिनों गाँव के दर्ज़नों लोग एक-एक रेडियो को घेरकर बैठते थे और बड़े ध्यान से कार्यक्रम सुनते थे। यही समय था, जब देश में कृषि पैदावार को बहुत बढ़ावा मिला। उन्होंने कहा कि कृषि की पैदावार बढऩे का ही नतीजा था कि अंग्रेजों से लुटा-पिटा देश आज इतनी ऊँचाई पर पहँच गया, अन्यथा पहले इतने उद्योग कहाँ थे।
खाद्यान्न मूल्य निर्धारण में हो सुधार
हमेशा देखा जाता है कि बड़ी मेहनत से अनाज तथा अन्य खाद्यान्न उगाने वाला किसान जिस दाम उन्हें बाज़ार में बेचता है, वह उसकी लागत से बहुत कम मुनाफे वाला या कभी-कभी घाटे वाला ही होता है। वहीं उसी खाद्यान्न को बहुत कम मेहनत करके आगे बेचने वाला बिचौलिया किसानों से कई गुना अधिक लाभ कमा लेता है। प्रो. इरफान कहते हैं कुछ बड़े किसानों को अगर किसान की हर दिन की मेहनत फसल उगाने में जोड़ दी जाए, तो किसान को घाटे के सिवाय कुछ नहीं होता। उस पर अगर किसी कारण से फसल बर्बाद हो जाए, तो और भी मुश्किल हो जाती है। ऐसे में किसानों के द्वारा उगाये खाद्यान्न के मूल्य का सही निर्धारण होना चाहिए तथा बिचौलियों के मुनाफे पर कैंची चलनी चाहिए, ताकि किसानों को घाटा न हो और उन पर कर्ज़ा न चढ़े। इससे किसानों की स्थिति भी सुधरेगी और कृषि में उनकी रुचि भी बनी रहेगी।
किसानों को कृषि ऋण में मिले छूट
हमारे क्षेत्र में मैं ऐसे कई किसानों को जानता हूँ, जो कृषि ऋण के बोझ से बुरी तरह दबे हुए हैं। इन किसानों का खान-पान भी बहुत अच्छा नहीं है। कई किसानों को जेल भी हो चुकी है। कुछ की कुर्की भी हो चुकी है। ये किसान बड़ी मुश्किल से बैंकों से अपनी गर्दनें बचाये जी रहे हैं। किसानों को ब्याज में माफी भी नहीं मिल पाती, ऐसे में फसल बर्बाद होने पर वे कई दफा ब्याज तक नहीं भर पाते और इस तरह कर्ज़ में डूबे रहते हैं। अधिकतर बड़े किसान तो फसल बीमा करा लेते हैं और अगर कोई फसल बर्बाद होती है, तो उसकी भरपाई बीमा कम्पनी कर देती है, लेकिन कई छोटे किसान फसल की बुआई तक के पैसे नहीं जुटा पाते, तो बीमा कहाँ से करायें। ऐसे किसानों को पहले तो बैंकों से कर्ज़ नहीं मिलता और अगर किसी तरह मिल भी जाए, तो उसमें दलाल मोटा पैसा खा जाते हैं। इस तरह पैसा मिलने से पहले ही उसमें बंदरबाँट होना और फिर पूरे पैसे पर ब्याज लगना ही इस तरह कर्ज़ पाने वाले किसानों के लिए बहुत बड़ी रकम हो जाती है। यही वजह है कि वे कर्ज़ चुकाने में असमर्थ हो जाते हैं। दूसरी तरफ जिन किसानों को बैंक कर्ज़ नहीं देते, वे गाँव में अवैध रूप से ब्याज पर पैसा उठाने वालों से 5 से 10 फीसदी तक के मोटे मासिक ब्याज पर पैसा उठा लेते हैं, जिसे चुकाना और भी मुश्किल हो जाता है। मैंने ऐसे ही कर्ज़ के नीचे दबे कुछ किसानों को मजबूरन ज़मीन बेचते देखा है। कृषि ऋण में छूट या ऋण माफी के साथ-साथ किसानों को बीज, खाद और कीटनाशकों पर सब्सिडी मिलनी चाहिए।
किसानों को मिले प्रोत्साहन राशि
2019 में लोकसभा चुनाव से पहले प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी ने किसानों के खातों सीधे 2000 रुपये मासिक देने की बात कही थी। इस प्रोत्साहन राशि का नाम किसान सम्मान निधि था, जो उनके खातों में पहुँची भी रही है। लेकिन अनेक किसानों के खाते बैंकों में नहीं हैं, जिसके चलते उन्हें शुरू में यह प्रोत्साहन राशि नहीं मिली। कुछ अब भी ऐसे किसान हैं, जो इस पैसे से वंचित हैं। हालाँकि ऐसे किसानों की संख्या ज़्यादा नहीं है। लेकिन खेतीहर मज़दूर और बटाईदार इस पैसे से वंचित हैं। इन लोगों को भी प्रोत्साहन राशि मिलनी चाहिए, ताकि इन लोगों को भी परेशानियों में कुछ सहारा मिल सके।
पशुपालन को मिले बढ़ावा
पशुपालन कृषि का पूरक कार्य है। आज के आधुनिक युग में अधिकतर खेती मशीनों से होती है; लेकिन बहुत से किसानों के पास कृषि यंत्रों की सुविधा नहीं है, उनके लिए कृषि कार्यों में पशु ही सहायक हैं। साथ ही दुग्ध और मांस व्यापार का सबसे बड़ा साधन पशु ही हैं। पशुपालन को बढ़ावा देने से देश में दूध की कमी नहीं होगी, जिससे देश की आय बढ़ेगी और मिलावट वाले दूध की बिक्री पर अंकुश लग सकेगा। आज दुधारू पशुओं की कीमतें बहुत हैं और उन्हें पालने में भी मोटा खर्च आता है। राम प्रसाद नाम के एक किसान ने बताया कि पिछले साल वह एक लाख पाँच हज़ार रुपये की गाबिन भैंस खरीदकर लाये थे। महीने भर की उसकी खिलाई का खर्च करीब 3,000 रुपये है। वह जब ब्याती है, तो हर रोज 12-14 लीटर दूध देती है, जिसके बाज़ार में 350 से 400 रुपये मिल जाते हैं। इस हिसाब से 10 से 12,000 रुपये महीने का दूध देती है; लेकिन यह दूध पूरे साल नहीं मिलता और हम दिन रात उसकी सेवा करते हैं, सो अलग। उसकी रखवाली में भी रात को जाग-जागकर देखते हैं। ऐसे में एक लाख पाँच हज़ार रुपये फँसाकर भी उतना मुनाफा नहीं मिलता, जितना मिलना चाहिए। हाँ, उससे पैदा होने वाले पड्डा-पड्डी (नर व मादा बच्चा) से लाभ मिल सकता है; लेकिन उन्हें तीन साल तक पालना पड़ता है, तब वे बिक्री या दूध या खेती के लायक हो पाते हैं। पड्डों की अच्छी कीमत नहीं मिलती, इसलिए पड्डी पैदा होना फायदेमंद माना जाता है। वह कहते हैं कि अगर उन्हें दूध बेचने वाली कम्पनियों की तरह दाम मिल जाएँ, तो उनकी भैंस का दूध हर महीने कम-से-कम 17-18 हज़ार रुपये महीने का बिक सकता है, जो मेहनत और लागत का उचित मूल्य मिलने जैसा होगा। उस हिसाब से दूध के दाम नहीं मिल पाते, जबकि दूध और दूध से बने उत्पाद बेचने वाली कम्पनियाँ मोटा मुनाफा कमाती हैं। इसके चलते किसानों में पशुपालन के प्रति रुचि घटी है। इतना ही नहीं, पिछले कुछ वर्षों से गोरक्षा के नाम पर मारपीट करने वालों के चलते बहुत से किसानों ने पशुपालन कम कर दिया है। गाय पालन तो बहुत-से किसानों ने बन्द कर दिया है।
आधुनिक खेती पर दिया जाए ज़ोर
प्रो. इरफान कहते हैं कि भारत के अधिकतर किसान अब भी उतने जागरूक नहीं हैं; जितने विकसित देशों के हैं। इसकी कई वजहें हैं। पहली तो यह कि यहाँ के अधिकतर किसान अब भी अनपढ़ हैं। दूसरी वजह यह है कि अधिकतर किसान छोटी जोत वाले हैं। तीसरी वजह उन्हें कृषि करने के आधुनिक तरीके पता नहीं हैं। चौथी वजह उन्नत बीजों के न मिलने और अधिकतर कृषि क्षेत्र में सिंचाई के संसाधन न होने से फसलें अच्छी नहीं हो पातीं। पाँचवीं वजह प्राकृतिक आपदाओं से फसलों का नष्ट हो जाना है और छटी वजह सरकारों द्वारा किसानों की अच्छे पैमाने पर मदद का न मिलना है। एक रिपोर्ट के अनुसार, भारत में करीब 23 फीसदी किसान ही सरकारी लाभ ले पाते हैं। हालाँकि मौज़ूदा सरकार द्वारा प्रदान की जाने वाली किसान सम्मान निधि से काफी किसान लाभान्वित हो रहे हैं; लेकिन यह सम्मान निधि जारी रहे, तो किसानों का कुछ भला भी हो।
सम्मानित किये जाएँ किसान
किसानों को अच्छी खेती के लिए राष्ट्रीय और राज्य स्तर पर सम्मानित किया जाता है। देश में कुछ जगहों पर लगने वाले कृषि मेलों में भी अच्छी खेती करने वाले किसानों को सम्मानित किया जाता है। लेकिन इसका दायरा बढऩा चाहिए और हर गाँव में किसानों के बीच सम्मान राशि का ऐलान किया जाना चाहिए। इससे किसानों में अच्छी खेती करने का ज•बा पैदा होगा और खेती में उनकी रुचि बढऩे के साथ-साथ पैदावार भी बढ़ेगी।
जैविक खेती पर दिया जाए ज़ोर
आजकल के अधिकतर लोग किसी-न-किसी रोग से पीडि़त हैं। इसका कारण हमारा अनियमित खानपान और अजैविक खादों तथा कीटनाशकों का अधिक मात्रा में उपयोग है। लेकिन भारत में बहुत-से लोग जैविक खेती करते हैं, जिससे खाद्यान्न में स्वाद भी रहता है और रोग भी जल्दी नहीं होते। साथ ही जैविक खाद्यान्न महँगे भी बिकते हैं। बुजुर्ग किसान लालता प्रसाद कहते हैं कि हमारे ज़माने में ची•ों इतनी शुद्ध थीं कि पड़ोसी के घर में बनने वाली सब्ज़ी की खुशबू से पता चल जाता था कि घर में क्या बन रहा है, जबकि आज अपने ही घर में पता नहीं चलता कि रसोई में क्या बन रहा है? वह कहते हैं कि अब पहले जैसा स्वाद अब खाने में नहीं रह गया है। पहले लोग घूरा (उर्वरक खाद बनाने की प्रक्रिया) बनाते थे और अब उर्वरक लाकर खेतों में डाल देते हैं, ऊपर से फसल में कीट लगने पर ज़हरीली दवा छिड़क देते हैं, जबकि पहले कंडे की राख और गोबर-मूत्र आदि का मिश्रण छिड़कते थे, जिससे फसलों पर कीड़े नहीं लगते थे, न ही जानवर फसलों को जल्दी खाते थे। वे कहते हैं कि पहले आज के इतनी बीमारियाँ भी नहीं थीं।