सितंबर 2001 की एक खुशनुमा शाम थी. दक्षिण मुंबई के एक आलीशान होटल में एक मीडिया अवॉर्ड्स समारोह का आयोजन था. मैं इसमें एक छोटी-सी समाचार वेबसाइट के प्रतिनिधि की हैसियत से शामिल था जो बमुश्किल साल भर पहले ही वजूद में आई थी, पर जिसके नाम की चर्चा हर तरफ हो रही थी. आयोजन खत्म होते-होते कुल 14 में से छह अवार्ड्स इसी वेबसाइट की झोली में गए थे. इनमें मीडिया ब्रांड ऑफ द ईयर का अवार्ड भी शामिल था जिसकी दौड़ में इसने स्टार प्लस और एमटीवी जैसे बड़े खिलाड़ियों को भी पछाड़ दिया था. मगर जिस खबर के लिए ये वेबसाइट आज दुनियाभर में मशहूर है उसका इन पुरस्कारों से कोई लेना-देना नहीं था. इसकी वजह ये थी कि ये अवॉर्ड्स साल 2000 के लिए थे और वो बड़ी खबर मार्च 2001 की थी.
छोटे शहरों में पले-बढ़े और अपने बूते जिंदगी में अपार कामयाबी बटोरने वाले एक युवा जोड़े को अचानक उसकी गर्दन के इर्द-गिर्द सरकार की फौलादी पकड़ का अहसास कराया जा रहा था
एक तरफ हम पर पुरस्कारों की बरसात हो रही थी और दूसरी तरफ चेन्नई के अंतर्राष्ट्रीय हवाई अड्डे पर हमसे जुड़ा एक डरावना वाकया घट रहा था. छोटे शहरों में पले-बढ़े और अपने बूते जिंदगी में अपार कामयाबी बटोरने वाले एक युवा जोड़े को अचानक उसकी गर्दन के इर्द-गिर्द सरकार की फौलादी पकड़ का अहसास कराया जा रहा था. एक ओर मैं तारीफें बटोरने के बाद खाने-पीने में व्यस्त था और दूसरी तरफ किसी दुश्मन की तरह इस दंपत्ति को घेरे अधिकारी उन्हें जहाज में चढ़ने नहीं दे रहे थे. मैं पुलिस की सुरक्षा में सोया और इस दंपत्ति से सारी रात पूछताछ हुई. उसका जाना-अनजाना अपराध ये था कि उसने एक इंटरनेट कंपनी में निवेश किया था जो एक वेबसाइट चलाती थी जिसका नाम था तहलकाडॉटकॉम.
सेना में हथियारों की खरीद में हो रही धांधली का भंडाफोड़ करने वाले ऑपरेशन वेस्ट एंड की सबसे बड़ी कीमत जिन्हें चुकानी पड़ी वो न नेता थे, न नौकरशाह, न सेना के अधिकारी और न दलाल. न ही ये वो पत्रकार थे जो ये खबर जनता के सामने लाए थे. दरअसल सबसे बड़ी गाज तो उन दो लोगों पर गिरी थी जिनका इस ऑपरेशन से कोई लेना-देना ही नहीं था. ये दोनों लोग थे, शेयरों का कारोबार करने वाली भारत की सबसे बड़ी कंपनियों में से एक फर्स्ट ग्लोबल के मालिक शंकर शर्मा और उनकी पत्नी देविना मेहरा. उनकी भयावह कहानी बताती है कि एक उदारवादी लोकतंत्र किस तरह अचानक उस नर्क में तब्दील हो सकता है जहां सरकार के इशारे पर नाचने वाली कठपुतलियां हर कानून और कायदे की सीमाओं से परे जाकर काम करती हैं.
शंकर से जुड़ी मेरी सबसे पहली याद कॉलेज के दिनों की है. तब की जब लंबे कद और मजबूत कदकाठी वाला ये शख्स क्रिकेट सितारे युवराज सिंह के पिता योगराज सिंह की निगरानी में लंबे रनअप के साथ गेंदबाजी किया करता था. शंकर की दोस्ती मेरे छोटे भाई के साथ थी और वो उन सैकड़ों छात्रों में से एक था जो अपनी पढ़ाई करने बिहार से चंडीगढ़ आते हैं. ये 1981 की बात रही होगी. मुझे याद है कि साधारण होते हुए भी उसमें कुछ खास सी बात थी. क्रिकेट के अलावा उसे आम लोगों से जुदा करने वाली बात ये अफवाह थी कि छोटी उम्र में ही उसने स्टॉक मार्केट में पैसा लगाना शुरू कर दिया है. उस दौर में हममें से ज्यादातर लोगों को स्टॉक मार्केट के बारे में कुछ खास पता नहीं था, शायद आज भी ऐसा ही है.
शंकर से जुड़ी मेरी दूसरी याद उन दिनों की है जब हम पढ़ाई खत्म कर नौकरी शुरू कर चुके थे. मेरा क्षेत्र पत्रकारिता था और उसका कंप्यूटर मार्केटिंग. हाथ में एक बैग लिए शंकर से मैं एक शाम चंडीगढ़ के सेक्टर 17 में टकराया था. हमने कुछ बातें कीं. न मुझे उसका कहा समझ आया और न ही शायद उसे मेरा. मेरे हाथ में एक उपन्यास था. उसने थोड़ी देर तक इसे उलटा-पलटा और फिर इसके बारे में पूछा. मैंने बताने की कोशिश की और मुझे महसूस हुआ कि वो शायद थोड़े अचरज में था – कॉलेज खत्म होने के बाद भी कोई उपन्यास जैसी चीज में उलझ हुआ है. मैंने बैग के बारे में पूछा तो उसने कहा कि सेल्स की ये नौकरी कुछ ही दिन के लिए है और उसने अपने लिए कुछ दूसरी और बड़ी योजनाएं बनाई हुई हैं.
इसके बाद दस साल बीत गए. इस दौरान कभी-कभार अपने छोटे भाई से मैं शंकर के बारे में थोड़ा-बहुत सुनता रहा मसलन उसने सिटीबैंक में नौकरी कर ली, उसने सिटीबैंक की नौकरी छोड़ दी, उसकी शादी हो गई, वो दक्षिण मुंबई में रह रहा है, उसने स्टॉक मार्केट में कामयाबी हासिल की है वगैरह वगैरह. मेरे भाई के मुताबिक शंकर ने जम के पैसा कमाया था मगर उसकी जीवनशैली से इसका जरा भी अंदाजा नहीं होता था. उसका रहन-सहन, पहनना-ओढ़ना, खाना-पीना सब कुछ साधारण था. उसके सिगार भारतीय होते थे. वो जब खाने का निमंत्रण देता था तो इसका मतलब ये था कि खाना सड़क किनारे चल रहे किसी ढाबे से भी आ सकता है. और उसके व्यवहार की गर्मजोशी अभी भी वैसी ही थी. वो अभी भी जोर से दिल खोलकर हंसता था.
उन्हें अहसास कराया गया कि लोकतंत्र का चोला ओढ़ सबको न्याय देने की बात करने वाले इस देश का स्वभाव अब भी सामंती है
फरवरी 2000 में मैंने आउटलुक मैगजीन छोड़ी जहां मैं बतौर मैनेजिंग एडिटर काम कर रहा था. हम चार लोगों ने एक समाचार वेबसाइट शुरू करने का फैसला किया. उस समय डॉटकॉम बूम अपने चरम पर था और अनुभव और नए विचार के साथ कोई काम शुरू करने वाले लोगों के लिए पैसा लगाने वालों की कमी नहीं थी. सोहेल सेठ, अनिरुद्ध बहल, मिंटी तेजपाल और मैं निवेश के लिए बात करने मुंबई गए जहां हमें इनवेस्टमेंट बैंकिग के क्षेत्र में काम कर रहे एंबिट ग्रुप के अशोक वाधवा से मिलना था. एक कांफ्रेस रूम में बैठे हम उस व्यक्ति का इंतजार कर रहे थे जो पैसा लगाने वाला था. आखिर पूरी तड़क-भड़क के साथ वो आए. सफेद बोर्ड पर हिसाब-किताब लिखते हुए सोहेल और अशोक ने आम तर्क-वितर्क किए. जल्द ही प्रस्ताविक वेबसाइट की कुल कीमत 80 लाख डॉलर तय हो गई. नाम के लिए सहमति बनी तहलकाडॉटकॉम पर. ये नाम अनिरुद्ध ने पहले ही रजिस्टर करवा लिया था. निवेश की रकम किश्तों में आनी थी. पहली किश्त के लिए वाधवा ने एक हफ्ते का समय मांगा और अपने काम की फीस के तौर पर कंपनी में अपनी पांच फीसदी हिस्सेदारी तय की.
इसके बाद हम चारों होटल ताज के रेस्टोरेंट की तरफ रवाना हुए जहां सोहेल ठहरे हुए थे. यहां एक पेपर नैपकिन पर प्रस्तावित कंपनी की हिस्सेदारी बांटी गई. सौदा निपटने के बाद सोहेल ने विदा ली और मिंटी ने शंकर से मिलने और इस सौदे पर बात करने का सुझाव दिया. शंकर के अलावा और कोई दूसरा नहीं था जिससे हम जल्दी से कोई सलाह ले सकते थे. शंकर और देविना का घर पास ही था. उन्होंने लंच पर बेस्वाद राजमा-चावल बनाए थे जो हमने भी खाए. उनका फ्लैट साधारण ही था जहां पैसे और रुचियों की अधिकता के कोई लक्षण नहीं दिख रहे थे. हमने क्रिकेट और सिनेमा पर बात की और जो कुछ भी सुबह से तब तक हुआ था उसमें शंकर को सब कुछ ठीक ही लगा.
हफ्ते भर बाद एक दिन इतवार को शंकर ने दिल्ली में मुझे फोन किया. दिन का खाना साथ खाने का प्रोग्राम बन गया. शाम को मैं शंकर को छोड़ने एयरपोर्ट जा रहा था कि उसने वाधवा वाली शर्तों पर ही हमारी वेबसाइट में पैसा लगाने की पेशकश की. मैंने उससे वादा किया मैं जल्द ही उसे जवाब दूंगा. मुझे वाधवा से बात करनी थी. कुछ दिन बाद मैं दिल्ली के ताज मानसिंह होटल में वाधवा से मिला. उसने कहा कि वो दो-तीन दिन में मुझे कोई जवाब देगा. कुछ दिन गुजर गए और कोई जवाब नहीं आया. हमने आपस में विचार-विमर्श किया और शंकर की पेशकश स्वीकार कर ली. शंकर ने हमारी कंपनी में 14.40 फीसदी का छोटा सा हिस्सा ले लिया.
शंकर और देविना हर तरह से आदर्श निवेशक साबित हुए. उनके निवेश की किश्तें बिल्कुल ठीक समय पर आईं. उन्होंने कभी हमारे काम में दखलअंदाजी नहीं की. वेबसाइट चल निकली. हमने मैच फिक्सिंग घोटाले का पर्दाफाश किया. बेहतरीन लेखक और स्तंभकार हमारे लिए लिखने लगे. अगले निवेशक की तलाश में मैंने और शंकर ने कई बैठकें कीं. 16 फरवरी को हमने जी समूह के सुभाष चंद्रा से हाथ मिलाया जो कंपनी में 26 फीसदी हिस्सेदारी खरीदने को तैयार थे. 13 मार्च को ऑपरेशन वेस्ट एंड लोगों के सामने आया.
उस सुबह मैंने शंकर को फोन किया और बताया कि हम एक बड़ी खबर चलाने वाले हैं जो सरकार को हिला सकती है. शंकर ने मुझसे ऐसा न करने की सलाह दी. उसे डर था कि निवेश के लिए हुए समझोते पर इसका बुरा असर पड़ सकता है.
तब तक बतौर पत्रकार हम व्यापारिक फायदे-नुकसान जैसी चीजों से आगे निकल चुके थे. खबर प्रसारित हुई और कुछ ही दिन के भीतर हमारे काम और हमारी जिंदगी पर हमले शुरू हो गए.
हमें खुलेआम निशाना बनाया गया. मगर हमें तारीफें भी मिलीं. मगर शंकर और देविना की किस्मत इतनी अच्छी नहीं थी. उनकी जिंदगी को इस तरह से तार-तार कर दिया गया जिसकी कल्पना भी नहीं की जा सकती. अपनी पीढ़ी के सबसे प्रतिभाशाली और कामयाब प्रोफेशनल्स में शामिल शंकर और देविना भगोड़े बनकर रह गए. हताशा में हमने उन्हें वकीलों और बाबाओं के चक्कर लगाते देखा. उन्हें कई दिल दहलाने वाले सबक मिले. उन्हें अहसास कराया गया कि लोकतंत्र का चोला ओढ़ सबको न्याय देने की बात करने वाले इस देश का स्वभाव अब भी सामंती है, ये अभी भी औपनिवेशिक काल में ही जी रहा है. उन्हें सबक मिला कि सत्तारुपी पशु के पास कोई अंतरात्मा नहीं होती. उनके उत्पीड़न के मायने इस लिहाज से भी कई गुना ज्यादा बड़े हो जाते हैं कि वो निर्दोष थे और उनका इस प्रकरण से कोई लेना-देना ही नहीं था. वो न राजनीति चमका रहे नेता थे, न अपना काम कर रहे पत्रकार और न संघर्ष कर रहे आदर्शवादी. इसके बावजूद जब उन पर हमला हुआ तो उन्होंने असाधारण हौसला दिखाया. आगे के पन्नों पर लिखा एक-एक शब्द ध्यान से पढ़ेंगे तो आप समझ जाएंगे कि भारत में व्यवस्था नाम का गिरगिट किस हद तक खतरनाक है और साहस क्या चीज होती है.
तहलका ने भले ही शंकर और देविना की जिंदगी को नर्क बना दिया मगर उन्होंने इसके लिए एक बार भी हमें नहीं कोसा. ये अपने आप में एक असाधारण बात है. उनसे हमें एक कठोर शब्द तक सुनने को नहीं मिला. तहलका की हिस्सेदारी छोड़े उन्हें एक अर्सा हो चुका है मगर हम आज भी उनके ऋणी हैं.