यह किसी से छुपा नहीं है कि हमारे न्यूज चैनल तब तक अंतर्राष्ट्रीय खबरों और वैदेशिक मामलों की कवरेज से परहेज करते हैं, जब तक कि कोई बहुत बड़ी घटना (जैसे युद्ध जिसमें अमेरिका शामिल हो या जैसा आतंकवादी हमला) न हो जाए. इस मामले में भारतीय चैनल सचमुच, ‘भारतीय’ हैं. आमतौर पर हमारे चैनलों की विदेश और वैदेशिक-कूटनीतिक रिपोर्टिंग की सीमा पाकिस्तान और बहुत हुआ तो चीन से आगे नहीं जाती है. लेकिन मजा देखिए कि इन्हीं चैनलों पर इन दिनों कभी भूटान, कभी नेपाल, कभी जापान और पिछले पखवाड़े अमेरिका छाया हुआ था.
सुर कुछ ऐसे थे जैसे चैनलों को अचानक इलहाम हुआ हो कि भारत दुनिया की एक बड़ी ताकत बन चुका है और अब महाशक्ति बनने की ओर है. कहना मुश्किल है कि यह कितने दिन रहेगा लेकिन उनका जोश देखते ही बनता है. उनके रिपोर्टरों/संपादकों में अचानक वैदेशिक/कूटनीतिक मामलों के कई जानकार निकल आए हैं और प्राइम टाइम पर भारत-जापान, भारत-चीन, भारत-अमेरिका संबंधों पर बहसें और चर्चाएं छा सी गईं हैं.
आखिर यह ह्रदय परिवर्तन कैसे हुआ? बहुत अनुमान लगाने की जरूरत नहीं है. यह ‘न भूतो, न भविष्यति’ प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी का चमत्कार है. वे जहां जाते हैं, चैनल उनके आगे-पीछे रहते हैं. असल में, मोदी में खबर है और खबर में मोदी हैं. आजकल खबरें उन्हीं से शुरू होती हैं और उन्हीं से खत्म होती हैं. चूंकि पिछले चार महीनों में उन्होंने चार देशों की यात्राएं की हैं, चीन के राष्ट्रपति और आस्ट्रेलिया के प्रधानमंत्री भारत आए, इसलिए चैनलों पर भी उनकी यात्राएं और मुलाकातें छाईं हुईं हैं. मजे की बात यह है कि अपने पूर्ववर्तियों के उलट मोदी विदेश दौरों पर पत्रकारों/संपादकों के भारी-भरकम दल को साथ नहीं ले जा रहे हैं. इसके बावजूद उनकी विदेश यात्राओं के लेकर चैनलों का अतिरेकपूर्ण उत्साह देखते बनता है. यह चमत्कार नहीं तो क्या है!
मोदी की ताजा अमेरिका यात्रा को ही लीजिए. टीवी पत्रकारिता के सभी स्वनामधन्य संपादकों, एंकरों और स्टार रिपोर्टरों सहित चैनलों की टीमें कई दिन पहले ही अमेरिका पहुंच गईं. आप किसी स्टार संपादक/एंकर/रिपोर्टर का नाम लीजिए और पूरी संभावना है कि वे उस दौरान न्यूयार्क के मैडिसन स्क्वायर या पार्क या ह्वाइट हाउस के आसपास ‘मोदी-मोदी’ के नारे लगाती भीड़ के साथ ‘नमो-नमो’ करते दिखाई दें. मीडिया रिपोर्टों के मुताबिक, यह अब तक सबसे बड़ा मीडिया दल था जो प्रधानमंत्री के दौरे को कवर करने अमेरिका पहुंचा था और उसने प्रधानमंत्री के कार्यक्रमों की 24X7 कवरेज में कोई कोर कसर नहीं उठा रखा.
लेकिन इस कवरेज में हमेशा की तरह उत्साह अधिक और तैयारी कम थी. गल्प अधिक और तथ्य कम थे. तत्व कम और तमाशा अधिक था. ऐसा लग रहा रहा था कि यह प्रधानमंत्री मोदी की नहीं रॉकस्टार मोदी की यात्रा हो. आश्चर्य नहीं कि चैनलों के स्टार पत्रकारों के पास इस यात्रा के राजनीतिक-कूटनीतिक निहितार्थों, प्रधानमंत्री और उनकी राष्ट्रपति ओबामा, इजरायली प्रधानमंत्री नेतान्याहू समेत अन्य राष्ट्राध्यक्षों, नेताओं और बड़ी कंपनियों के सी.ई.ओ से हुई मुलाकातों के बारे में तथ्यपूर्ण और ठोस जानकारियां कम थीं. जाहिर है कि घोषित बयानों/भाषणों और प्रेस रिलीज से आगे पर्दे के पीछे की कूटनीति के बारे में अनुमानों और कयासों से ही काम चलाया जा रहा था. देश ने इन मुलाकातों और शिखर वार्ताओं क्या खोया और क्या पाया- इसकी कोई बारीक तथ्यपूर्ण पड़ताल नहीं दिखी.
लेकिन चैनलों को इससे क्या लेना-देना? उनकी दिलचस्पी तो वैसे भी तमाशे में ज्यादा रहती है. जाहिर है कि यह सिर्फ संयोग नहीं था कि वहां तमाशे का भी भरपूर इंतजाम था. चैनल हमेशा की तरह उसी में खुश थे. चलिए, बजाइए ताली-हो गई वैदेशिक-कूटनीतिक रिपोर्टिंग!