उत्तर प्रदेश में सियासी पैंतरेबाज़ी का हाल यह है कि अब बस कुर्सी ही सभी का ईमान बनकर रह गयी है। इस कुर्सी पाने की लालसा के पीछे समाजसेवा और देशभक्ति कितनी है? यह बात बुद्धिजीवी और सियासी लोग भले ही बख़ूबी समझते हों, मगर आम आदमी की समझ में ये बातें आसानी से नहीं आतीं।
आम आदमी जब परेशान हो जाता है, तो ज़ुबान चलाकर अपनी भड़ास ज़रूर निकाल लेता है, मगर सियासी दाँवपेंच उसकी समझ में नहीं आते। कुछ भी कहो, परन्तु इन दिनों उत्तर प्रदेश के सियासी हालात कुछ ठीक नहीं लगते। इस बार 9वीं सदी के शासक मिहिरभोज की प्रतिमा का उद्घाटन करने की उत्तर प्रदेश के मुख्यमंत्री योगी आदित्यनाथ की योजना से ग़ुस्साये राजपूत उनके ख़िलाफ़ हो गये हैं। जिन राजपूतों के वे नेता हैं, उन्हीं राजपूतों ने उन्हें आन्दोलन की चेतावनी दे डाली है। मिहिरभोज की प्रतिमा के अनावरण को राजपूतों ने तुष्टिकरण की राजनीति क़रार दिया है और साफ़ कर दिया है कि अगर योगी आदित्यनाथ इस तरह की सियासत करेंगे, तो इसका परिणाम उन्हें ही भोगना होगा। दरअसल प्रदेश के मुख्यमंत्री योगी आदित्यनाथ राजा मिहिरभोज को गुर्जर समुदाय का शासक कहकर गुर्जर समुदाय को साधने के लिए उनकी प्रतिमा का अनावरण करने की तारीख़ तय कर चुके हैं, जबकि राजपूतों का कहना है कि मिहिरभोज क्षत्रिय राजपूत समुदाय से थे।
बड़ी बात यह है कि किसान आन्दोलन के चलते किसान योगी सरकार से ख़फ़ा हैं। मज़दूर रोटी-रोटी को लेकर ख़फ़ा हैं। युवा रोज़गार को लेकर ख़फ़ा हैं। इस परेशानी से योगी राममन्दिर निर्माण की चाशनी चटाकर पार पा भी लें, परन्तु यहाँ तो योगी के गले में और भी कई फाँसें फँसी हुई हैं। कोरोना महामारी की दो लहरों में हुए मौत के तांडव के बाद अब उत्तर प्रदेश में डेंगू और वायरल बुख़ार का कहर बरस रहा है। लोगों में अब यह चर्चा आम है कि योगी सरकार लोगों को बीमारियों से बचाने के लिए नहीं, बल्कि बीमारों को इलाज न दे पाने में अव्वल है। बड़ी बात यह है कि दोनों ही बीमारियाँ कोरोना महामारी की तरह ही गाँवों में फैल चुकी हैं, जिससे निपटने के लिए सरकार को ज़िला स्तर से लेकर ब्लॉक स्तर तक के अस्पतालों की स्वास्थ्य व्यवस्थाओं को दुरुस्त करना होगा। पूरे प्रदेश में इन दिनों कोई भी ऐसा अस्पताल नज़र नहीं आ रहा है, जहाँ मरीज़ों को बेड मिलने की भी सहूलियत हो। इस बारे में डॉ. विकास ने कहा कि इन दिनों बुख़ार के बहुत मामले प्रदेश भर में आ रहे हैं, ऐसी स्थिति में अगर कोरोना वायरस की तीसरी लहर भी आ गयी, तो हालात बहुत ख़राब हो जाएँगे, जो सँभाले नहीं सँभलेंगे। इसलिए सरकार को चाहिए कि वह वायरल बुख़ार और डेंगू पर क़ाबू पाने के लिए सार्थक क़दम जल्द से जल्द उठाये।
सपा की चुनौतियाँ होंगी कम?
वहीं अगर समाजवादी पार्टी (सपा) की बात करें, तो वह बहुजन समाज पार्टी (बसपा) और कांग्रेस के प्रमुख मुस्लिम नेताओं के अपनी तरफ़ आने से मज़बूत हो सकती है। क्या उसकी चुनौतियाँ कम होंगी? यह बात तब उठ रही है, जब असदुद्दीन ओवैसी ने मुस्लिम वोट काटने के लिए उत्तर प्रदेश में डेरा डाल दिया है। क्योंकि ऐसा माना जा रहा है ओवैसी की पार्टी आल इंडिया मजलिसे-इत्तेहादुल मुसलमीन (एआईएमआईएम) के चुनाव में उतरने से समाजवादी पार्टी के वोटबैंक के लिए सबसे ज़्यादा नुक़सानदायक साबित होगी। लेकिन सपा में कांग्रेस के सलीम इकबाल शेरवानी के शामिल होने से अखिलेश का सीना गर्व से चौड़ा हो गया है। क्योंकि सलीम मुस्लिमों का पसन्दीदा चेहरा हैं और पाँच बार सांसद रह चुके हैं। राजीव गाँधी से भी उनके दोस्ताना रिश्ते रहे हैं।
68 वर्षीय शेरवानी बाबरी मस्जिद विध्वंस के बाद कांग्रेस छोडक़र समाजवादी पार्टी में चले गये थे। लेकिन सन् 2009 में मुलायम सिंह ने उनकी मनचाही सीट से अपने भतीजे धर्मेंद्र यादव को टिकट दे दिया था, जिससे नाराज़ होकर सलीम फिर कांग्रेस में चले गये थे और अब एक बार फिर वो समाजवादी पार्टी में आ गये हैं।
अलीगढ़ में हुई किसान महापंचायत और सपा के कई कार्यक्रमों में सलीम शामिल रहे हैं। इससे यह भी माना जा रहा है कि उन्हें आजम ख़ान की जगह की भरपाई के लिए पार्टी में लाया गया है। सलीम के अलावा अंसारी भाइयों में सबसे बड़े और ग़ाज़ीपुर के मोहम्मदाबाद से बसपा के पूर्व विधायक सिबगतुल्लाह अंसारी, बसपा सांसद अफ़जल अंसारी और मुख़्तार अंसारी जैसे चेहरे सपा में आ चुके हैं। बता दें कि मुस्लिम वोट समाजवादी पार्टी में जाने की इस वजह से भी ज़्यादा उम्मीदें हैं। क्योंकि किसी और पार्टी के पास उन्हें अपने हित नहीं सुरक्षित नहीं दिखते।
भाजपा की सरकार में असुरक्षा की भावना से भरे मुस्लिमों को यह भी लगता है कि अगर वे आपस में इस बार बँटे, तो उनके वोट डालने का कोई फ़ायदा नहीं होगा। अखिलेश यादव मुस्लिमानों के उनकी तरफ़ झुकाव से इतने आत्मविश्वास से भर गये हैं कि उन्होंने योगी सरकार को इशारों-इशारों में समझा दिया है कि इस बार प्रदेश की सत्ता समाजवादी पार्टी ही सँभालेगी। उन्होंने तो यहाँ तक कह दिया कि दिल्ली का रास्ता उत्तर प्रदेश से होकर जाता है और इसलिए आगामी चुनाव लोकतंत्र, धर्मनिरपेक्षता और भाईचारे को बहाल करने के लिए महत्त्वपूर्ण है। अखिलेश का यह कटाक्ष भाजपा की भेदभाव वाली सियासत को लेकर था। पत्रकारिता और प्रचार तंत्र का इस्तेमाल अपने पक्ष में करने वाली योगी सरकार से उन्होंने यह भी कहा कि आज मीडिया के समक्ष समाचारों के प्रकाशन एवं प्रसारण में निष्पक्षता और पारदर्शिता बनाये रखना एक बड़ी चुनौती है। उन्होंने यह बात ही पीटीआई कर्मचारियों के अखिल भारतीय महासंघ की वार्षिक आम सभा की बैठक में कही।
कांग्रेस की आँख-मिचौली
कांग्रेस की आँखमिचौली अभी तक किसी की समझ में नहीं आयी है। इसकी एक वजह यह है कि जो लोग प्रियंका गाँधी को मुख्यमंत्री के तौर पर देखना चाहते थे, उनकी उम्मीदों पर ख़ुद प्रियंका गाँधी ने तोड़ दिया है। इसके अलावा उसकी चुनावी रणनीति को लेकर भी कोई तस्वीर उतनी स्पष्ट नहीं दिखती, जितनी की जनता देखना चाहती है।
कई पुराने नेता उसका दामन छोड़ चुके हैं और नये पार्टी में आ चुके हैं। प्रियंका गाँधी पूरे दमख़म से मैदान में हैं, तो वहीं दूसरे नेता अभी उतने सक्रिय नहीं दिखते, जितने कि दिखने चाहिए। हो सकता है कि इसकी वजह उन्हें पार्टी से टिकट मिलने की अनिश्चितता हो, लेकिन फिर भी उन्हें हिम्मत तो दिखानी ही चाहिए। हालाँकि यह अलग बात है कि कांग्रेस हर ख़ास-ओ-आम की समस्याओं पर बड़ी गहराई से ग़ौर कर रही है और ग़रीबों की परेशानियों को सुन रही है।
रालोद हुई मज़बूत
इधर पश्चिमी उत्तर प्रदेश में दबदबा रखने वाले जाटलैंड के चौधरी अजित सिंह की मृत्यु होने के बाद उनकी पार्टी राष्ट्रीय लोकदल (रालोद) की ज़िम्मेदारी उनके बेटे जयंत चौधरी पर आ गयी है। 19 सितंबर को जयंत चौधरी की पगड़ी रस्म बाग़पत में हुई, जहाँ 32 जातियों और 24 ख़ाफ़ पंचायतों के नेताओं ने उन्हें पगड़ी बाँधकर उत्तर प्रदेश मिशन-2022 के लिए आशीर्वाद दिया।
जयंत चौधरी ने यह रस्म पगड़ी अपने पिता के श्रद्धांजलि समारोह के दौरान करायी, जिसमें प्रदेश के अलावा दूसरे प्रदेशों के भी लोग शामिल हुए। माना जा रहा है कि जयंत चौधरी काफ़ी कमज़ोर हो चुकी अपनी पार्टी को फिर से उसी स्तर पर खड़ा करने की कोशिश करेंगे, जिस मकाम पर उनके दादा चौधरी चरण सिंह पार्टी को पहुँचा गये थे। किसानों की भाजपा सरकारों से नाराज़गी उनके लिए एक बेहतर मौक़ा हो सकता है।
बिगड़े बोल!
इधर उत्तर प्रदेश के मुख्यमंत्री योगी आदित्यनाथ के बिगड़े बोल उन्हें ही संकट में डाल रहे हैं। हाल ही में उन्होंने नाम लिए बिना ही कांग्रेस के पूर्व अध्यक्ष राहुल गाँधी पर ऐसी टिप्पणी कर दी, जिससे उन्हें निंदा का सामना करना पड़ा। उन्होंने कहा कि देश में आपदा के समय एक पार्टी के लोग इटली भाग जाते हैं, देवी-देवताओं पर टिप्पणी करना, राम-कृष्ण को नकारना उनकी प्रवृत्ति का हिस्सा है, जो एक्सीडेंटल हिन्दू होगा तो यही होगा। उनके इस एक्सीडेंटल हिन्दू शब्द पर सियासी धड़ों में भी नाराज़गी दिख रही है।
अपनी बुलडोजर नीति का दम्भ भरते हुए भी उन्होंने कह डाला कि निर्दोष लोगों की सम्पत्ति एवं सरकारी सम्पत्ति पर अवैध क़ब्ज़ा करने वालों का एक ही उपचार है- बुलडोजर। पहले डीजीपी आवास के पास एक शत्रु सम्पत्ति पर अवैध क़ब्ज़ा था मैंने कहा कि इसका एक ही उपचार है- बुल्डोजर। कभी-कभी ज़्यादा पंचायत न करके सीधे जवाब देने की ज़रूरत होती है। उनकी अकड़ यहीं नहीं थमी, समाजवादी पार्टी (सपा) पर हमला करते हुए उन्होंने कहा कि पिछली सरकार में पूर्वी उत्तर प्रदेश के लोग बाढ़ में डूबे रहते थे और बच्चे एवं नागरिक इंसेफेलाइटिस और डेंगू की चपेट में आकर तड़पते थे। उस समय, ज़िम्मेदार लोग सैफई में फ़िल्मी हस्तियों के नृत्य का आनंद लेने में व्यस्त रहते थे। मुझे समझ में नहीं आता कि स्वार्थ में लोग राष्ट्र व समाज हित कैसे भूल जाते हैं?
इस टिप्पणी को लेकर भी योगी आदित्यनाथ की ख़ूब भद्द पिट रही है। क्योंकि यह बात उन्होंने तब कही है, जब पूरे उत्तर प्रदेश में हज़ारों लोग वायरल बुख़ार और डेंगू से तड़प रहे हैं; मर रहे हैं। इससे पहले भी प्रदेश वासियों ने स्वास्थ्य अव्यवस्था की वजह से कोरोना और उससे पहले चमकी बुख़ार के चलते मौत का तांडव योगी राज में ही बहुत क़रीब से देखा है।