अखरा
गाँव की छाती में
होता-अखरा
जहाँ करमा में
लगता है-गहदम झूमर
औरतों के लिए
सबसे सुरक्षित स्वतंत्र
स्थान है-अखरा
धरती की आंत
जहाँ पुरूषों का दम्भ
पच जाता है !
जहाँ चौखट से बाहर
औरतें खोल पाती हैं-
अपने पाँव और
अपनी आत्मा के अतल को
औरतें अखरा में
खुलकर नाचती है
पांवों के थके जाने तक
आत्मा के भर जाने तक !
जब पहली बार
टूटी होगी पुरूषों की अकड़
दरकी होगी दम्भ की दीवारें
तब जाके बना होगा
धरती की छाती में
अखरा, आत्मा की तरह…..!
जिसमें स्त्रियों के पांव
थिरके होंगे धड़कन की तरह
और स्त्रियों ने लिया होगा
खुली हवा में सांस
और मुक्त आकाश के नीचे
मुक्त कंठ से गाया होगा
-मुक्ति का गान!
जड़े
जड़ें ज़मीन में जितने
गहरे धंसी होती हैं
उतना ही सीना तानकर
भुजाओं को उठाकर
पेड़ चुनौती देता है
-आकाश को
जितनी मजबूती से जड़ें
जमीन को जकड़ी होती हैं
पेड़ उतना ही झंझावातों से
टकराने का हौसला रखता है
जड़ों से उखड़ पेड़
तिनकों के समान
नदी के बहाव संग बहते
-इस छोर से उस छोर
सांझ ढलते ही पक्षियों का जोड़ा
खदानों में खटने गये मजदूरों को रैला
रोज़ भोर होते ही पश्चिम का डूबा सूरज
शायद इसीलिए लौट आता है
सबकुछ झाड़-पोंछकर
-अपनी जड़ों की ओर !
जूठे बत्र्तन
रात भर ऊँघते रहे
जूठे बत्र्तन
अपने लिजलिजेपन से
मुर्गे की बांग से
भोर होने की आस में
तारों को ताकते रहे
झरोखे की फांक से
सुबह होते ही
जूठे बत्र्तनों को
ममत्व भरे हाथों का
स्पर्श मिलता….
घर की औरतें
जूठे बत्र्तनों को
ऐेसे समेटती/सहेजती
मानो उनका स्वत्व
रातभर रखा हो
इन जूठे बत्र्तनों में !
चाहे ये जूठे बत्र्तन
किन्हीं के हों
किसी भी जात/धर्म के
ऊँच-नीच/भेद-भाव
तनिक नहीं करतीं
घर की औरतें
इन जूठे बत्र्तनों से !
पिता की खांसी
पिता की खांसी
जैसे उठता-कोई ज्वार
मथता हुआ सागर को
इस छोर से उस छोर
दर्द से टूटते पोर-पोर
जब खांसी का दौरा पड़ता
थरथराने लगता-पिता का धड़
डोलने लगता-माँ का कलेजा
मानो खांसी चोट करती
घर की बुनियाद पर
हथौड़े की तरह….
और हिल उठता-समूचा घर !
अब सत्तर की उमर पर
दवाओं का असर
कम पड़ रहा
पिता की खांसी पर
डॉक्टर कहा करते-
यह खांसी का दौरा
दमा कहलाता है
जो आदमी का
दम तोड़कर ही दम लेता है !
लेकिन
अगर आदमी में दम हो
तो पछाड़ सकता है
-दमा को
दमा और दम की
लड़ाई अभी जारी है…..!
इस साल का सावन
एक बार तो पहले भी
मैं लिख चुका हूँ-
इस साल का सावन
बिलकुल सूखा-सूखा
जैसे चैत के दिन
फागुन की रातें
लेकिन इस साल का सावन
उससे भी सूखा-सूखा
जैसे जेठ के दिन
बैसाख की रातें !
सावन की सप्तमी कृष्ण पक्ष में भी
दिन में दमकती धूप चम-चम
रातों को एक बूँद ओस नहीं !
मानो बंध गये हों मोरनी के पंख
और अकडऩे लगे हैं उसके पाँव
सील गया हो कोकिला का कंठ
और गुम है-दादुरों की टर्र-टर्र
सूख रहे नदी-नाले
धरती की नसों में
उबल नहीं रहा लोहू !
इस साल अभी तक नहीं सुना
किसी के होंठों से/न किसी बाजे से
‘सावन का महीना पवन करे सोर
जियरा झूमे ऐसे जैसे बनमां नाचे मोर’
जिसमें नायिका समझा रही नायक को
‘श’ और ‘स’ का उच्चारण भेद
खेतों में घास झुलस रही
चीटियां उनकी जड़े खोद रही हैं
बारियों में उग आये हैं कंटीले पौधे
और बीहन का रंग-बिलकुल पीला-पीला
आज मन तरस रहा रिझमिम में भीगने को
कान तरस रहे-रोपा के गीत सुनने को
पता नहीं कब चुवेगा छत से पानी
और बुझायेगा-जलता हुआ चूल्हा
आज तो गरीब भी चाहता है
कि-पानी चूवे उसके छप्पर से
और बुझे उसका जला हुआ चूल्हा
ताकि बारहों मास जलता रहे
सबके घर का चूल्हा !