किसे बचाने निकले भागवत?

कांग्रेस की भारत जोड़ो यात्रा से डरी भाजपा को मज़बूत करने निकले भागवत या अपनी शाख़ बचाने!

कहा जाता है कि गिरने से सब डरते हैं। राजनीतिक पतन के संकेतों ने आज यह सिद्ध कर दिया है कि कोई भी कितना ताक़तवर हो जाए; लेकिन लोकतंत्र में उसे डरना भी होगा और झुकना भी होगा। भाजपा का पितृ संगठन राष्ट्रीय स्वयंसेवक संघ (आरएसएस) प्रमुख मोहन भागवत कुछ इसी दशा में मस्जिद पहुँचे और वहाँ के इमाम डॉ. उमर अहमद इलियासी से मिले। ये ऑल इंडिया इमाम ऑर्गेनाइजेशन का भी दफ़्तर है। इस मौक़े पर डॉ. इलियासी ने कहा कि हमारा डीएनए एक ही है, सिर्फ़ इबादत करने का तरीक़ा अलग है। मोहन भागवत राष्ट्रपिता और राष्ट्रऋषि हैं। वह पारिवारिक कार्यक्रम में उनके बुलावे पर आये थे। उनके साथ सह सरकार्यवाह डॉ. कृष्ण गोपाल, वरिष्ठ प्रचारक इंद्रेश और रामलाल भी मौज़ूद थे।

बहरहाल सवाल यह है कि मोहन भागवत को पहली बार मस्जिद जाने की और उसके बाद मदरसा जाने की क्या आवश्यकता पड़ गयी? वह किसको बचाना चाहते हैं? नरेंद्र मोदी की सत्ता को या स्वयं की शाख़ को? क्योंकि देखा जा रहा है कि मोदी जैसे-जैसे ताक़तवर हुए हैं, अपनी चला रहे हैं। साथ ही मोहन भागवत और नरेंद्र मोदी के बीच कुछ अनबन भी लगती है। क्योंकि हाल ही में छत्तीसगढ़ की राजधानी रायपुर में आरएसएस की अखिल भारतीय समन्वय बैठक के दौरान मोहन भागवत ने प्रधानमंत्री के भोजन का निमंत्रण टाल दिया, वहीं इमाम के घर भोजन के निमंत्रण पर पहुँच गये। या फिर कहीं भागवत पसमांदा मुसलमानों के उस वोट बैंक को भाजपा की झोली में डलवाने की कोशिश में तो नहीं लग गये हैं, जिसे प्रधानमंत्री मोदी भी अपने वोट बैंक में शामिल करने के लिए लगातार कोशिश में लगे रहे हैं।

कुछ राजनीतिक जानकारों का मानना है कि मोहन भागवत कांग्रेस की भारत जोड़ो यात्रा से डरी हुई भाजपा को एक बार फिर मज़बूत करने की कोशिश में कर रहे हैं। देखने वाली बात यह है कि साल 2014 और साल 2019 में मोदी ने भाजपा को केंद्र में जिस स्तर पर पहुँचाकर बड़ी जीत हासिल की थी, क्या उनकी वह सियासी चमक अब कहीं खो चुकी है? और इसलिए पहली बार मोहन भागवत को उनके बचाव में उतरकर न चाहते हुए भी मस्जिद में जाना पड़ा? इसमें कोई दो-राय नहीं कि सन् 2014 के बाद से अब तक के जितने भी चुनाव देश में भाजपा ने लड़े हैं, वो मोदी के दम पर लड़े हैं। हालाँकि पश्चिम बंगाल में ममता द्वारा और बिहार में नीतीश कुमार द्वारा उन्हें मात देने के बाद मोदी की उस जादुई चमक की हवा तो निकली ही है; लेकिन अब गुजरात में केजरीवाल के मुफ़्त बिजली पानी के डंके और पुराने भाजपाई शंकर सिंह वाघेला द्वारा अपना सियासी दल बना लेने ने इसे और फीका कर दिया है। इन गतिविधियों भाजपा और उसकी प्रमुख जोड़ी मोदी-शाह की परेशानी पर पसीना ला दिया है, जिससे जोड़ी में एक डर नहीं, तो कम-से-कम हार की शंका तो पैदा ज़रूर हो चुकी है। ऐसे में भागवत का 22 सितंबर को मस्जिद जाकर इमामों के इमाम से मिलना और उसके बाद मदरसा जाना। इससे पहले उनसे संघ के ही एक कार्यालय में पाँच मुस्लिम बुद्धिजीवी मिलना। यह सब जताता है कि भाजपा और संघ में कहीं-न-कहीं 2024 के चुनावी-रण को लेकर बेचैनी है।

हालाँकि इन मुलाक़ातों को लेकर कहा यह जा रहा है कि पाँचों बुद्धिजीवियों ने काफ़ी दिनों पहले पत्र लिखकर मोहन भागवत से मिलने की अनुमति माँगी थी। वहीं सदर-ए-इमाम कह रहे हैं कि मोहन भागवत उनके बुलावे पर उनके घर के एक कार्यक्रम में हाज़िर हुए थे। ज़ाहिर है कि इमाम के घर जाने का मतलब मस्जिद में भी जाना था; क्योंकि इमाम रहते ही वहीं हैं। लेकिन सवाल यह है कि भागवत मस्जिद जाने के बाद मदरसा क्यों गये? माना जा रहा है कि इसके कहीं-न-कहीं राजनीतिक मायने ज़रूर निकलते हैं।

यहाँ सवाल यह भी उठता है कि क्या मोहन भागवत इस बार के 2024 के लोकसभा चुनावों में भाजपा की कमान ख़ुद सँभालेंगे? क्या यह मोदी की विदाई की तैयारी है? यह सवाल भी इसलिए, क्योंकि संघ के इतिहास में कभी कोई प्रमुख इस तरह अपनी पुत्र पार्टी के लिए मुस्लिम समुदाय से नहीं मिला है। कहीं ऐसा तो नहीं कि जो हिन्दू भाजपा और मोदी से नाराज़ हैं, उनका मत (वोट) इस बार भाजपा की झोली से छिटक जाने का संघ और भाजपा दोनों को ही डर है, और इसी वोट की पूर्ति के लिए भागवत मुसलमानों को मनाने में जुट गये हैं?

लेकिन इसके विपरीत चरमपंथी इस्लामिक संगठन पॉपुलर फ्रंट ऑफ इंडिया (पीएफआई) के तमिलनाडु और केरल समेत तकरीबन 15 ठिकानों पर राष्ट्रीय जाँच एजेंसी (एनआईए) और प्रवर्तन निदेशालय (ईडी) ने छापेमारी शुरू कर दी थी। पीआईएफ के कई नेताओं को गिरफ़्तार कर लिया। देखने वाली बात है कि एक तरफ़ नरेंद्र मोदी की केंद्र में सरकार आने के बाद मुसलमानों में खलबली मची रही है और दूसरी ओर योगी के बुलडोजर से मुस्लिम समुदाय में ख़ौफ़ छाया हुआ है। एक तरफ़ योगी मदरसों व मस्जिदों में अवैध निर्माण ढूँढ रहे हैं। दूसरी तरफ़ पीएफआई के ठिकानों पर छापेमारी चल रही होती है; और तीसरी तरफ़ मोहन भागवत नाराज़ मुस्लिम समुदाय को मनाने के लिए इमाम प्रमुख डॉ. इलियासी से मिलते हैं, मुस्लिम बुद्धिजीवियों से मिलते हैं और मदरसे में जाते हैं। राजनीतिक जानकारों का एक तीसरा पक्ष यह भी कह रहा है कि हिन्दुस्तान के मुसलमानों पर लगातार बढ़ रहे दबाव, कुछ जगह पर हुए दंगे और इसी वजह से एशिया के मुस्लिम देशों द्वारा हिन्दुस्तानी मुसलमानों को न सताने के लिए केंद्र की मोदी सरकार पर दबाव डाला जा रहा है। इसलिए मोहन भागवत को मस्जिद और मदरसों का दौरा करना पड़ रहा है। वरिष्ठ पत्रकार और ज़दीद मरकज़ के संस्थापक संपादक हिसाम सिद्दीक़ी इसे मुसलमानों की आँखों में धूल झोंकने जैसा बता रहे हैं। उनका कहना है कि पाँच मुस्लिम बुद्धिजीवी, जो मोहन भागवत से मिले, उनका दुरुपयोग किया जा रहा है। बहरहाल यह तो सभी जानते और मानते हैं कि आरएसएस यानी संघ प्रमुख की इच्छा के बग़ैर भाजपा में एक पत्ता भी नहीं हिलता। ऐसे में भाजपा की डूबती कश्ती को पार लगाना आरएसएस का उत्तरदायित्व ही है। सवाल यह भी उठ रहा है कि इमाम द्वारा भागवत को राष्ट्रऋषि और राष्ट्रपिता कहना क्या मुसलमानों को सीधा सन्देश है कि वे मोहन भागवत के ख़िलाफ़ नहीं जाएँ, यानी मुसलमानों को भाजपा के पक्ष में वोट देना चाहिए।

बहरहाल यह तस्वीर साफ़ हो चुकी है कि देश के लगातार बदल रहे माहौल के बीच संघ प्रमुख मोहन भागवत ने मुसलमानों से बातचीत करके माहौल को भाजपा के पक्ष में करने की ज़िम्मेदारी स्वयं सँभाल ली है। एक मुस्लिम नेता ने नाम न छापने की शर्त पर कहा कि अगर संघ सीधे तौर पर कभी भी मुसलमानों के विरोध में नहीं आया। लेकिन उसके समर्थक दल बजरंग दल, विश्व हिन्दू परिषद् और अन्य कई दल सीधे-सीधे मुस्लिमों के विरोध में रहे हैं, जिनको संघ ने कभी रोका भी नहीं। इसी प्रकार प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी और गृहमंत्री अमित शाह भी मुसलमानों के विरोध में खुलकर कभी सामने नहीं आये। लेकिन गोरक्षा, लव जिहाद, हिजाब, टोपी और दाढ़ी आदि पर कई जगह विरोध हुआ, अत्याचार हुआ, जिस पर वे कभी नहीं बोले। एक तरफ़ संघ और भाजपा बयान देते हैं कि मुसलमानों के बग़ैर देश में लोकतंत्र की कल्पना नहीं की जा सकती, और दूसरी तरफ़ मुसलमानों के प्रति नफ़रत का ज़हर फैलाया जा रहा है। यहाँ एक ख़ास पहलू यह भी है कि एक तरफ़ तो भाजपा, जिसका मतलब अब केवल मोदी हो चुका है; केंद्र की मोदी सरकार ने अपनी पार्टी के मुस्लिम नेताओं को साल 2019 के बाद साइड लाइन करना शुरू कर दिया है और दूसरी तरफ़ मोहन भागवत मुसलमानों के साथ अचानक जाकर खड़े हुए, तो इस पर हैरानी और आशंका दोनों ही होना स्वाभाविक है।

बहरहाल मुस्लिम समुदाय मोहन भागवत से कितना प्रभावित होता है और भविष्य में उसकी चुनाव को लेकर क्या रणनीतियाँ तय होती हैं? इसके लिए इंतज़ार ही करना पड़ेगा। फ़िलहाल सवाल यह उठ रहा है कि क्या मोहन भागवत के मुसलमानों के प्रति अचानक उमड़े इस प्रेम के चलते मुस्लिम समुदाय को भाजपा की मोदी सरकार और हिन्दू संगठनों की तरफ़ से राहत मिलेगी? क्या इससे मुसलमानों का कुछ भला होगा? क्या मुसलमान भाजपा के प्रति दोस्ताना रवैया अपनाने को तैयार होंगे? क्योंकि जब चुनाव होते हैं या क्रिकेट मैच होता है, या फिर कोई आतंकी हमला देश में होता है, तो $गद्दारी का ठप्पा मुसलमानों पर ही लगाया जाता है।

हालाँकि हिन्दुओं में एक तबक़ा ऐसा भी है, जो मुसलमानों से भेदभाव नहीं करता। वहीं मुसलमानों का भी एक तबक़ा इंसानियत को तवज्जो देता है। यहाँ यह भी बताना आवश्यक है कि आज़ादी की लड़ाई हिन्दू और मुस्लिम कन्धे-से-कन्धा मिलाकर ही लड़े थे, तभी देश अंग्रेजों के चंगुल से आज़ाद हुआ था। आज अगर मोहन भागवत मुसलमानों से बिना किसी राजनीतिक हित के मिले होते, तो इसका देश में कुछ और ही सन्देश जाता। ख़ैर, इसे अपने मुँह से राजनीतिक हित कहना भी उचित नहीं है; क्योंकि राजनीति में बहुत-सी बातें स्पष्ट होते हुए भी उन पर पर्दा डालना ही पड़ता है। देखते हैं कि संघ के मुखिया मोहन भागवत की यह क़वायद 2024 में भाजपा को फिर से सत्तासीन करने में कितनी सहायक सिद्ध होती है?

(लेखक वरिष्ठ पत्रकार एवं राजनीतिक विश्लेषक हैं।)