हाल ही में नवगठित महाराष्ट्र सरकार ने 2 लाख रुपये तक के किसानों के कर्ज़ यानी कृषि ऋण को माफ करने की घोषणा की है, जिसकी पात्रता के गणना की तारीख 30 सितंबर, 2019 रखी गयी है। महाराष्ट्र में किसानों की संख्या 137 लाख के करीब है। वित्त वर्ष 2017-18 में 89 लाख किसानों में से 44 लाख किसानों के कृषि ऋण को माफ किया गया था। इस बार लगभग 50 लाख से अधिक किसानों को ऋण माफी का लाभ मिल सकता है, जिसका कारण ऋण माफी के पात्रता की सीमा को 1.5 लाख रुपये से बढ़ाकर 2.0 लाख रुपये किया जाना है। ऋण माफी के पात्र किसानों की संख्या के आधार पर कृषि ऋण माफी की लागत लगभग 50,000 करोड़ रुपये होने का अनुमान है। सरकार द्वारा किसानों को ऋण माफी देने के पीछे सबसे बड़ा तर्क है कि जब कॉरपोरेट्स के फँसे कर्ज़ (एनपीए) को बट्टे-खाते में डाला या राइट ऑफ किया जा सकता है, तो किसानों के ऋण को क्यों नहीं माफ किया जा सकता है। िफलहाल कृषि एनपीए 1.1 लाख करोड़ रुपये है, जो कुल एनपीए का 12.4 प्रतिशत है। पिछले दशक में 3.14 लाख करोड़ रुपये के कृषि कर्ज़ को माफ किया गया है। इस प्रकार, कृषि एनपीए और माफ किये गये कर्ज़ को जोडऩे से कुल राशि 4.24 लाख करोड़ रुपये हो जाती है, जो उद्योगों के राइट ऑफ या बट्टे खाते में डाली गयी 5.7 लाख करोड़ रुपये से बहुत ज़्यादा कम नहीं है। यदि महाराष्ट्र सरकार द्वारा घोषित हालिया कृषि कर्ज़ माफी की राशि को कृषि एनपीए और माफ किये गये कर्ज़ राशि के साथ जोड़ दिया जाए, तो कुल कृषि एनपीए और माफ की गयी कर्ज़ की राशि 4.7 लाख करोड़ रुपये हो जाती है। इधर, दिवाला और शोधन अक्षमता कोड के आने के बाद से बड़े चूककर्ता कारोबारियों का कुछ हद तक पुनर्वास हो रहा है। इस कोड से वसूली में भी तेज़ी आयी है। हालाँकि किसानों का कृषि कर्ज़ माफ करने के बाद भी उनकी वित्तीय स्थिति में कोई सुधार नहीं हो रहा है और वे ऋणग्रस्तता के संजाल में फँसते जा रहे हैं।
कृषि ऋण माफी बनाम किसानों को किया गया वास्तविक भुगतान
पिछले एक दशक में कृषि ऋण माफी की अनेक घोषणाएँ की गयी हैं। राज्य सरकारों ने भी कृषि कर्ज़ को माफ करने की अनेक घोषणाएँ की हैं। बावजूद इसके, किसानों को माफ की गयी ऋण की पूरी राशि नहीं मिल पा रही है। राज्यों के बजट विश्लेषण से पता चलता है कि जिस साल कृषि ऋण को माफ किया गया, उसके बाद के कई वर्षों तक ऋण माफी की राशि बैंकों को नहीं दी गयी, जिसका कारण राज्यों के खजाने में पैसा का नहीं होना रहा है। चूँकि, एफआरबीएम अधिनियम के प्रावधानों के कारण 14वें वित्त आयोग ने राज्यों को निर्धारित सीमा से अधिक बाज़ार से उधार लेने के लिए प्रतिबन्धित किया है। इसलिए, राज्य सरकार बाज़ार से पैसे नहीं उठा पा रहे हैं। तेलंगाना ही केवल एक ऐसा राज्य है, जिसने घोषित ऋण माफी के 90 प्रतिशत राशि का भुगतान वित्तीय संस्थानों को कर दिया है। मामले में राज्यवार कृषि ऋण माफी का पैमाना भी अलग-अलग है। उदाहरण के लिए, राजस्थान और तमिलनाडु में, केवल वैसे किसान कृषि ऋण माफी के पात्र थे, जिन्होंने केवल सहकारी वित्तीय संस्थानों से कर्ज़ लिया था।
ऋण चुकाने का चलन हो रहा है खत्म
आमतौर पर कृषि ऋण माफी की राशि सम्बन्धित राज्य सरकारों द्वारा बैंकों को कई िकस्तों में दी जाती है और किसानों के किसान क्रेडिट कार्ड (केसीसी) कृषि ऋण माफी की पूरी राशि मिलने तक एनपीए बनी रहती है। एक बार कर्ज़ माफी का लाभ मिलने के बाद किसानों को दोबारा ऋण मिलने में परेशानी होती है। वित्तीय संस्थान चूककर्ता किसानों को ऋण देने से परहेज़ करते हैं। समय पर वित्तीय सहायता न मिलने की वजह से चूककर्ता किसानों का कर्ज़ बढ़ता चला जाता है, जिससे कृषि उत्पादकता में गिरावट आती है। कृषि ऋण माफी की वजह से नये कृषि कर्ज़ के वितरण में भी कमी आ रही है। उदाहरण के लिए, वित्त वर्ष 2018 में महाराष्ट्र, कर्नाटक और पंजाब की सरकार ने कृषि कर्ज़ को माफ किया था, जिसकी वजह से वित्त वर्ष 2018 में केसीसी का वर्ष दर वर्ष ऋण वितरण महाराष्ट्र में 40 फीसदी, कर्नाटक में 1 फीसदी और पंजाब में 3 फीसदी हुआ। इस तरह कृषि ऋण माफी योजना किसानों का ऋण कम करने के बजाय बढ़ा रही है। साथ ही अब वैसे किसान, जो नियमित रूप से ऋण का भुगतान कर रहे हैं; भी ऋण नहीं चुकाने के लिए प्रेरित हो रहे हैं। वर्तमान में एक बार ऋण माफी का लाभ मिलने के बाद किसान दोबारा कर्ज़ की राशि बैंक को नहीं लौटा रहे हैं। आमतौर पर ऐसे किसान अगली ऋण माफी की घोषणा का इंतज़ार करते हैं।
कृषि ऋण माफी पर कैग की रिपोर्ट
कैग ने वर्ष 2008 में की गयी कृषि ऋण माफी पर 5 मार्च, 2013 को एक रिपोर्ट प्रस्तुत की थी। रिपोर्ट के अनुसार, ऋण माफी योजना को लागू करने के दौरान अपात्र किसानों को ऋण माफी का लाभ देने, लाभार्थी किसानों को ऋण माफी का प्रमाण-पत्र नहीं देने, स्वतंत्र एजेंसियों से ऋण माफी का अंकेक्षण नहीं कराने जैसी गलतियाँ की गयी थी।
प्रति किसान केसीसी अधिशेष में वृद्धि
केसीसी आँकड़ों के राज्यवार विश्लेषण से पता चलता है कि पंजाब को छोडक़र सभी राज्यों में केसीसी के अधिशेष में वृद्धि का रुझान देखा जा रहा है, जबकि पंजाब में वर्ष 2018 और वर्ष 2019 में कृषि ऋण माफी की घोषणा की गयी थी, पर वहाँ कम राशि के ऋण में कमी आ रही है; जो यह दर्शाता है कि किसान कम राशि के ऋण लेने से परहेज़ कर रहे हैं। बदले परिवेश में किसान ज़्यादा ऋण लेना चाहते हैं, ताकि ऋण माफ होने पर उन्हें ज़्यादा लाभ मिल सके।
कृषि ऋण माफी से बचने की ज़रूरत
कृषि क्षेत्र में मौज़ूद समस्याओं को दूर करने के लिए कृषि ऋण माफी को समाधान नहीं माना जा सकता है। किसानों की समस्याओं को दूर करने से ही स्थिति में सकारात्मक बदलाव आ सकता है। इसके लिए एक दुग्ध ब्रांड के मॉडल के अनुरूप खाद्य उत्पादों के लिए प्रतिस्पर्धी और समावेशी मूल्य शृंखलाओं का निर्माण करना चाहिए। को-ऑपरेटिव मॉडल की मदद से उत्पादन से विपणन तक की सम्पूर्ण मूल्य शृंखला में सुधार आ सकता है। इसके अलावा कृषि उपज और लाइवस्टॉक विपणन (एपीएलएम) अधिनियम 2017 के मॉडल को भी अमलीजामा पहनाने की ज़रूरत है। इससे कृषि विपणन प्रणाली में मौज़ूद बाधाओं को दूर करने में आसानी होगी। बैंक द्वारा ऋण पर हाइपोथिकेशन चार्ज आरोपित करने की प्रक्रिया को भी समाप्त करने की जरूरत है। मौज़ूदा समय में इस नियम की वजह से बैंकिंग परिचालन में अनेक मुश्किलेंं आ रही हैं साथ ही साथ बैंक के खर्च में अनावश्यक रूप से वृद्धि हो रही है।
दूसरे उपाय
केसीसी योजना का आगाज भारतीय रिजर्व बैंक ने वर्ष 1998 में किया था। केंद्र सरकार तीन लाख रुपये तक के केसीसी लेने वाले किसानों को प्रॉम्प्ट रिपेमेंट इंसेंटिव दे रही है। समय पर ऋण की अदायगी करने वाले किसानों को 5 प्रतिशत ब्याज देना होता है। मार्च, 2019 के अंत में सभी अनुसूचित वाणिज्यिक बैंकों (एएससीबी) ने केसीसी श्रेणी में 6,680 अरब रुपये का ऋण दिया था, जो कुल कृषि ऋण का 60 फीसदी था। आज किसानों के बीच यह सबसे लोकप्रिय ऋण है। फिर भी, कई कारणों जैसे, प्राकृतिक आपदा, उपज की वास्तविक कीमत नहीं मिलने, कृषि ऋण माफी की घोषणा आदि के कारण किसान केसीसी का पुनर्भुगतान नहीं कर रहे हैं।
बटाईदार किसानों को मिले राहत
किसानों की ऋणग्रस्तता में वृद्धि का एक बहुत बड़ा कारण लगभग 70 प्रतिशत कृषि योग्य भूमि पर बटाईदार या काश्तकार किसानों द्वारा खेती-किसानी करना है। मौज़ूदा नियमों के अनुसार काश्तकार किसान न तो ऋण पाने के हकदार हैं और न ही सरकारी योजनाओं का लाभ लेने के। सरकार द्वारा दिये जाने वाले सारे फायदे भूमि मालिकों को मिलते हैं। केरल एकमात्र ऐसा राज्य है, जिसने काश्तकार किसानों को आर्थिक शोषण से बचाने के लिए मनी लेंडिंग एक्ट को अमलीजामा पहनाया है। आंध्र प्रदेश और तेलंगाना राज्यों में भी काश्तकार किसानों की बेहतरी के लिए काम किया जा रहा है। वित्त वर्ष 2018 के बजट में काश्तकार किसानों को काश्तकारी का प्रमाण-पत्र देने की बात कही गयी थी। किसानों के जीवन को खुशहाल बनाने के लिए इस संकल्पना को जल्द-से-जल्द लागू किया जाना चाहिए। काश्तकार किसानों को स्व-घोषित किरायेदारी के शर्तों को मानने और घोषित उत्पादित फसलों के हलफनामे के आधार पर बीमा और दूसरे फायदे दिया जाना चाहिए। काश्तकार किसानों की मदद के लिए बैंक, नाबार्ड और सरकार को आगे आना चाहिए। काश्तकार किसानों को समय पर वित्तीय सहायता उपलब्ध कराने के लिए एक कोष बनाना इस दिशा में लाभकारी हो सकता है।
निष्कर्ष
पड़ताल से साफ है कृषि ऋण माफी से किसानों का कोई भला नहीं हो रहा है। सच कहा जाए, तो इससे उनकी समस्याओं में बढ़ोतरी हो रही है। आज किसानों की समस्याओं का समाधान करने की ज़रूरत है, न कि उन्हें कृषि ऋण माफी जैसा लॉलीपॉप देने की।