लखीमपुर खीरी के तिकोनिया चौराहे पर 3 अक्टूबर, 2021 को किसानों की हत्या मामले में अदालत ने केंद्रीय गृहराज्य मंत्री अजय कुमार मिश्रा के बेटे आशीष मिश्रा समेत 14 आरोपियों के ख़िलाफ़ आरोप तय कर दिया है। अदालत के इस फ़ैसले का किसानों ने स्वागत किया है; लेकिन किसानों की माँग है कि आरोपियों को कड़ी-से-कड़ी सज़ा होनी चाहिए। हालाँकि इस मामले में केंद्रीय मंत्री अजय मिश्रा और दूसरे भाजपा नेताओं ने चुप्पी साध रखी है। बता दें कि कृषि क़ानूनों के ख़िलाफ़ आन्दोलन कर प्रदर्शन कर रहे किसानों के ऊपर केंद्रीय मंत्री के बेटे अजय मिश्रा ने कार चढ़ा दी थी, जिससे चार किसानों समेत क़रीब आठ लोगों की मौत हो गयी थी। अब अदालत ने सभी आरोपियों को हत्या, हत्या का प्रयास समेत कई धाराओं में आरोपी बनाते हुए आरोपियों की इस दलील को ख़ारिज कर दिया कि वे घटना में शामिल नहीं थे। एडीजे फस्र्ट सुशील श्रीवास्तव की अदालत में आरोपियों को धारा-147, 148, 149, 326, 30, 302, 120-बी, 427 और 177 में आरोपी माना गया है। इसके अलावा आरोपी सुमित जायसवाल को धारा 3/25, आशीष मिश्रा, अंकित दास, लतीफ़ व सत्यम को धारा-30, नन्दन सिंह बिष्ट को धारा-5/27 के तहत भी आरोपी माना गया है।
यह घटना खुलेआम हिट एंड रन जैसी थी, जिसमें आरोपी ने ख़ुद के बचाव में हर हथकंडा अपनाया था। इसके अलावा केंद्रीय मंत्री अजय मिश्रा और उनके बेटे आशीष मिश्रा ने ख़ुद को बेक़सूर बताते हुए किसानों और उनके समर्थकों पर लगातार ज़ुबानी हमले भी किये थे। किसी नेता पर सत्ता में रहने का नशा कितना होता है और वह किस तरह ताक़तवर होता है, यह घटना इसका जीता-जागता उदाहरण है। क्योंकि आज तक न तो केंद्र की मोदी सरकार ने अजय मिश्रा को मंत्री पद से हटाया और न ही उनकी फटकार लगायी। इतना ही नहीं, उत्तर प्रदेश के विधानसभा चुनाव के दौरान आशीष मिश्रा को जमानत मिल गयी थी, जिसे लेकर सरकार को लोगों ने कटघरे में भी खड़ा किया; लेकिन उसके कान पर जूँ नहीं रेंगी। आशीष मिश्रा की रिहाई का मामला सर्वोच्च न्यायालय भी पहुँचा हुआ है। सर्वोच्च न्यायालय ने पहले जमानत रद्द कर दी थी और अब निम्न न्यायालय से पूछा है कि वह बताए कि जाँच कब तक पूरी होगी। इससे पहले सर्वोच्च न्यायालय ने इलाहाबाद उच्च न्यायालय से इस मामले पर नये सिरे से विचार के लिए कहा था। इसके बाद इलाहाबाद उच्च न्यायालय ने भी आरोपी की जमानत याचिका रद्द कर दी। आशीष मिश्रा ने फिर जमानत के लिए फिर से सर्वोच्च न्यायालय का दरवाज़ा खटखटाया; लेकिन सफलता नहीं मिली। अब आशीष और उसके साथियों को आरोपी बनाकर अदालत ने न्याय की एक मिसाल पेश करके यह सन्देश दिया है कि क़ानून में छोटे-बड़े का अन्तर नहीं देखा जाता, बल्कि यह देखा जाता है कि दोष किसका है?
इसके साथ ही किसानों के लिए एक और ख़ुशख़बरी की बात यह है कि किसानों की एकजुटता और विरोध के चलते दिल्ली पुलिस ने भारतीय किसान यूनियन (भाकियू) के कार्यालय प्रभारी अर्जुन बालियान को रिहा कर दिया है, उन्हें किसान आन्दोलन के दौरान पुलिस ने गिरफ़्तार कर लिया था। बहरहाल एक साल से ज़्यादा समय के बड़े देशव्यापी किसान आन्दोलन के बाद आन्दोलन रोकने के लिए हर तिकड़म करके हार चुकी केंद्र की मोदी सरकार ने 9 दिसंबर, 2021 को किसानों की कई माँगों को मान लिया, जिसके बाद किसानों ने 11 दिसंबर, 2021 को आन्दोलन स्थगित कर दिया। लेकिन आन्दोलन स्थगित कराने में सफल रही केंद्र की मोदी सरकार ने अभी तक किसानों की कई माँगें पूरी नहीं की हैं। इन माँगों में मुख्य माँग फ़सलों का न्यूनतम समर्थन मूल्य (एमएसपी) लागू करने की है, जिसे लागू करने के कई बहाने सरकार निकाल चुकी है। हालाँकि किसानों को दिलासा देने के लिए केंद्र की मोदी सरकार ने इस मामले के लिए एक समिति गठित कर रखी है, जिसमें ज़्यादातर किसान विरोधी चेहरे ही शामिल हैं। इधर किसान कई मौक़ों पर सरकार को चेतावनी दे चुके हैं कि अगर उसने किसानों की माँगें नहीं मानीं, तो वे दोबारा आन्दोलन करेंगे और इस बार आन्दोलन पहले से भी बड़ा होगा।
हालाँकि इस बीच संयुक्त किसान मोर्चा (टिकैत) और संयुक्त किसान मोर्चा के दूसरे संगठन कई बैठकें भी कर चुके हैं और छोटे-मोटे प्रदर्शन भी कर चुके हैं। यह बैठकें और प्रदर्शन उत्तर प्रदेश, हरियाणा और पंजाब में हो चुके हैं। कई पंचायतें और महापंचायतें भी हो चुकी हैं। लेकिन सवाल यह है कि अगर केंद्र की मोदी सरकार अगर किसानों की माँगें पूरी नहीं करती है, तो क्या दोबारा किसान आन्दोलन उस तरह उठकर खड़ा हो सकेगा, जैसा किसान आन्दोलन 26 नवंबर 2020 को तीन नये कृषि क़ानूनों के ख़िलाफ़ उठकर खड़ा हुआ था? दूसरा सवाल यह है कि क्या सरकार अब उस तरह का आन्दोलन खड़ा होने देगी और अगर आन्दोलन हुआ, तो क्या किसानों की माँगों को तत्काल प्रभाव से लागू करने के लिए सरकार मजबूर होगी?
मेरा मानना है कि किसानों ने अगर 9 दिसंबर, 2021 को ही सरकार के आगे शर्त रखी होती कि जब तक सरकार उनकी सभी माँगें पूरी नहीं कर देती, तब तक वे आन्दोलन स्थगित नहीं करेंगे, तो शायद न्यूनतम समर्थन मूल्य (एमएसपी) से लेकर दूसरे सभी मसले कब के हल हो गये होते। दूसरी बात यह है कि पहले की सरकारें किसानों के दबाव में बहुत जल्दी आ जाती थीं। लेकिन अगर केंद्र की मोदी सरकार की बात करें, तो वह किसानों के ही नहीं सभी प्रकार के आन्दोलनकारियों के दबाव में आने के बजाय उन पर उल्टा दबाव बना देती है कि वे अपना आन्दोलन ख़त्म करें। छोटे-मोटे आन्दोलनों की तो केंद्र की मोदी सरकार परवाह भी नहीं करती। अगर नये कृषि क़ानूनों के ख़िलाफ़ हुए इस सबसे बड़े किसान आन्दोलन की ही बात करें, तो देखेंगे कि सरकार ने किसानों को उखाड़ फेंकने के लिए क्या-क्या नहीं किया? उसने सडक़ें भी ख़ुदवायीं, मोटे-मोटे पत्थर भी रास्ते में लगवाये, बड़े-बड़े भारी-भरकम बैरिकेड लगवाये, रास्तों में हाईवे पर कीलें ठुकवायीं, किसानों पर आँसू गैस के गोले, पानी की बौछारें पड़वायीं, लाठियाँ बरसायी गयीं और उन पर भाजपा समर्थकों द्वारा हमलों के अलावा कई प्रकार के आरोप भी लगाये। इसके बावजूद भी अगर हर मौसम की मार झेलते हुए किसान बिना हिंसा के आन्दोलन को शान्ति से करते रहे, तो यह उनका हौसला तो था ही, बल्कि उनके धरती पुत्र होने के सच्चे सुबूत थे, जो कि दिन-रात ख़ून-पसीना बहाकर देश के लोगों का पेट भराने का काम करते हैं। दूसरे तरह के लोग इस तरह सरकार के दबाव और एक तरह की प्रताडऩा झेलकर इतना बड़ा आन्दोलन कर सकें, यह नामुमकिन है। लेकिन किसानों में भी अब वो एकता और एक व्यक्ति के पीछे चलकर आगे बढऩे की क्षमता नहीं है।
एक दौर था, जब महेंद्र सिंह टिकैत, चौधरी चरण सिंह, ताऊ देवी लाल और अजय चौटाला जैसे किसान नेता हुआ करते थे और उनकी एक आवाज़ पर पूरे देश के किसान इकट्ठे होकर सरकार की ग़लत नीतियों के ख़िलाफ़ खड़े होकर आन्दोलन पर उतर आते थे और तब तक पीछे नहीं हटते थे, जब तक सरकार हाथ जोडक़र उनकी माँगें नहीं मान लेती थी। आज अगर गन्ना का थोड़ा-बहुत सही भाव मिल रहा है, तो ये महेंद्र सिंह टिकैत की देन है। इसी प्रकार अन्य कई माँगें भी किसानों की इन्हीं दिवंगत नेताओं के दौर में पूरी हुईं।
यह सरकार किसानों को सिर्फ़ वादे ही परोसती रही है। किसानों को सिंचाई के लिए बिजली मुफ़्त, ग़रीब किसानों को सस्ती बिजली, एमएसपी लागू करने, गन्ना का बक़ाया भुगतान, गन्ना 15 दिनों के अन्दर भुगतान, आवारा पशुओं का बंदोबस्त, डीएपी खाद सस्ती और उसकी समुचित उपलब्धता, सूखा और अधिक वर्षा वाले क्षेत्रों में मुआवज़ा जैसी तमाम घोषणाएँ सरकार ने आज तक पूरी नहीं की हैं। इन्हीं माँगों को आज किसान राज्य और केंद्र सरकारों के आगे रखकर इंतज़ार कर रहे हैं। अगर यह माँगें पूरी नहीं होती हैं, तो कोई बड़ी बात नहीं कि किसान दोबारा कभी आन्दोलन करें। आज किसानों को न तो डीएपी समय पर मिल पाती है, न ही सस्ती मिल रही है। न बिजली सस्ती मिल रही है और न ही अन्य कोई खेती के ज़रूरी चीज़ सस्ती है। जिन किसानों के खाते में किसान सम्मान निधि के नाम पर 500 रुपये हर महीने देने का दावा सरकार भी करती रही है, उसके भी ठीक-ठीक आँकड़े नहीं हैं कि कितने किसानों को ये पैसा मिलता है।
हालाँकि सरकार देश के 10.45 करोड़ किसानों को यह सहायता देने का दावा करती रही है; लेकिन ज़्यादातर किसान ही इस बात को नकारते रहे हैं कि उन्हें कोई सरकारी मदद मिल रही है। कई किसान तो इसके लिए उनका खाता चेक कर लेने तक की बात कहते हैं। हाल ही में केंद्र की मोदी सरकार के कहने पर आधार से बैंक खाता लिंक करते ही 1.86 करोड़ किसानों को यह पैसा मिलना बन्द हो गया है। ऐसे ही कई अन्य योजनाएँ, जो केंद्र और राज्य सरकारों ने किसानों के हित के लिए चालू कर रखी हैं, उनका भी लाभ पात्र किसानों को नहीं मिल पा रहा है। इसमें कृषि यंत्र योजना से लेकर फ़सल बीमा योजना जैसी कई योजनाएँ शामिल हैं।
बहरहाल मेरा सरकार से इतना ही कहना है कि किसान इस देश के वो सम्मानित नागरिक हैं, जो देश भर का पेट भराने के लिए दिन-रात सर्दी, बारिश और गर्मी में अपने खेतों में खटते रहते हैं। ऐसे में किसानों के हित में सभी सरकारों, ख़ासतौर पर केंद्र की मोदी सरकार को फ़ैसले लेने चाहिए। देश के अन्दर ही एक ऐसे तबक़े के साथ सौतेला व्यवहार ठीक नहीं, जो अपना पेट काटकर दूसरों का पेट भराता है। अपनी और अपने परिवार की ज़रूरतें घटाकर दूसरों की ज़रूरतों पूरी करता है और दूसरों के ऐश-ओ-आराम पर कभी नहीं रोता। देश के लिए समर्पित ऐसे किसानों के साथ यह भेदभाव क्यों?
(लेखक वरिष्ठ पत्रकार एवं राजनीतिक विश्लेषक हैं।)