संसद द्वारा पास किये गये तीन नये कृषि कानूनों- किसान उपज व्यापार एवं वाणिज्य (संवद्र्धन और सुविधा) अधिनियम-2020, मूल्य आश्वासन एवं कृषि सेवाओं पर किसान (सशक्तिकरण और संरक्षण) समझौता अधिनयम-2020 एवं आवश्यक वस्तु (संशोधन) अधिनयम-2020 का किसान संगठनों और विपक्ष द्वारा विरोध किया जा रहा है। विपक्ष लगातार सवाल उठा रहा है कि इन नये कानूनों से मंडी व्यवस्था (एपीएमसी) खत्म हो जाएगी। साथ ही इन कानूनों के ज़रिये न्यूनतम समर्थन मूल्य (एमएसपी) को खत्म करने की साज़िश रची जा रही है। कांग्रेस शासित राज्यों में इस कानून को रोकने की सम्भावना तलाशी जा रही है, वहीं संविधान विशेषज्ञों का मानना है कि केंद्र व राज्यों के अधीन विषयों पर राज्य संशोधन या नया कानून तो बना सकते हैं; लेकिन संसद से पारित कानून को लागू करने से मना नहीं कर सकते।
संवैधानिक मर्यादा और कृषि कानून को चुनौती भारत सरकार द्वारा कोविड-19 जैसे वैश्विक महामारी एवं लॉकडाउन के दौरान कृषि से सम्बन्धित लाये गये तीन अध्यादेश संसद में पारित हो गये हैं, जिन्हें राष्ट्रपति ने अपनी मुहर लगाकर कानून भी बना दिया। अध्यादेश लाये जाने, संसद से पास होने एवं राष्ट्रपति के हस्ताक्षर होने की इस आपाधापी में भारतीय संविधान और उसमें दी गयी राज्य सूची, केंद्र सूची एवं समवर्ती सूची के विषयों को लेकर की गयी संवैधानिक व्यवस्था को भुला दिया गया। तीनों कृषि कानूनों के संदर्भ में संवैधानिक व्यवस्था और उसके अतिक्रमण को अब तो मात्र देश की सर्वोच्च अदालत में ही चुनौती दी जा सकती है।
अब इस लड़ाई को लडऩे का एक संवैधानिक तरीका यही हो सकता है कि किसानों द्वारा सडक़ पर लड़ी जा रही लड़ाई के साथ ही केंद्र द्वारा संवैधानिक मर्यादाओं के अतिक्रमण से सम्बन्धित विषय पर अदालत में जाने की सम्भावनाओं पर भी किसान संगठनों को विचार करना चाहिए।
अनुच्छेद-254 (2) के माध्यम से नये कृषि कानूनों को रोकने की कार्यवाही केंद्र के तीनों कृषि कानूनों के विरोध को लेकर अनुच्छेद-254 (2) भी अभी काफी चर्चा में है। कांग्रेस शासित राज्यों में कृषि कानूनों को रोकने की सम्भावना तलाशी जा रही है। कांग्रेस अध्यक्ष सोनिया गाँधी ने कांग्रेस शासित राज्यों के प्रमुखों को केंद्र सरकार के कृषि कानूनों के विरुद्ध भारतीय संविधान के अनुच्छेद-254 (2) के तहत अपने-अपने राज्यों में कानून पारित करने की सलाह दी है।
क्या है संविधान का अनुच्छेद-254 (2)
भारतीय संविधान का अनुच्छेद-254 (2) एक ऐसी स्थिति को संदर्भित करता है, जहाँ किसी भी मामले के सम्बन्ध में एक राज्य विधायिका द्वारा बनाये गये कानून का कोई उपबन्ध, जो कि समवर्ती सूची में आता है; संसद द्वारा बनायी गयी विधि के किसी उपबन्ध के विरुद्ध होता है। ऐसे मामले में राज्य विधायिका द्वारा बनाया गया कानून प्रबल होगा, बशर्ते कि कानून को राष्ट्रपति के विचार के लिए आरक्षित रखा गया है और उस पर उनकी अनुमति मिल गयी है।
यानी यह अनुच्छेद केवल तभी लागू होगा, जब समवर्ती सूची में शामिल किसी विषय पर एक राज्य का कानून, संसद द्वारा पारित राष्ट्रव्यापी कानून के विरुद्ध होगा। ऐसी स्थिति में यदि राष्ट्रपति राज्य के कानून को अपनी सहमति दे देता है, तो राज्य के कानून को प्रभावी माना जाएगा और उस राज्य में सम्बन्धित केंद्रीय कानून लागू नहीं होगा। राज्यों को यह शक्ति केवल उन्ही मामलों पर उपलब्ध है, जो संविधान की अनुसूची-7 के तहत समवर्ती सूची में शामिल हैं। कानून विशेषज्ञों के अनुसार, यह राष्ट्रपति का विशेषाधिकार है कि वह राज्य विधेयकों पर हस्ताक्षर करें या नहीं और चूँकि राष्ट्रपति मंत्रिपरिषद् की सहायता और सलाह पर कार्य करता है, इसलिए राज्य के इस प्रकार विधेयकों का पारित होना अपेक्षाकृत कठिन माना जाता है। हालाँकि यह काफी दुर्लभ स्थिति होगी जब राष्ट्रपति केंद्रीय मंत्रिमंडल की सलाह को दरकिनार करते हुए राज्य के कानून को अनुमति देंगे।
किसान चाहते हैं वाजिब दाम
देश में अनेक संकट आते हैं; लेकिन अब खाद्य संकट जैसे हालात नहीं बनते। यह किसानों के मेहनत और अधिक उपज क्षमता के कारण ही सम्भव हुआ है और भारत आज खाद्य संकट जैसी समस्या से उबर सका है। चूँकि किसान पूरी तरह कृषि पर ही निर्भर हैं, इसलिए किसान अपनी उपज का वाजिब दाम चाहते हैं और इस दाम के लिए स्पष्ट कानूनी गारंटी की माँग कर रहे हैं।
किसान के लिए वाजिब दाम क्या होना चाहिए? यह जानना मुश्किल नहीं है। भारत सरकार के पास कृषि सम्बन्धित अनेक संस्थाओं और विभागों का पूरा जाल है। कितना लाभ जोड़ दिया जाए, तो किसान के लिए वाजिब दाम बनेगा; यह सरकार आसानी से तय कर सकती है। इसके लिए कानून बना सकती है।
प्रत्येक वर्ष सरकार कृषि लागत और मूल्य आयोग (सीएसीपी) के माध्यम से हर उपज के लिए न्यूनतम समर्थन मूल्य (एमएसपी) तय करती है। किसान को फसल बोने से पहले बताया जाता है कि फसल पकने के बाद किसान को फसल का कितना समर्थन मूल्य मिलेगा, यानी इससे कम कीमत पर वह फसल नहीं बेची जाएगी। किसान उससे अधिक पर अपनी उपज जहाँ चाहे बेचें, लेकिन उससे कम की बात आये तो सरकार उसे न्यूनतम समर्थन मूल्य के माध्यम से उसकी भरपाई करेगी। लेकिन सरकार इसकी गारंटी नहीं देती। एमएसपी तय करने के बाद सरकार सो जाती है और किसानों की उपज खरीदने को लेकर कोई रुचि नहीं लेती, जिससे हर साल किसानों को अपनी उपज बेचने में काफी नुकसान होता है।
सरकार रबी और खरीफ के लगभग 23 फसलों के लिए हर साल एमएसपी तय करती है। लेकिन खरीदारी सिर्फ धान-गेहूँ की करती है, साथ में कभी-कभार तीसरी फसल की खरीद भी करती है, जो धान-गेहूँ के अलावा 23 फसलों में से कोई एक होगी, जो बाजरा, मक्का, मूँग, सरसों, कपास कुछ भी होगी; लेकिन धान-गेहूँ के अलावा कोई एक ही फसल होगी। सरकार केवल वहीं फसल खरीदती है, जो सार्वजनिक वितरण प्रणाली (पीडीएस) में देना होता है।
अभी वर्तमान में लगभग 10 से 12 फीसदी किसान ही एमएसपी पर अपनी उपज बेच पाते हैं। इसके बावजूद भी किसान एमएसपी को कानूनी गारंटी बनाने की माँग कर रहे हैं; क्योंकि किसान को डर है कि अभी एमएसपी के तहत खरीदी हो रही है, वह भी बन्द हो जाएगी। यानी एमएसपी नहीं रहेगी, तो उपज का वाजिब दाम भी नहीं
मिल पाएगा। सरकार जिसे न्यूनतम समर्थन मूल्य (एमएसपी) कहती है, वह किसान के लिए वास्तव में अधिकतम सम्भव / प्राप्त मूल्य है।
किसान इसलिए डरा हुआ है कि अभी तक प्राइवेट मंडी की व्यवस्था नहीं थी, और जो भी उसे एमएसपी मिलती थी, कम-से-कम मिलती तो थी। लेकिन अब प्राइवेट मंडी के आने से सरकारी मंडी समाप्त हो जाएगी और एमएसपी भी नहीं मिलेगी। बिहार राज्य में इस तरह के हालात देखे जा चुके हैं, जब 2006 में सरकारी मंडियों को समाप्त करने के बाद अधिकांश फसलों के लिए किसानों को एमएसपी की तुलना में औसतन कम कीमत प्राप्त हुई। इसीलिए किसान एमएसपी (न्यूनतम समर्थन मूल्य) की स्पष्ट कानूनी गारंटी चाहते हैं। यानी सरकार एमएसपी के रेट पर खरीदी के लिए कानून बनाये।
सम्भव है एमएसपी को सरकारी गारंटी बनाना
किसानों का कहना है कि एमएसपी को कानूनी गारंटी बनाने का मतलब यह नहीं कि सरकार सभी चीज़ों को खरीदेगी। इससे देश का नुकसान हो जाएगा। एमएसपी को कानूनी गारंटी बनाने के लिए किसान संगठनों ने बाकायदा ड्राफ्ट तैयार किया है और कर्नाटक सरकार ने भी इस तरह का कानून बनाया है। केंद्र सरकार चाहे, तो इसे लागू कर सकती है।
इस ड्राफ्ट में एमएसपी को कानूनी गारंटी बनाने के लिए किसान संगठनों ने सरकार को चार सुझाव दिये हैं। सरकार आज जितनी खरीद कर रही है, उससे थोड़ी ज़्यादा खरीद कर सकती है; क्योंकि पीडीएस में गेहूँ, चावल के अलावा दाल, तेल, चीनी इत्यादि भी दे सकती है। यानी सरकार दलहन, सरसों, गन्ना इत्यादि की खरीद कर सकती है। इस तरह से सरकार अपनी खरीद को थोड़ा और बढ़ाये। उपज का दाम बाज़ार में कम होने पर सरकार बाज़ार में हस्तक्षेप करके दाम को स्थिर कर सकती है। यानी किसी फसल का दाम उसकी एमएसपी से कम हो गया है, तो सरकार उसकी लिमिटेड खरीद कर सकती है; ताकि उस फसल का दाम ऊपर चढ़ जाए। सरकार कानून बनाकर यह भी कह सकती है कि किसी के भी द्वारा एमएसपी से नीचे खरीद करना गैर-कानूनी है। सरकार डिफरेंसियल पेमेंट (खरीद में अन्तर वाला भुगतान ) कर सकती है। इसका मतलब यह है कि अगर किसान को उसकी उपज का एमएसपी रेट नहीं मिलता है, तो सरकार किसान के घाटे की भरपाई करे। यानी किसी किसान को अपनी उपज बेचने में एमएसपी से जितना कम मूल्य प्राप्त हो, तो शेष मूल्य (रकम) की भरपाई सरकार करे। मध्य प्रदेश में ऐसी योजना लागू हुई थी, जिसे भावांतर भुगतान योजना के नाम से जानते हैं।
मध्य प्रदेश में भावांतर का खेल
मध्य प्रदेश सरकार ने 14 अनाजों को एमएसपी के तहत घोषित कर एमएसपी से कम पर खरीदी की अनुमति दी और किसानों के साथ छलावा करते हुए भावांतर का खेल खेला।
विधानसभा में मध्य प्रदेश सरकार ने प्रश्न क्रमांक-841, फरवरी-मार्च, 2018 सत्र में भावांतर योजना से सम्बन्धित जानकारी देते हुए बताया था कि खरीफ 2017 के लिए भावांतर भुगतान योजनांतर्गत दिनाँक 20-2-2018 की स्थिति में 9 लाख 54 हज़ार 281 किसानों को 13 अरब 16 करोड़ 57 लाख 37 हज़ार 762 रुपये का भुगतान किया गया तथा एक लाख 26 हज़ार 278 किसानों को लगभग दो अरब 12 करोड़ 21 लाख 33 हज़ार 871 रुपये का भुगतान किया जाना शेष है। मंडी बोर्ड स्तर पर किये गये आकलन अनुसार, खरीफ 2017 के भावांतर भुगतान योजना अंतर्गत भावांतर राशि के लिए वित्तीय वर्ष 2017-18 में 1651.31 करोड़ रुपये तथा वित्तिय वर्ष 2018-19 में 100 करोड़ रुपये का व्यय होना सम्भावित है।
मध्य प्रदेश सरकार ने एमएसपी घोषित किया, उस पर बोनस भी घोषित किया; लेकिन मंडियों में किसानों से बहुत ही कम दाम पर उपज खरीदे जाने की अनुमति भी राज्य सरकार ने दे दी और इससे किसानों को हो रहे नुकसान की भारपाई के नाम पर भावांतर योजना बताकर किसानों को शासकीय खजाने से भुगतान करना भी बता दिया। राज्य सरकार के इस पूरे खेल में किसानों को ज़बरदस्त हानि पहुँचायी गयी। किसानों को न्यूनतम समर्थन मूल्य से बहुत ही कम मूल्य का भुगतान अन्तर की राशि यानी भावांतर योजना के तहत किया। (चार्ट देखें) किसानों को सरकार एमएसपी और उस पर स्वयं के द्वारा घोषित बोनस की राशि के बराबर भुगतान नहीं कर पायी, राज्य सरकार ने भावांतर के नाम पर किसानों को एमएसपी एवं बोनस से कम राशि का ही भुगतान किया।
इस प्रकार राज्य सरकार ने वर्ष 2017-18 में किसानों का अनाज मंडियों में ही एमएसपी से कम मूल्य पर खरीदी की व्यापारियों को इजाज़त दे दी जिसके बाद किसानों से लूट का सिलसिला चला। इस सिलसिले के बीच सरकार ने भावांतर मूल्य की घोषणा कर किसानों को राहत के नाम पर सरकारी खजाने से भुगतान तो किया; लेकिन किसानों को एमएसपी रेट देने के बजाय एमएसपी से कम राशि का भुगतान कर किसानों की लूट को कानून सम्मत बताये जाने की लगातार हठधर्मिता अपनायी। तो दूसरी ओर कांग्रेस पार्टी ने मध्य प्रदेश सरकार की घेराबंदी कर भावांतर योजना को किसानों की लूट बताकर सरकारी खजाने की बरबादी बताया। कांग्रेस पार्टी ने भावांतर योजना से सम्बन्धित यह भी गम्भीर आरोप लगाया कि सरकार ने किसानों के नाम पर बिचौलियों से अनाज खरीद कर बिचौलियों को ही भावांतर राशि का भुगतान किया है। इस तरह के नाम मात्र के बिचौलियों के विरुद्ध ही आपराधिक प्रकरण पंजीबद्ध किया गया।
केंद्र के कानून से मध्य प्रदेश के किसानों को नहीं राहत
मध्य प्रदेश में सरकार द्वारा घोषित एमएसपी से कम मूल्य पर किसानों की उपज कृषि मंडियों में क्रय-विक्रय की गयी, जिस पर राज्य सरकार में मरहम लगाते हुए भावांतर का किसानों को भुगतान किया, लेकिन चुनाव के साथ ही भावांतर की योजना बन्द कर दी गयी एवं किसानों को कम मूल्य पर अपनी उपज बेचने के लिए बाध्य किया। मध्य प्रदेश के किसान इस लूट से पीडि़त रहे हैं। इस लूट का शिकार किसान नहीं होगा, इसकी कोई गारंटी देश की संसद द्वारा पारित उपरोक्त कृषि कानूनों में किसान को नहीं दी गयी है।
मध्य प्रदेश कृषि उपज मंडी अधिनियम-1972 की धारा-36 में न्यूनतम समर्थन मूल्य पर खरीदी के सम्बन्ध में बहुत ही स्पष्ट प्रावधान दिये गये हैं, जिनका भी पालन मध्य प्रदेश सरकार ने कभी सुनिश्चित नहीं किया; बल्कि कम मूल्य पर की गयी खरीदी के बदले भावांतर का भुगतान किया। केंद्र सरकार द्वारा लाये गये मौज़ूदा कृषि कानूनों में मध्य प्रदेश मंडी अधिनियम-1972 की धारा-36 की तरह एमएसपी रेट पर खरीद किये जाने के प्रावधान नहीं किये गये हैं और न ही कम मूल्य पर खरीदी करने वाले दावों के विरुद्ध मंडी अधिनियम-1972 की तरह कार्यवाही किये जाने के प्रावधान किये गये।
क्या हो केंद्र सरकार की पहल
मज़बूत संस्थागत व्यवस्था के बिना मुक्त बाज़ार से लाखों असंगठित छोटे किसानों को लाखों का नुकसान हो सकता है, जो उल्लेखनीय रूप से उत्पादक हैं और जिन्होंने महामारी के दौरान भी अर्थ-व्यवस्था को सहारा दिया है। अत: केंद्र सरकार को किसानों सहित विधेयकों का विरोध करने वालों तक पहुँचना चाहिए और उनकी सुधार की आवश्यकता समझते हुए उन्हें विश्वास में लेना चाहिए। एमएसपी को सरकारी गारंटी बनाने के बारे में भी सरकार को विचार करना चाहिए। साथ ही सरकार को बड़े पैमाने पर सरकारी कृषि मंडी (एपीएमसी) प्रणाली के विस्तार के लिए फंड देना चाहिए और भारी केंद्रीकरण का विरोध करने के बजाय राष्ट्रीय किसान आयोग द्वारा अनुशंसित राज्य किसान आयोगों के माध्यम से किसानों को सशक्त बनाने पर ज़ोर देना चाहिए।