मेरा खेत चूहे खा जाते थे। फसल बर्बाद कर रहे थे। इसलिए मैंने खेत ही बेच दिया, अब भूखे मरेंगे सारे…! तो क्या इस सोच मात्र से किसानों का भला हो सकता है? मेरा मानना है कि नहीं हो सकता। क्योंकि मात्र 70 साल में ही बाज़ी पलटती दिख रही है और हम जहाँ से चले थे वापस उसी जगह पहुँचते दिख रहे हैं। फर्क सिर्फ इतना है कि पहुँचने का रास्ता दूसरा चुना गया है। अत: इसके परिणाम भी अधिक गम्भीर होंगे। ऐसा प्रतीत होता है, 1947 में जब देश आज़ाद हुआ, तो नयी-नवेली सरकार और उसके सिपहसालार देश की तमाम रियासतों को आज़ाद भारत का हिस्सा बनाने के लिए अति उत्साहित और छटपटाहट में थे। सर्वविदित है कि तकरीबन 562 रियासतों को भारत में मिलाने के लिए साम-दाम-दण्ड-भेद की नीति अपनाकर अपनी कोशिश जारी रखे हुए थे। क्योंकि देश की अधिकाधिक सम्पत्ति इन्हीं रियासतों के पास थी। हालाँकि कुछ रियासतों ने नाक-भौंह भी सिकोड़े और तमाम नखरे भी दिखाये, मगर कूटनीति और रणनीति से इन्हें आज़ाद भारत का हिस्सा बनाकर भारत के नाम से एक स्वतंत्र लोकतंत्र की स्थापना की गयी। नतीजतन देश की सारी सम्पदा सिमट कर गणतांत्रिक पद्धति वाले सम्प्रभुता प्राप्त भारत के पास आ गयी। उसके बाद धीरे-धीरे रेलों, बैंकों और कारखानों आदि का राष्ट्रीयकरण किया गया और एक शक्तिशाली भारत का निर्माण हुआ। आज मात्र 70 साल बाद समय और विचार ने करवट ली और फासीवादी ताकतें पूँजीवादी व्यवस्था के कन्धे पर सवार हो राजनीतिक परिवर्तन पर उतारू है।
तो क्या मान लिया जाए कि यह राजनीति देश को लाभ और मुनाफे की विशुद्ध वैचारिक सोच के साथ देश को फिर 1947 के पीछे ले जाना चाहती है। यानी राष्ट्र की सम्पत्ति पुन: रियासतों के पास चली जायेगी और नए रजवाड़े होंगे कुछ पूँजीपति घराने और कुछ बड़े राजनेता। किसानों से उनके संसाधन छीनने की प्रक्रिया को व्यवस्थागत ढंग से निजीकरण के नाम पर आगे बढ़ाया जा रहा है? आज़ादी के पहले और आज़ादी के बाद किसानों के हक-हुकूक का प्रतिनिधित्व करने में अग्रणी रहने वाली जाट जाति आज नेपथ्य में जा चुकी है।
जानकारों का मानना है कि किसान जातियों की एकता को पहले आरक्षण के नाम पर बाँटा और तोड़ दिया गया; फलस्वरूप वो आपस में ही उलझने लगी हैं। जैसा कि आपने जाट आरक्षण आन्दोलन, गुर्जर, कापू, पटेल एवं मराठा समाज आरक्षण अठन्दोलन आदि के समय देखा होगा। इसके अलावा इसका सबसे बड़ा कारण एक विशेष समाज के लोगों को किसानों के मसीहाई परिवारों के पीछे चलने की आदत इस कदर हो चुकी है कि हरियाणा में दीनबन्धु सर छोटूराम की विरासत को सँभालने वाले उनके वंशज आज उस विचारधारा को मानने वाले राजनीतिक दल के साथ हैं, जिसका दीनबन्धु छोटूराम ताउम्र विरोध करते रहे। ऐसा ही हाल उत्तर प्रदेश में किसानों के मसीहा कहे जाने वाले देश के पूर्व प्रधानमंत्री चौधरी चरण सिंह के वंशज से कुछ उम्मीद बँधी थी कि चौधरी चरण सिंह की क्षीण होती विरासत को बढ़ाने और सँभालने का काम उनके वंशजों की भरपूर कोशिश के बावजूद वें राजनीतिक पैतरबाज़ी में उलझकर रह गये। रही सही कसर 2013 के दंगों ने पूरी कर दी; जिसमें उनके दल को सर्वाधिक नुकसान झेलना पड़ा।
नतीजा ये हुआ कि दल की एक मात्र पारम्परिक सीट छपरौली पर जीतने के बाबजूद कब्ज़ा बरकरार नहीं रख पाये। कभी किसानों का सबसे बड़ा राजनीतिक दल पश्चिमी उत्तर प्रदेश के चन्द ज़िलों तक सिमटने बाद आज जाट समुदाय और किसानों से दूर हो गया है। आज की तमाम समस्याओं जैसे गन्ने का भुगतान, महँगाई, डीज़ल में लगी हुई आग पर किसानों के लोकप्रिय रहे इस दल को उचित विचार और आत्ममंथन करने की आवश्यकता है।
इतिहास गवाह है कि हरियाणा की सियासत में करीब चार दशक तक किसानी की बात करने वाले चौधरी देवीलाल, चौधरी बंसीलाल और चौधरी भजनलाल के इर्द-गिर्द ही सिमटी रही है। हरियाणा के ये तीनों लाल प्रदेश की सत्ता के सिंहासन पर काबिज़ होने के साथ-साथ राष्ट्रीय राजनीति के भी बड़े चेहरे रहे। लेकिन दुर्भाग्य देखिए, हरियाणा के मौज़ूदा राजनीतिक माहौल में तीनों लालों के उत्तराधिकारियों अपना सियासी वजूद बचाये रखने के लिए लाले पड़े हुए हैं। ज़ाहिर है कि इन तीनों लालों के नाम से हरियाणा की पहचान होती रही है। हालाँकि हरियाणा की राजनीति के चाणक्य माने जाने वाले तीनों लाल तो अब दुनिया में नहीं रहे; लेकिन इनके वारिस अपने-अपने घरानों की राजनीति को कायम रखने के लिए आपसी कलह और जद्दोजहद में फँसे हुए हैं।
हरियाणा में आज़ादी के बाद के सबसे बड़े किसान नेता और जगत ताऊ कहलाये जाने वाले चौधरी देवीलाल के पड़पौते दुष्यंत चौटाला, जो ताऊ देवीलाल की पार्टी को दो दलों में बाँटकर चुनाव में जीत हासिल करने के बाद में देवीलाल जिस राजनीतिक दल की विचारधारा के विरुद्ध रहे; उसी सत्ताधारी दल के साथ चले गये। जिसके विरुद्ध वह चुनाव लडक़र जीतकर आये, उसी के साथ चले जाना ही आज उनकी राजनीतिक रणनीति है। हालाँकि उनके कुछ हितेषियों को उनका पार्टी के सिद्धांतों और मूल आधार को दरकिनार कर सत्ता की चाशनी में लिपटना कदापि उचित प्रतीत नहीं होता। हालाँकि दूसरी ओर दुष्यंत चौटाला के पक्षकारों को उसमें रणनीतिकार नज़र आता है। उनके मुताबिक दुष्यंत का यह फैसला एक सोची-समझी रणनीति का ही एक हिस्सा है; जो आने वाले समय में उनके राजनीतिक जनाधार और उनके राजनीतिक कद को बढ़ाने के लिए उचित कदम साबित होगा।
हरियाणा के निर्माता, विकास पुरुष, इंदिरा गाँधी के करीबी और हरियाणा के पूर्व मुख्यमंत्री रहे चौधरी बंसीलाल की पुत्रवधु किरण चौधरी और उनकी पुत्री श्रुति चौधरी आज उनकी विरासत को सँभालने के लिए जद्दोजहद कर रही हैं; परन्तु वह अपने निजी स्वार्थों के चलते इतने बड़े राजनीतिक परिवार की राजनीतिक विरासत को सँभाल नहीं सकीं। उन्होंने विरासत को आगे बढ़ाने में कोई कोर कसर नहीं छोड़ी। लेकिन आज बंसीलाल की विरासत केवल भिवानी तक सिमट कर रह गयी है। हालाँकि कई लोग दबी ज़ुबान में यहाँ तक कह रहे हैं कि भिवानी को पिछड़ेपन की ओर जाने का कारण माँ-बेटी का स्थानीय लोगों से सम्पर्क नहीं होना है।
केंद्रीय कृषि मंत्री और तीन बार हरियाणा के मुख्यमंत्री रहे चौधरी भजनलाल और उनके लाडलों की कहानी किसी से छुपी हुई नहीं है कि किस प्रकार उन्होंने भजनलाल की राजनीतिक विरासत को तहस-नहस करने का काम किया। हालाँकि इसका ज़िम्मेदार उनके बड़े पुत्र चंद्र मोहन को अधिक माना जाता है, जो एक महिला के चक्कर में पडक़र चाँद मियाँ तक बन गये थे; जबकि चंद्रमोहन पिता की विरासत के कारण हरियाणा के डिप्टी सीएम भी रह चुके हैं। आज भजनलाल की राजनीतिक विरासत कुलदीप बिश्नोई सँभाल रहे हैं; जो सिमटकर दो विधानसभा क्षेत्र तक रह गयी है। कुलदीप बिश्नोई अपने पिता भजनलाल की सीट आदमपुर से मौज़ूदा विधायक हैं और उनकी पत्नी रेणुका बिश्नोई हांसी से विधायक हैं। अन्त में इसी कड़ी में स्वतन्त्रता सेनानी और भारतीय राष्ट्रीय कांग्रेस के वरिष्ठतम सदस्य रणबीर सिंह हुड्डा के पुत्र एवं दो बार हरियाणा के मुख्यमंत्री रहे भुपेन्द्र सिंह हुड्डा ने दी हुई पिता की विरासत को न केवल सँभाला, बल्कि उसका विस्तार करने में भी वह कामयाब रहे। लेकिन पिछले कुछ साल में राजनीतिक घटनाक्रम ऐसे बने कि हरियाणा की सियासत में बड़े बदलाव हुए। आज वह भी बैकफुट पर दिखायी पड़ते हैं। उनके क्षेत्र के कई लोग उन पर अपने बेटे दीपेन्द्र हुड्डा को प्रमोट करने का आरोप भी लगाते हैं। उनके विधानसभा क्षेत्र के रामवीर सांगवान आरोप लगाते हुए बताते हैं कि इन्होंने स्वामिनाथन आयोग की रिपोर्ट को लागू करने हेतु गठित समिति का सदस्य होने के बावजूद समाज या किसानों को कोई विशेष लाभ पहुँचाने की ज़हमत नहीं उठायी।
राजस्थान में भी स्वतंत्रता आंदोलन के साथ उभरे किसान नेताओं की तिकड़ी बलदेवराम मिर्धा, परसराम मदेरणा और कुम्भाराम आर्य ने शुरुआत में किसान राजनीति को आगे बढ़ाते हुए किसानों के हित में बहुत-से कानून पारित करवाये व नीतिगत फैसले बिना इनकी सहमति से नहीं हो पाते थे। सामाजिक कुरीतियों, अशिक्षा से लेकर रजवाड़ी सामंतवाद से आमजन को मुक्ति दिलवाने में अहम योगदान दिया। नाथूराम मिर्धा सीनियर थे; मगर जूनियर बलदेवराम मिर्धा को मंत्री बनाकर पहला संदेश किसान नेताओं को दिया गया था कि कांग्रेस सरकार में कद नहीं, बल्कि यह देखा जाएगा कि किसको मुख्यमंत्री की कुर्सी से कैसे दूर किया जाएगा। हालाँकि बाद में कुम्भाराम आर्य के साथ भी यही किया गया और 1998 में परसराम मदेरणा के साथ भी दोहराया गया।
परसराम मदेरणा का 80 के दशक बाद कद इतना बड़ा था कि वह सात-सात मंत्रालय सँभालते थे। मतलब मुख्यमंत्री भले ही न हो मगर ताकत मुख्यमंत्री से कम नहीं थी। परसराम मदेरणा के जीते जी उनके पुत्र महिपाल मदेरणा विधायक चुने गये और जल संसाधन मंत्री भी बने। तत्कालीन मुख्यमंत्री अशोक गहलोत मंत्रिमंडल में एकमात्र मंत्री थे; जो हर फैसला अपनी मर्जी से लेते थे और उन्हें कैबिनेट का समर्थन मिलता था। जबकि एक सेक्स स्कैंडल और हत्या के आरोपों के बाद इस्तीफा देना पड़ा। उन्हें सीबीआई जाँच का सामना करना पड़ा और आज जेल में हैं। परसराम मदेरणा की पोती सुश्री दिव्या मदेरणा फिलहाल ओसियां से विधायक है। कुम्भाराम आर्य की विरासत परिवार की आपसी खींचतान में ही फँसी रह गयी। मिर्धा परिवार में नाथूराम मिर्धा व रामनिवास मिर्धा तक केंद्रीय राजनीति में दमखम रखते थे। मगर रामनिवास मिर्धा के देहांत के बाद केंद्रीय राजनीति में नाथूराम मिर्धा की पोती, जिसका विवाह हरियाणा के उद्योगपत्ति से हुआ; एक बार सांसद भी चुनी गयी थी। मगर लगातार दो हार के बाद खालीपन ही नज़र आ रहा है। स्थानीय लोगों का यह भी आरोप है कि ज्योति मिर्धा जीतने के बाद क्षेत्र में सक्रिय रहने के बजाय दिल्ली में जाकर बैठ जाती है। राज्य की राजनीति में हरेंद्र मिर्धा ने जद्दोजहद की मगर खुद को स्थापित नहीं कर पाये। कुछ समय तक किसान राजनीति का नेतृत्व शीशराम ओला ने सँभालने का प्रयास किया था। उसके बाद तो धीरे-धीरे किसान राजनीति अवसान की तरफ बढ़ती गयी। जो पहली पंक्ति के किसान नेताओं ने संघर्ष किया उस तरह का संघर्ष उनके परिवार के लोग नहीं कर पायें और जो नये तैयार हुए, वे विचारहीन और दिशाहीन राजनीति कर रहे हैं। कुल मिलाकर मसीहाई परिवारों व नये दिशाहीन नेताओं के बीच किसान राजनीति दम तोड़ती नज़र आ रही है।
बहरहाल इस देश में अब मुफ्त इलाज के खैराती अस्पताल, धर्मशाला या प्याऊ आदि नहीं बनने वाले जैसा कि रियासतों के दौर में होता था। ये तो हर कदम पर अपना कारोबार करने वाले काले अंग्रेज साबित होंगे और ये तथाकथित मसीहाई परिवार इनके मुखौटे मात्र। अन्त में यही कहना चाहूँगा कि किसान-कमेरे जितनी जल्दी इन मसीहाई परिवारों के विषय में उचित फैसला लेंगे, उतनी जल्दी ही अपने संसाधनों का कब्ज़ा अपने पास रख पाएँगे। अत: आज ज़रूरत है किसान समाज को चौधरी चरणसिंह, विश्वनाथ प्रताप सिंह, देवीलाल, कर्पूरी ठाकुर, जयप्रकाश नारायण और राम मनोहर सरीखे जननेताओं की जो पुन: आम देशवासियों के मन में मेरी माटी और मेरा वतन की वही पुरानी स्वाभिमान की अलख जला दें। यह निश्चित है कि इन महापुरुषों और जननेताओं के समरूप विकल्प का आविर्भाव आम लोगों के बीच से ही होगा और यह दिख भी रहा है कि आज आम जनता विशेषत: किसान समाज ऐसे मसीहा या नेता की तलाश में टकटकी लगाये हुए है। इतिहास गवाह है, जब भी देश में किंकर्तव्यविमूढ़ की असहाय स्थिति बनी है। तब-तब धरती से जुड़े मसीहा का आम लोगों के बीच से ही उदय हुआ है। लोकतंत्र में सत्ता संतुलन और देशहित के लिए कदाचित यह ज़रूरी भी है कि गाँव और किसानों के देश में ग्रामीण जनता की भावनाएँ और उपस्थिति साधु-सन्तों एवं विद्वानों की प्राचीन भूमि पर अपना वजूद बनाये रखें।
(लेखक दैनिक भास्कर के राजनीतिक सम्पादक है।)