देश भर के एक लाख से ज्य़ादा किसान 29 नवंबर 2018 को दिल्ली पहुंचे। धीरे-धीरे ये किसान राजधानी के रामलीला मैदान में इकट्ठा होने लगे।
इस बार का यह आंदोलन कुछ अलग रहा। ऐसा शायद पहली बार हुआ कि आंदोलन में मध्यवर्ग के लोगों, गैर कृषकों और छात्रों ने पूरे जोश और भारी गिनती में हिस्सा लिया। इस रैली का आह्वान अखिल भारतीय किसान समन्वथ संघर्ष समिति (एआईएकेएसएस) ने किया था। इस संघर्ष समिति से 2008 किसान संगठन जुड़े हैं। किसानों की मांग है कि उनकी मांगों पर विचार के लिए संसद का तीन हफ्ते का विशेष सत्र बुलाया जाए। इस सत्र में कृषि संकट और इसके मुद्दों पर बात हो। स्वामीनाथन आयोग पर बहस हो और खेती के भविष्य पर बात हो।
क्या कहता है स्वामीनाथन आयोग?
देश में हरित क्रांति के जनक प्रोफेसर एमएस स्वामीनाथन जेनेटिक वैज्ञानिक हैं। यूपीए की सरकार ने किसानों की स्थिति का जायजा लेने के लिए 2004 में एक आयोग का गठन किया था, जो स्वामीनाथन आयोग के नाम से जाना जाता है। इस आयोग ने किसानों के हालात को सुधारने के लिए 2006 में कुछ सिफारिशों की थी जिन पर आज तक अमल नहीं हुआ है। इन सिफारिशों में मुख्य हैं:-
- फसल उत्पादन मूल्य से 50 फीसद ज्य़ादा दाम किसानों को मिले।
- किसानों को अच्छी किस्म के बीज कम दामों में मुहैया कराए जाएं।
- गांवों में किसानों की मदद के लिए विलेज नालेज सेंटर या ज्ञान चौपाल बनाए जाए।
- महिला किसानों के लिए किसान क्रेडिट कार्ड जारी किए जाएं।
- किसानों के लिए कृषि जोखिम फंड बनाया जाए जिससे प्राकृतिक आपदाओं के आने पर किसानों को मदद मिल सके।
- फालतू और इस्तेमाल नहीं हो रही ज़मीन के टुकड़ों का वितरण किया जाए।
- खेतीहर ज़मीन और वनभूमि को गैर-कृषि उद्देश्यों के लिए कॉरपोरेट सैक्टर को न दिया जाए।
- फसल बीमा की सुविधा पूरे देश में हर फसल के लिए मिले।
- खेती के लिए कजऱ् की व्यवस्था हर $गरीब और ज़रूरतमंद तक पहुंचे।
- सरकार की मदद से किसानों को दिए जाने वाले कर्ज पर ब्याज दर कम कर के चार फीसद की जाए।
- कर्ज की वसूली में राहत, प्राकृतिक आपदाओं की सूरत में किसान को मदद पहुंचाने के लिए एक कृषि अनुसंधान जोखिम कोष का गठन किया जाए।
किसान आंदोलन
देश में किसानों की हालत कभी भी अच्छी नहीं रही। आज़ादी से पहले सामंतवादी व्यवस्था में छोटे और मंझोले किसान साहूकारों के चंगुल में फं से रहते थे। इसका मुख्य कारण था ज़मीनी सुधारों का न होना। भारत गांवों का देश माना जाता है। कहा जाता है कि देश में 70 फीसद किसान हैं। इस तरह देखा जाए तो कृषि और किसान देश की अर्थव्यवस्था की रीढ़ की हड्डी हैं।
पूरी अर्थव्यवस्था को प्रभावित करने वाले किसान बहुत $गरीब हैं। हालत यह है कि उनमें से बहुतों को भुखमरी का सामना करना पड़ता है। खेतों में कपास उगाने वाले इन किसानों के शरीर पर तन ढांपने तक का भी कपड़ा नहीं होता। इनके बच्चे पढ़ाई नहीं कर पाते। मकान के नाम पर इनके पास घास-फूंस की झोपड़ी होती है। कृषि मंडी न होने के कारण इन्हें दलालों पर निर्भर रहना पड़ता है।
देश के किसानों की मांग मुफ्त बिजली और पानी की नहीं है। वे चाहते हैं कि उन्हें लगातार बिजली मिलती रहे। उसके लिए वे पैसा भरने को भी तैयार हैं। हरित क्रांति से कई राज्यों में किसानों को काफी मदद मिली थी। देश में आनाज की पैदावार बढ़ी। 1960 की हरित क्रांति ने एक नया दौर ला दिया। 2007 में भारतीय अर्थव्यवस्था के कृषि और इससे जुड़े कार्यों का सकल घरेलू उत्पाद (जीडीपी) में हिस्सा 16.6 फीसद था। 1960 से पहले देश में पारंपरिक बीजों का उपयोग होता था जिनसे कम उपज पैदा होती थी। पर उन्हें पानी की भी कम ज़रूरत पड़ती थी और किसान गाय गोबर की खाद का इस्तेमाल किया करते थे।
1960 के बाद हाई ब्रीड बीज मिलने लगे। इसके साथ ही रासायनिक खाद, कीटनाशक खाद और सिंचाई का इस्तेमाल बढ़ गया। इससे गेहूं और चावल की पैदावार में बहुत बढ़ोतरी हुई। इसी लिए इसे हरित क्रांति की संज्ञा की गई।
यदि अखिल भारतीय किसान सभा की मानें तो जून 2017 से जुलाई 2018 के बीच देश में कजऱ् से दबे 1,753 किसानों ने आत्महत्या की है। प्रश्न यह है कि आखिर किसान इस तरह का कदम उठाने पर मजबूर क्यों है? इस सवाल का जवाब सीधा है। सरकारी आंकड़ों के अनुसार देश के 52 फीसद किसान परिवार कजऱ् में डूबे हैं। कृषि के लिए मेहनत, ज़मीन, निवेश, सब्र, हौसला और खेती का ज्ञान होना ज़रूरी है। मतलब यह कि कृषक में हर प्रकार की योग्यता चाहिए। नेशनल सैंपल सर्वे (एनएसएस) ने 2013 में जो आंकड़े इकत्रित किए हैं, उनसे पता चलता है कि देश में किसान परिवारों की औसतन मासिक आमदनी लगभग 5000 रु पए है।
आंकड़ों के अनुसार 80 फीसद कृषि भूमि छोटे और सीमांत किसानों के पास है। इनमें से हर एक के नाम एक से दो हैक्टर या इससे भी कम ज़मीन है। 68 फीसद ज़मीनों ऐसी है जिन पर आपदा का खतरा हमेशा बना रहता है। मौसम का खराब होना या बेमौसमी बरसात या सूखा इन किसानों पर भारी मार मारता है। किसान को यह भी अनुमान नहीं होता कि जितना निवेश वह कर रहा है उतना पैसा उसे वापिस भी मिलेगा या नहीं। इसके साथ ही सरकार की नीतियां पूरी तरह किसान विरोधी कही जा सकती हैं।
महाराष्ट्र व राजस्थान में किसान आंदोलन
इस साल मार्च में ओडीशा और महाराष्ट्र के 50,000 से ज्य़ादा किसानों ने इकट्ठे हो कर 180 किलोमीटर से भी ज्य़ादा लंबा मार्च किया। इसका मकसद था सरकार और प्रशासन का ध्यान अपनी लंबे समय से लटकी पड़ी मांगों की ओर खिंचना। वामपंथी दलों के नेतृत्व में चले इस मार्च में ज़ोरदार अनुशासन देखने को मिला। एक ओर बामी दलों के छोटे-छोटे जुलूसों में भी तोड़-फोड़, आगजनी हो जाती है, वहीं वामपंथी दलों के इस मार्च में यह तक ध्यान रखा गया कि उनके मार्च से किसी आम नागरिक को कोई असुविधा नहीं हो। उनका मार्च उस समय शुरू होता था जब भीड़-भाड़ का समय न हो। उन्होंने छात्रों की परीक्षाओं को ध्यान में रखते हुए अपना आंदोलन इस प्रकार जारी रखा। जिससे छात्रों को कोई असुविधा न हो। मुंबई की जनता ने इसका भरपूर ईनाम उन्हें इनका स्वागत कर और उनके लिए पानी और भोजन की व्यवस्था करके दिया। इन किसानों ने निश्चित ही आम आदमी का मन मोह लिया।
कमोवेश ऐसी की स्थिति राजस्थान के किसान आंदोलन की रही। वहां भी किसान पूरी तरह शांत और अनुशासित रहे। राजस्थान में भी किसान आंदोलन मुख्य रूप में वामपंथी संगठनों के हाथ में था। वहां हज़ारों किसानों ने कई दिनों तक सड़कों पर मार्च किया और विधानसभा को घेरा, पर कही कई हिंसा या तोड़ फोड़ की घटना नहीं हुई। अखिल भारतीय किसान सभा के नेता व पूर्व विधायक अमराराम के नेतृत्व मे किसानों ने ज़ोरदार आंंदोलन चलाया। इसका प्रभाव ऐसा था कि छोटे दुकानदार, व्यापारी और निजी अदारों में काम करने वाले लोगों के अलावा और भी कई लोग इस आंदोलन का हिस्सा बन गए।
हर साल करते है 12,000 किसान आत्महत्या
केंद्र सरकार ने पिछले साल सुप्रीमकोर्ट में दिए बयान में बताया कि देश में हर साल लगभग 12,000 किसान आत्महत्या करते हैं। ये आंकडे 2013 से लेकर दिए गए थे। इस दौरान सरकार के वकील ने बताया कि वह कम आय वाले किसानों की आमदनी को बढ़ाने की कोशिश कर रही है। असल मेें बहुत से किसान $गरीबी की रेखा से नीचे रह रहे हैं। उनकी आय बढ़ाए बिना किसानों की आत्महत्यायों को रोका नहीं जा सकता। इसको देखते हुए सरकार ने 2022 तक किसानों की आमदनी दुगनी करने की योजना बनाई है।
केंद्र सरकार ने कृषि क्षेत्र में आत्महत्या के आंकड़े पेश किए और साथ ही उनकी तुलना बाकी क्षेत्रों में होने वाली आत्महत्याओं के साथ की। अदालत को बताया गया कि 2015 में कृषि क्षेत्र में 12,602 लोगों ने आत्महत्या की। इनमें 8,007 किसान और 4,595 कृषि मजदूर थे। यह देश में होने वाली 1,33,623 आत्महत्याओं का 9.4 फीसद है।
सबसे ज्य़ादा आत्महत्याएं 4,291 महाराष्ट्र में, 1,569 कर्नाटक में, 1410 तेलंगाना में, 1290 मध्यप्रदेश में, 954 छत्तीसगढ़ में, 916 आंध्रप्रदेश में और 606 तमिलनाडु में हुई। कुल आत्महत्याओं में से 87.5 फीसद इन सात राज्यों में हुई हैं। इस प्रकार 12,602 कुल आत्महत्याओं में से 11,026 इन राज्यों में हुई। यदि 2014 के आंकड़ों को देखें तो कुल 12,360 किसानों ने अपनी जान दी थी। इनमें 5,650 किसान और 6,710 खेत मज़दूर थे।
एक समय हरित क्रांति में अग्रणी रहा पंजाब भी धीरे-धीरे इस पकड़ में आ रहा है। 1995 से 2015 के 20 सालों में यहां 4,687 किसानों ने आत्महत्या की। इनमें से 1334 अकेले मानसा जि़ले से थे।
बीमा कंपनियोंकी चांदी
केंद्र सरकार ने प्रधानमंत्री की फसल बीमा योजना की शुरूआत कर यह प्रभाव डाला कि किसी भी किसान की फसल यदि खराब हो जाती है तो बीमा से उसकी भरपाई की जा सकेगी। यह योजना जनवरी 2016 में लागू की गई है। इसमें केवल ज़मीन के मालिक ही नहीं अपितु वे लोग भी रखे गए जो भाड़े पर ज़मीन ले कर काश्त करते हैं।
इस योजना के तहत बीमा का प्रीमियम बहुत कम होता है। इसमें खरीफ की फसल के लिए दो फीसद और रवी की फसल के लिए 1.5 फीसद और वाणिज्यिक फसलों के लिए 5 फीसद प्रीमियम देना होता है।
इसमें अच्छी बारिश न होने या समय पर न होने की स्थिति में या बोए हुए बीज अच्छे से न उगा पाने वगैरा के कारण हुए नुकसान की भरपाई बीमा की रकम से करने की प्रावधान है। इसके अलावा अगर किसी भी और प्राकृतिक कारण से फसल बरबाद हो जाए तो भी बीमा के तहत उसे पूरी राशि मिलेगी।
पर यदि स्टेट ऑफ इंडियाज़ एनवायरमेंट 2017 की रिपोर्ट पर नज़र डालें जो कि सेंटर फॉर साइंस एंड एनवायरमेंट और ‘डाउन टू अर्थ’ पत्रिका ने जारी की है तो पता चलता है कि इस बीमा योजना का लाभ बीमा कंपनियों को ज्य़ादा और किसानों को कम हुआ है। फसल बीमा की दो बड़ी योजनाएं चलाई गई। इनके तहत 2019 तक कृषि भूमि का 50 फीसद क्षेत्र आ जाना है। अभी तक 30 फीसद क्षेत्र कवर किया गया है। यह 21 राज्यों में है। 2016 की खरीफ की फसल के दौरान 390 लाख किसान इसके तहत आए थे। आज 10 बीमा कंपनियां किसान बीमा क्षेत्र में है। इन कंपनियों ने 2016 की खरीफ फसल के दौरान 9,041.25 करोड़ रु पए का प्रीमियम इकट्ठा किया और उसका केवल 25 फीसद पानी 570.10 करोड़ रु पए के ‘क्लेम’ दिए। जबकि कुल ‘क्लेम’ 2,324.01 करोड़ के थे।
इस हिसाब से बीमा कंपनियों ने कुल ‘क्लेम’ का मात्र 17 फीसद ही किसानों को दिया। यह जानकारी भारत के कृषि एवं किसान कल्याण मंत्रालय ने दी है। जिन 10 कंपनियों ने बीमा किया था। उनमें से चार कंपनियों ने तो 75 फीसद बीमा क्लेम दिए ही नहीं। इफ्फको और टोकियो नामक कंपनियां जो केवल तीन राज्यों में काम कर रही हैं ने मार्च 2017 तक केवल 14 फीसद क्लेम ही दिए थे।
2017-18 की खरीफ फसल के दौरान कंपनियों ने 1,694 करोड़ का प्रीमियम इकट्ठा किया और 69.93 करोड़ का क्लेम दिया। एक प्रकार से देखा जाए तो इन कंपनियों को 96 फीसद तक का मुनाफा हुआ।