बाबा साहब डॉक्टर भीमराव अंबेडकर के बाद मान्यवर कांशीराम इकलौते ऐसे नेता हुए हैं, जिन्होंने दलितों के लिए जीवन लगा दिया। कांशीराम ने तो न सिर्फ़ दलितों के लिए, बल्कि पिछड़ों के लिए भी एक लम्बा संघर्ष किया और अपने लिए एक कमरे तक का घर नहीं बनाया, न ही परिवार वालों के लिए कभी कुछ किया। पूरे देश के दलितों और पिछड़ों के उत्थान के लिए बहुजन समाज की पताका लिए वह जब घर से निकले, तो उन्होंने कभी पीछे मुडक़र नहीं देखा। आख़िरकार उत्तर प्रदेश में वह सबसे ज़्यादा मज़बूती में दिखे और मायावती को आगे कर बहुजन समाज पार्टी यानी बसपा की सरकार बनाने में कामयाब भी रहे। मायावती इस दौर में इस क़दर उभरीं कि वह चार बार उत्तर प्रदेश की मुख्यमंत्री बनीं। यह वो दौर था, जब बसपा न सिर्फ़ उत्तर प्रदेश में, बल्कि दिल्ली, हरियाणा, राजस्थान, पंजाब और बिहार की तरफ़ भी बढ़ी। लेकिन इन राज्यों में राजनीतिक दख़ल के बावजूद कोई ख़ास मुकाम हासिल नहीं कर सकी।
बता दें कि आज़ाद भारत में अंबेडकर ने साल 1956 में रिपब्लिकन पार्टी ऑफ इंडिया की स्थापना की थी। इस पार्टी ने साठ के दशक में महाराष्ट्र, दिल्ली और उत्तर भारत में अपना मज़बूत जनाधार बनाया था। इस पार्टी के ज़रिये दलित राजनीति का गढ़ महाराष्ट्र में विदर्भ बना और उत्तर प्रदेश में आगरा। हालाँकि अंबेडकर के निधन के बाद इस पार्टी में फूट पड़ गयी। लेकिन बाद में पंजाब में जन्मे कांशीराम ने अंबेडकर के दलित उत्थान मिशन को आगे बढ़ाया, जिसमें उन्होंने दलितों के साथ ही पिछड़ों के हक़ की भी बात की। हालाँकि कांशीराम का सपना था कि बहुजन समाज पार्टी एक मज़बूत और नेशनल पार्टी बनकर उभरे। लेकिन राजनीति में उनके द्वारा लायी गयीं मायावती उनके इस सपने को बहुत दिनों तक जीवित नहीं रख सकीं। हालाँकि जब मायावती राजनीति में चमक रही थीं, तो वह केंद्र में आने और प्रधानमंत्री बनने के सपने ज़रूर देखती रहीं। हालाँकि यह अलग बात है कि उन्होंने बाद में सवर्णों को साथ लेकर भी उत्तर प्रदेश में सरकार बनायी; लेकिन उसके बाद से उनके पैर उत्तर प्रदेश से उखड़ते चले गये और अब तो हाल यह है कि बसपा की नाव तक़रीबन डूबती नज़र आ रही है। इसकी कई वजह हैं। पहली यह कि मायावती की टक्कर का कोई नेता बसपा में दूसरा नहीं है, जो बहुजनों की इस पार्टी का केवल नेतृत्व ही नहीं कर सके, बल्कि बहुजनों को भरोसे में भी ले सके। दूसरी वजह यह है कि मायावती के अब वो तेवर नहीं रह गये हैं, जो 2012 तक रहे हैं। तीसरी यह कि अब वह उम्र के लिहाज़ से शारीरिक स्वास्थ्य से भी जूझ रही हैं। चौथी यह कि बसपा में मायावती के बाद सतीश मिश्र की तूती बोलती है, जिसे दलित और पिछड़ा, दोनों ही वर्ग स्वीकार नहीं करना चाहते। और पाँचवीं व आख़िरी वजह यह है कि अब दलित और पिछड़ों की राजनीति हर पार्टी करने लगी है, चाहे वो कांग्रेस हो, चाहे भाजपा हो, चाहे कोई अन्य क्षेत्रीय दल हो।
ग़ौरतलब है कि अभी कुछ दिन पहले 14 अप्रैल को डॉ. अंबेडकर की 131वीं जयंती मनायी गयी, जिसे हर राजनीतिक दल ने धूमधाम से मनाया। ज़ाहिर है इसमें वो पार्टियाँ भी शामिल रहीं, जो विशुद्ध रूप से सवर्णों की राजनीति करती हैं; क्योंकि अंबेडकर की जयंती और पुण्यतिथि मनाने का सबका एक ही प्रयोजन है कि किसी तरह दलित और पिछड़ा मतदाता (वोटर) उनका पक्का मतदाता हो जाए। कई दल काफ़ी हद तक इसमें सफल भी हुए हैं, जिनमें भाजपा शीर्ष पर है। दिल्ली के मुख्यमंत्री अरविंद केजरीवाल ने भी अंबेडकर कार्ड खेलना शुरू कर दिया है। उन्होंने तो दिल्ली के स्कूल ऑफ एक्सीलेंस का नाम बदलकर अंबेडकर स्कूल ऑफ एक्सीलेंस तक कर दिया है। वहीं मध्य प्रदेश के मुख्यमंत्री शिवराज चौहान ने तो अंबेडकर की जन्मस्थली महू को तीर्थ दर्शन योजना में शामिल करने की घोषणा तक कर डाली। उन्होंने यह भी कहा कि लोग वहाँ मुफ़्त में सफ़र कर सकेंगे। महाराष्ट्र के मुख्यमंत्री उद्धव ठाकरे और एनसीपी प्रमुख शरद पवार ने भी अंबेडकर जयंती पर आयोजित कार्यक्रम में हिस्सा लिया। लेकिन इस मुहिम में प्रधानमंत्री मोदी सबसे आगे हैं, उन्होंने प्रधानमंत्री बनने के बाद से अंबेडकर जयंती हर साल मनायी। पिछले दिनों तो वह संत रविदास जयंती पर अचानक दिल्ली स्थित रविदास मन्दिर पहुँच गये और वहाँ महिलाओं के बीच बैठकर खड़ताल बजाते दिखे। जानकारों का मानना है कि इसका असर उन दिनों चल रहे पाँच राज्यों के चुनावों पर कुछ-न-कुछ तो ज़रूर पड़ा और बसपा का वोट भाजपा को ट्रांसफर हुआ।
वहीं दूसरी ओर बहुजन आन्दोलन से निकली बसपा ने इस बार अंबेडकर जयंती पर बड़े पैमाने पर हर सम्भाग में कार्यक्रम आयोजित किये। इस दौरान लखनऊ स्थित पार्टी कार्यालय में बसपा प्रमुख मायावती ने बड़े तल्ख़ लहज़े में कहा कि जातिवादी सरकारें उपेक्षित वर्ग के नेताओं को अपने समाज का भला करने की छूट नहीं देती हैं। दलितों के लिए यदि कोई कुछ करने का प्रयास करता है, तो उसे भी दूध की मक्खी की तरह निकालकर बाहर कर दिया जाता है।
प्रधानमंत्री मोदी से पहले कांग्रेस ने, ख़ासकर इंदिरा गाँधी ने दलितों को अपने साथ लेने की राजनीति की थी। यह वो दौर था, जब दलितों का अपना कोई नेता केंद्र सरकार में ही नहीं, राज्यों में भी उतने क़द का नहीं था, जो कि उनका प्रतिनिधित्व कर सके। पिछड़ों के तो कई नेता तब तक केंद्र की राजनीति में आ चुके थे; लेकिन अंबेडकर के बाद दलितों का ऐसा कोई नेता केंद्र में नहीं था, जो ईमानदारी से उनके हक़ की लड़ाई लड़ सके। इक्का-दुक्का नेता राज्यों में था भी, तो वो या तो बड़े क़द का नहीं था या अपने स्वार्थों की पूर्ति में लग गया था। ऐसे में दलितों के पास कांग्रेस के अलावा कोई विकल्प नहीं था और स्वाभाविक तौर पर वो कांग्रेस की तरफ़ लम्बे समय तक झुके रहे। लेकिन जैसे ही उन्हें कांशीराम जैसा सच्चा दलित हितैषी नेता मिला उनका कांग्रेस से मोहभंग होने लगा। इतना ही नहीं, कांशीराम ने पिछड़ों का भी ध्यान अपनी ओर खींचा और उनका कांग्रेस से काफ़ी हद तक मोहभंग कराया। अब दलितों की राजनीति में कई पार्टियाँ कूद पड़ी हैं और वो उन्हें अपने ख़ेमे में करने में लगी हैं।
लेकिन सवाल यह है कि क्या ये नेता और इनकी पार्टियाँ दलितों और पिछड़ों को वो सब दे सकेंगे, जो करने का सपना इन वर्गों के लिए बाबा साहब डॉ. अंबेडकर और मान्यवर कांशीराम ने देखा था? यह सवाल इसलिए भी ज़रूरी है कि जब राजनीति की फिसलन भरी ज़मीन पर आने के बाद ख़ुद मायावती, जो कि ख़ुद दलित और पिछड़े वर्ग से हैं, उनका ख़याल नहीं रख सकीं, तो दूसरों से इन वर्गों के लिए क्या उम्मीद की जा सकती है? सवाल यह भी है कि मायावती के बाद क्या दलितों और पिछड़ों को कोई ऐसा नेता मिल सकेगा? जो उनकी समस्याओं के लिए जूझ सके, उनके हक़ उन्हें दिलवा सके? हालाँकि अब तक इस मामले में तक़रीबन सभी दलित नेता फेल ही रहे हैं; लेकिन मायावती से एक दौर में उम्मीद थी कि वह बहुजनों के हक़ दिलवाकर रहेंगी। हालाँकि अब इस तरह की उम्मीद करना व्यर्थ ही है; क्योंकि मायावती अब दलितों के मुद्दों और देश में हो रही राजनीति पर ख़ामोश ज़्यादा रहती हैं। एक और दलित नेता इन दिनों उत्तर प्रदेश में उभरकर सामने आया है और वह हैं चंद्रशेखर आज़ाद ‘रावण’। चंद्रशेखर दलित युवाओं के काफ़ी प्रिय नेता हैं; लेकिन मायावती के क़द को वह न तो छू सके हैं और न भविष्य में इसकी सम्भावना दिखती है। इसकी एक वजह यह है कि चंद्रशेखर राजनीतिक पैंतरेबाज़ी में अभी उतने मंजे हुए खिलाड़ी नहीं हैं, जितनी की मायावती। दूसरी वजह यह है कि चंद्रशेखर की पहचान पूरे प्रदेश में भी अभी नहीं बन सकी है, जबकि मायावती की छवि राष्ट्रीय स्तर की है। लेकिन अब दलित और पिछड़े वोट बैंक पर सबसे ज़्यादा क़ब्ज़ा सत्ताधारी दल भाजपा का है, जो कि प्रधानमंत्री मोदी की वजह से है। यह अलग बात है कि आज की राजनीति में प्रधानमंत्री मोदी का विकल्प ठीक उसी तरह दिखायी नहीं दे रहा है, जिस तरह एक दौर में इंदिरा गाँधी का कोई विकल्प नज़र नहीं आता था।
ख़ैर यह तो राजनीतिक दाँव-पेच की बातें और समय का फेर है। कहा जाता है कि राजनीति में अगले पल क्या होगा? यह भी दावे के साथ नहीं कहा जा सकता। क्योंकि राजनीति में कोई किसी का सगा नहीं होता। हर कोई मौक़े की नज़ाकत देखकर चाल चलता है और उसका फ़ायदा उठाता है। रही बात जातिगत खेल की, तो यह तो राजनीतिक लोगों का बहुत पुराना पैंतरा रहा है। सच तो यह है कि आम लोगों को उन्हीं की जाति के नेता धोखा देते रहते हैं और लोग भी अपनी जाति के नेताओं के नाम की माला जपते रहते हैं। जिस दिन यह बात लोगों की समझ में आ गयी, उस दिन लोग जाति देखकर नहीं, बल्कि ईमानदारी और क़ाबिलियत देखकर अपने प्रतिनिधियों का चुनाव करेंगे। फिर चाहे वे दलित हों, या पिछड़े हों या सवर्ण हों।
(लेखक दैनिक भास्कर के राजनीतिक संपादक हैं।)