उत्तर प्रदेश के विधानसभा चुनाव में कांग्रेस के युवराज राहुल गांधी ने 200 के करीब रैलियां कीं. इनमें से कई में उन्होंने कहा कि हम यहां जीतने नहीं बल्कि बदलाव करने आए हैं. उनके और उनकी मां के संसदीय क्षेत्र अमेठी और रायबरेली की जनता को शायद उनका यह कहना खूब भाया. नतीजा यह रहा कि यहां की दस में से दो सीटें ही कांग्रेस के खाते में आ सकीं. बाकी की सात सीटें समाजवादी पार्टी और एक पीस पार्टी के हिस्से में चली गई. 2007 के विधानसभा चुनाव में दोनों जगहों को मिला कर कांग्रेस के खाते में सात सीटें आई थीं. यानी अपने ही गढ़ में राहुल और सोनिया को इस बार पिछली बार के मुकाबले पांच सीटों का नुकसान उठाना पड़ा.
बात शुरू करते हैं कांग्रेस प्रमुख सोनिया गांधी के लोकसभा क्षेत्र रायबरेली से. यहां की पांच में से चार सीटों – सरेनी, उंचाहार, बछरावां और हरचंदपुर – पर 2007 के चुनाव में कांग्रेस के प्रत्याशी विजयी हुए थे. लेकिन 2012 में कांग्रेस ये चारों जीती हुई सीटें हार गई है. इन सभी सीटों पर कांग्रेस एक साथ क्यों हारी, इसका जो जवाब हारे हुए प्रत्याशी देते हैं उससे लगता है कि कहीं न कहीं कमी नेतृत्व करने वाले शीर्ष नेताओं में ही थी.
हरचंदपुर सीट से कांग्रेस के प्रत्याशी रहे शिव गणेश लोधी, क्यों हारे, यह सवाल सुनते ही बिगड़ जाते हैं. उनके निशाने पर सीधे स्टार प्रचारक प्रियंका गांधी और पार्टी का संगठन आता है. लोधी कहते हैं, ‘पूरे प्रदेश में कांग्रेस की हार का कारण सपा का घोषणा पत्र था जिसमें सरकार बनने पर युवाओं को लैपटॉप, बेरोजगारों को बेरोजगारी भत्ता, किसानों को कर्ज माफी जैसे लुभावने वादे किए गए थे. जबकि हमारी पार्टी ने हमें कोई घोषणा पत्र दिया ही नहीं था. आखिर जनता सोनिया जी, राहुल जी और प्रियंका का चेहरा देख कर कब तक वोट देगी.’ प्रियंका सहित राहुल व सोनिया के भाषणों को भी लोधी कांग्रेसियों की हार का सबसे बड़ा कारण मानते हैं. चुनाव प्रचार के समय प्रियंका की एक सभा का उदाहरण देते हुए लोधी बताते हैं कि जो बात प्रियंका को रायबरेली सदर के बाहुबली विधायक व पीस पार्टी के प्रत्याशी अखिलेश सिंह के लिए सदर सीट पर बोलनी थी वह उन्होंने हरचंदपुर की जनता के सामने बोल दी. इसके अतिरिक्त सपा में पहले से ही साफ था कि मुलायम सिंह यादव या अखिलेश ही मुख्यमंत्रीं बनेंगे जिसके आधार पर उन्हें अच्छा ओबीसी वोट मिला. जबकि कांग्रेस में ऐसा कुछ नहीं था.
बछरावां सीट से कांग्रेस के प्रत्याशी रहे राजाराम त्यागी का दर्द भी लोधी जैसा ही है. त्यागी अपनी हार का ठीकरा संगठन व नेतृत्व पर फोड़ते हुए कहते हैं कि रायबरेली में 20 साल से संगठन में कोई परिवर्तन नहीं किया गया है. जो लोग संगठन में हैं वे इसे अपनी बपौती और अपने कद को इतना ऊंचा मानते हैं कि आम लोगों से मिलना भी अपनी शान के खिलाफ समझते हैं. सपा के घोषणा पत्र को त्यागी भी लुभावना बताते हैं जिससे युवाओं का रूझान सपा की ओर अधिक रहा. सपा के वादों के बाद अकेले रायबरेली में 29 हजार से अधिक युवाओं ने रोजगार कार्यालय में इस उम्मीद से पंजीकरण कराया कि रोजगार न भी मिला तो कम से कम बेरोजगारी भत्ता तो मिलेगा.
पार्टी के अन्य बड़े नेताओं के साथ ही गांधी परिवार के खास समझे जाने वाले तथा अमेठी व रायबरेली के प्रभारी केएल शर्मा पर भी हार के बाद उंगलियां उठाई जाने लगी हैं. राहुल गांधी की अमेठी लोकसभा की पांच में से तीन सीटें कांग्रेस हार चुकी है. इनमें सबसे प्रतिष्ठित समझी जाने वाली अमेठी विधानसभा से पिछले तीन बार से सुल्तानपुर के सांसद संजय सिंह की पत्नी रानी अमिता सिंह चुनाव जीत रही थीं. तहलका से बात करते हुए अमिता सिंह भी इशारों-इशारों में हार की एक बड़ी वजह केएल शर्मा को ठहराते हुए कहती हैं, ‘अमेठी कांग्रेस का गढ़ है. ऐसे में यहां का नेतृत्व बाहर से आयातित किसी व्यक्ति को सौंपना आखिर कहां की समझदारी है. क्या जो राजपरिवार गांधी परिवार के लिए समर्पित है उस पर इतना भरोसा नहीं कि वह अपनी जनता का नेतृत्व ठीक से कर सकेगा.’ यहां बताना जरूरी है कि केएल शर्मा को गांधी परिवार ने पंजाब से लाकर अमेठी व रायबरेली का नेतृत्व दिया है. अमिता आगे कहती हैं, ‘अब समय आ गया है कि इस बात पर चिंतन व मंथन किया जाए कि मेरे चुनाव में ऐसे लोग जो बाहर से आकर संगठन का काम देख रहे हैं, उनका रोल कैसा रहा है.’
बताते हैं कि जिन केएल शर्मा के जिम्मे सोनिया ने रायबरेली को सौंपा था वे कार्यकर्ताओं को उनसे मिलने ही नहीं देते थे
अमिता सिंह भले ही केएल शर्मा का नाम दबी जुबान से ले रही हों लेकिन उनकी अमेठी स्थित कोठी में मौजूद समर्थक बृजेश प्रताप सिंह खुल कर शर्मा और उनके करीबी पदाधिकारियों पर आरोप लगाते हैं. अपनी बात के समर्थन में कुछ आंकड़े रखते हुए वे कहते हैं, ‘पीसीसी सदस्य नरेंद्र मिश्रा के बूथ पर कांग्रेस को मात्र 87 वोट मिले हैं जबकि सपा को वहां से 200 वोट मिले हैं. इसी तरह पीसीसी सदस्यों देव नारायण वर्मा और राम अधार पासी के बूथों पर भी कांग्रेस को 75 व 243 वोट मिले हैं जबकि सपा को यहां 240 व 341 वोट मिले हैं. संग्रामपुर ब्लाक के अध्यक्ष व पीसीसी सदस्य राजीव सिंह के बूथ की स्थिति भी ऐसी ही थी जहां कांग्रेस को महज 100 वोटों से ही संतोष करना पड़ा, जबकि सपा को 332 वोट मिल गए थे. हद तो तब हो गई जब अमेठी के जिला अध्यक्ष प्रेम नारायण मिश्र के बूथ संख्या 78 पर कांग्रेस को 98 वोट जबकि बसपा को 99 वोट मिले हैं.’
शर्मा पर आरोप सिर्फ राजघराने की चारदीवारी के भीतर ही नहीं लग रहे बल्कि संग्रामपुर बलॉक निवासी हंसराज सिंह तो यहां तक बोलते हैं कि राजा संजय सिंह और रानी अमिता सिंह का कद पार्टी में केएल शर्मा को काफी दिनों से खटक रहा था लिहाजा विधानसभा चुनाव में राजघराने की हार के माध्यम से इस परिवार के वर्चस्व को कम करने का काम किया गया है. अमेठी निवासी अब्दुल रशीद खां कहते हैं, ‘यदि अमेठी की जनता कांग्रेस प्रत्याशी से नाराज होती तो 50 हजार वोट भी उनको न मिलते. जीत हार का जो आंकड़ा मात्र आठ हजार का है वह साबित करता है कि कहीं न कहीं कुचक्र रचा गया है.’ अब्दुल रशीद के गुस्से का अंदाजा इस बात से भी लगाया जा सकता है कि वे लोकसभा चुनाव में अपनी कांग्रेस पार्टी को ही सबक सिखाने की ठाने बैठे हैं. वे कहते हैं, ‘संगठन के लोगों ने जो खिलाफत विधानसभा चुनाव में स्थानीय प्रत्याशी के लिए की है वही खिलाफत हम 2014 के लोकसभा चुनाव में राहुल गांधी के लिए करेंगे.’
केएल शर्मा के प्रति नाराजगी रायबरेली की आम जनता में भी देखने को मिलती है. स्वतंत्र पत्रकार भालेंदु मिश्र जिले की चार सीटों पर कांग्रेस की हार व सपा की जीत का श्रेय कांग्रेस पार्टी को ही देते हैं. कुछ देर की बातचीत के बाद वे खुल कर बताते हैं कि सपा का घोषणा पत्र तो स्थानीय कांग्रेसियों के लिए एक बहाना भर है. हार का मुख्य कारण राहुल व सोनिया के वे प्रभारी हैं जो स्थानीय लोगों के साथ हिटलर जैसा व्यवहार करते हैं. मिश्र की इन बातों का समर्थन कुंवर प्रताप सिंह भी करते हैं. सिंह के मुताबिक जिन केएल शर्मा के जिम्मे सोनिया जी ने रायबरेली को सौंपा था वे कभी कार्यकर्ताओं को सोनिया से मिलने ही नहीं देते थे. रायबरेली की जनता के विकास के लिए लालगंज में एक रेलकोच कारखाना बनाया गया है. लेकिन आसपास के करीब एक दर्जन गांवों के जिन किसानों की जमीन कारखाने के लिए अधिगृहीत की गई उनके परिवार वालों को अभी तक इसमें नौकरी नहीं मिली है. तौधापुर के पप्पू त्रिवेदी हों या खैरानी गांव के बद्री. सभी पिछले साल से ही इस बात को लेकर नाराज थे कि सोनिया या राहुल गांधी अमेठी या रायबरेली में जहां भी गए स्थानीय नेताओं ने लोगों को उनसे मिलने ही नहीं दिया.
पूर्व प्रधानमंत्री राजीव गांधी के करीबी रहे रायबरेली के पूर्व जिला पंचायत अध्यक्ष आरपी सिंह को चुनाव के बाद हाल ही में पार्टी से निकाल दिया गया. पार्टी ने उन्हें किस लिए निकाला खुद सिंह को भी नहीं पता. वे बताते हैं, ‘निकाले जाने के संबंध में न तो कोई पत्र आया न ही नोटिस. अखबार में पढ़ कर पता चला कि मैं पार्टी में नहीं हूं.’ पुराने कांग्रेसियों में यह हाल सिर्फ आरपी सिंह का ही नहीं है. रोखा विधानसभा क्षेत्र, जो कि अब सलोम में मिल गया है, वहां से चार बार कांग्रेस के टिकट पर विधायक रहे राम प्रसाद धोबी के पुत्र राम नरेश बताते हैं कि लगता है अब हम लोग पार्टी के लिए अछूत हो गए हैं. आजादी के पहले से ही कांग्रेस के लिए जी जान एक करने वाले परिवारों को अब रायबरेली में कोई पूछता तक नहीं. पार्टी की लाख उपेक्षा के बाद भी ऐसे सैकड़ों परिवार हैं जो पार्टी से जुड़े तो हैं लेकिन उनको न कोई जिम्मेदारी दी गई है और न ही संगठन में कोई स्थान. राम नरेश केएल शर्मा का नाम लिए बिना कहते हैं कि पार्टी का सारा दारोमदार उसी चेहरे पर टिका है जिसे सोनिया व राहुल गांधी ने यहां भेज कर जिम्मेदारी दी है.
कभी कांग्रेस का गढ़ रहे सुल्तानपुर की स्थिति भी काफी बदतर है. पांच सीटों वाले इस लोकसभा क्षेत्र में कांग्रेस अपना खाता तक नहीं खोल पाई है. अमेठी लोकसभा से सटी सुल्तानपुर की इसौली विधानसभा सीट पर कांग्रेस ने अपने पुराने नेता मुईद अहमद को इस वजह से टिकट दिया कि परिसीमन के बाद इस क्षेत्र में नए मुसलिम वोट जुड़ गए थे. लेकिन मुईद का करिश्मा मुसलिम मतदाताओं पर ही नहीं चला. इसौली की जनता ने सपा से खड़े दूसरे मुसलिम प्रत्याशी अबरार के सिर जीत का सेहरा बांध दिया. करीब 96 हजार मुसलिम आबादी वाली इसौली विधानसभा के अलीगंज बाजार के मोहम्मद अशफाक खान कहते हैं, ‘कांग्रेस का प्रत्याशी भले ही मुसलिम था लेकिन उसका अधिकांश समय लखनऊ में ही बीतता है. जबकि अबरार हर वक्त अपने गांव अंझुई में ही मौजूद रहते हैं. ऐसे में इनसे मिलकर अपनी समस्या का समाधान कराना आसान होगा.’