असगर वजाहत ने बीते एक दशक में दुनिया को यात्राओं के जरिए समझा है. अंतिका प्रकाशन से उनकी किताब ‘रास्ते की तलाश में आई है. किताब के बहाने कई मुद्दों पर स्वतंत्र मिश्र की उनसे बातचीतः
‘रास्ते की तलाश में’ शीर्षक क्यों?
यात्रा के लिए निकलने वाले हर यात्री के कुछ उद्देश्य होते हैं. उन उद्देश्यों की पूर्ति कभी होती और कभी नहीं होती है. आप यात्रा करते जाते हैं, आपकी तलाश का दायरा बढ़ता जाता है. हम लोग हमेशा किसी खोज में लगे होते हैं. यात्रा के दौरान बहुत सारे अनजान लोग मिलते हैं. आप अनजान संस्कृतियों से टकराते हैं. अपरिचित समाज से मिलते हैं. लेकिन आपकी खोज कभी पूरी नहीं होती. आपकी तलाश हमेशा जारी रहती है. रास्ता एक प्रतीकात्मक शब्द है. आप रास्तों से होकर कुछ तलाश करते हैं. रास्ते की खोज करने के क्रम में कितना मिल पाता है और कितना नहीं, यह अलग बात है.
अपनी किताब में आप दक्षिण समाज की खूबियों को पकड़ते हैं लेकिन उत्तर भारत को झिड़कते हैं. क्या हिंदी समाज वाकई में इतना पिछड़ा समाज है?
अभी-अभी मैं इलाहाबाद से लौटा हूं. उसे देखकर महसूस होता है कि यह कितना उपेक्षित शहर है. सड़कें उपेक्षित हैं. पेशाब और शौच की सुविधाएं तक नहीं हैं. पीने का पानी तक नहीं है. गाड़ी खड़ी करने की सुविधा नहीं है. सड़कों पर गड्ढे सालों से बने हुए हैं. मुख्य सड़कों के आगे लोगों ने दुकानें बना ली हैं. बड़ी-बड़ी सड़कों के किनारे लोगों ने झुग्गियां डाल दी हैं. दुनिया में जो अराजकता कहीं नहीं दिखाई दे वह हमारे उत्तर प्रदेश में जरूर दिखाई देती है. इस रूप में प्रशंसा तो की जा सकती है कि इलाहाबाद विश्वविद्यालय कभी भारत का ऑक्सफोर्ड हुआ करता था. लेकिन आप आज की तारीख में इनकी प्रशंसा कैसे कर सकते हैं? सामाजिक विकास के पैमाने पर ये प्रदेश बहुत निचले पायदान पर पहुंच गए हैं. मैं जब इलाहाबाद गया तो लोगों ने मुझसे कहा कि सांप्रदायिकता से हमें लड़ना होगा. मैंने उनसे कहा कि यह सब ठीक है. लेकिन भारत में उत्तर प्रदेश सामाजिक विकास के पैमाने पर सबसे निचले स्तर पर पहुंच गया है. आपने इस बारे में क्या किया है? इसे ठीक करना भी आपकी जिम्मेदारी है. हिंदी प्रदेशों में मध्य प्रदेश, राजस्थान और हिमाचल को छोड़ दिया जाए तो बहुत खराब स्थिति है. माफिया, गिरोहबंदी, घोटाले, आतंक की राजनीति उत्तर प्रदेश में आकर समा गई है.
दक्षिण में भी तो घोटाले खूब हो रहे हैं?
घोटाले तो हर जगह हो रहे हैं. लेकिन दक्षिण भारत सामाजिक विकास के पैमाने पर हिंदी प्रदेशों की तुलना में अभी भी बहुत आगे है. दोनों के बीच का अंतर बहुत ज्यादा है.
आप साहित्य की मूल धारा से दूर नजर आ रहे हैं और यात्रा-वृत्तांत ज्यादा लिख रहे हैं. इस बदलाव की वजह?
मैं साहित्य की मुख्यधारा यानी कथा, कहानी और उपन्यास लेखन का भी काम कर रहा हूं. राजकमल से मेरे दो छोटे-छोटे उपन्यास आए हैं. युवावस्था में फिक्शन लिखना बहुत अच्छा लगता है, लेकिन एक समय आता है जब लेखक कथा, कहानी लिखते-लिखते ऊब जाता है. इस स्थिति में लेखक को लगने लगता है कि दायरे की चीजों से यथार्थपरक तरीके से संवाद किया जाए. यही वजह है कि मैं यात्रा वृत्तांत अधिक लिख रहा हूं. पाकिस्तान पर भी मैंने एक यात्रा-संस्मरण पूरा किया है.
‘कहानीकारों को लगता है कि चार पंक्तियां लिख देने से पाठक चारों खाने चित हो जाएंगे. यही वजह है कि पाठक कहानी से दूर हो रहे हैं’
आपकी किताब ‘रास्ते की तलाश में’ में मात्र 80 पन्ने हैं. ब्लैक एेंड व्हाइट तस्वीरें हैं. इस लिहाज से किताब की कीमत 225 रुपये बहुत ज्यादा नहीं है?
मैं मानता हूं कि किताब की कीमत बहुत ज्यादा है. मेरी इच्छा तो यह है कि किताबें पाठकों को फ्री में उपलब्ध हों. कीमत तो प्रकाशक तय करते हैं. किताब की कीमत तय करने में लेखकों की कोई भूमिका नहीं होती. कीमत कम रखने के लिए लेखक ज्यादा से ज्यादा यही कर सकता है कि वह राॅयल्टी न ले. कीमत तय करने में किसी तरह का नियंत्रण नहीं है, इसलिए प्रकाशक जो चाहे कीमत रख लेते हैं. प्रकाशक ज्यादा कीमत रखने को लेकर तरह-तरह के तर्क देते हैं. जैसे किताबें ज्यादा बिकती नहीं हैं और खर्च निकालना तक मुश्किल होता है.
इन दिनों हिंदी में घुमक्कड़ी साहित्य खूब लिखा जा रहा है. इसकी क्या वजह है?
कहानियों में बनावटीपन और भारीपन बढ़ा है. कहानी में छद्म आ गया है. कहानीकार पाठकों को डराने की कोशिश कर रहे हैं. लेखकों को लगता है कि चार पंक्तियां लिख दीं और पाठक चित. इन सब कारणों से पाठक कहानी से दूर हो रहे हैं. आज कहानी लिखना चुनौती भरा काम हो गया है. अखबार में हर रोज बहुत भयानक कहानियां छप रही हैं. उससे ज्यादा क्या लिखेंगे. यात्रा-वृत्तांत के जरिए आप समाज और समय से संवाद करते हैं. इसके जरिए एक समाज का विश्लेषण करते हैं, जो दूसरे समाज के लिए उत्सुकता का विषय हो सकता है.
तो आप यह मान रहे हैं कि कहानी यथार्थ से दूर हो रही है?
हां, ऐसा है. कहानी के फॉर्मेट में कोई खास बदलाव नहीं आया है. बौद्घिकता और छद्म चीजों को आप जिस तरह से कहानियों में ला रहे हैं, उससे चीजें यथार्थ से दूर होती जा रही हैं. भाषा और शैली के चमत्कार को ज्यादा तवज्जो दिए जाने से वास्तविक चीजें कहानी से दूर हो गईं. इससे बेहतर होगा कि आप यात्रा संस्मरण या अपने अनुभव के आधार पर कुछ लिखने की कोशिश करें.
आपका अगला यात्रा-वृत्तांत किन इलाकों पर आधारित होगा?
यह बड़ा ही टेढ़ा सवाल है. असल में हो यह रहा है कि किसी भी इलाके के बारे में जानना चाहते हैं तो आप गूगल पर टाइप करते हैं तो वहां के बारे में बहुत सारी जानकारियां सामने आ जाएंगी. फाटो भी मिल जाएंगे. बहुत प्रकट चीजों के बारे में लिखने का कोई मतलब नहीं है. पहले मैंने सोचा कि चीन के बारे में लिखा जाए. फिर सोचा कि दक्षिण कोरिया या म्यांमार जाया जाए. लेकिन अब मैं सोचता हूं कि अफगानिस्तान जाऊं. वहां से सड़क के रास्ते तुर्कमेनिस्तान जाऊं. वहां से मध्य एशिया. दुसांबे यानी तजाकिस्तान तक जाऊं. इसका जिक्र महाभारत में बहुत बार आया है. मैं इन यात्राओं के जरिए एक सांस्कृतिक नक्शा खींचने की कोशिश करना
चाहता हूं.