उत्तराखंड में नैनीताल जिले के तराई क्षेत्र में हंसपुर खत्ता नाम का एक गांव है. राज्य के बाकी ग्रामीण क्षेत्रों की तरह इस गांव में भी रोजगार के लिए पलायन आम बात है. जंगलों के बीच बसे इस गांव के कई युवा नौकरी के लिए बाहर चले जाते हैं. प्रकाश राम भी उनमें से एक थे जो आगरा की एक प्राइवेट कंपनी में नौकरी करते थे. अगस्त, 2004 में वे छुट्टियां मनाने अपने गांव आए थे. उन्हें घर आए कुछ ही दिन हुए थे कि एक दिन पुलिस उनके पिता हयात राम को घर से उठा कर ले गई. हयात राम क्षेत्रीय जनांदोलनों में काफी सक्रिय रहते थे. उनकी गिरफ्तारी के दिन प्रकाश घर पर नहीं थे. अगले दिन जब वे लौटे तो पुलिस ने उन्हें भी थाने चलने को कहा. पूछने पर पुलिस ने बस इतना बताया कि कुछ पूछताछ के बाद उन्हें और उनके पिता को साथ में ही छोड़ दिया जाएगा. प्रकाश के मुताबिक दो दिन तक पुलिस ने उन्हें बिना लिखित रिपोर्ट दर्ज किए ही अलग-अलग थानों में बंद रखा. दो दिन बाद जब पुलिस ने रिपोर्ट दर्ज की तो उसमें बताया गया कि गांव के पास जंगल में एक माओवादी प्रशिक्षण शिविर चलाए जाने की सूचना मिली थी और वहीं से प्रकाश और हयात राम को गिरफ्तार किया गया है. पुलिस ने यह भी दर्शाया कि इनके पास से कुछ प्रतिबंधित साहित्य बरामद किया गया है.
इसके बाद प्रकाश और उनके पिता को न्यायिक हिरासत में भेज दिया गया. पूरे दो साल बाद प्रकाश की जमानत हो सकी. वे बताते हैं, ‘माओवाद क्या होता है उस वक्त मैं जानता भी नहीं था. पुलिस का असली चेहरा हमने उसी दौरान देखा. ऐसा लगता था जैसे हम अपने देश में नहीं बल्कि किसी दुश्मन देश में आ गए हैं. हमें देशद्रोही घोषित कर दिया गया था. हमारी जमानत को जो भी तैयार होता, पुलिस उसे डरा-धमका कर जमानत नहीं देने देती.’
सरकार इस कानून को इसलिए समाप्त नहीं करना चाहती ताकि उसके हाथ में हमेशा एक ऐसा हथियार रहे जिससे वह अपनी नीतियों के खिलाफ आवाज उठाने वालों को दबा सके
प्रकाश और उसके पिता के साथ ही कुछ अन्य लोगों को भी देशद्रोह के आरोप में गिरफ्तार किया गया था जो लगभग सात साल तक जेल में रहने के बाद इसी साल 14 जून को बरी हुए हैं. कोर्ट में सुनवाई के दौरान ऐसी कई बातें सामने आईं जो साफ बताती थीं कि यह पूरा मामला पुलिस द्वारा तैयार किए गए झूठ के सिवा कुछ भी नहीं था. जिस प्रतिबंधित साहित्य को सील करने की तिथि पुलिस द्वारा 20 सितंबर, 2004 दर्शाई गई थी, वह दरअसल 23 नवंबर, 2004 के अखबारों में लपेटकर सील किया गया था. अदालत के सामने पुलिस ने यह भी कबूला कि उसे पता ही नहीं कि बरामद साहित्य प्रतिबंधित है भी या नहीं. 14 जून, 2012 को कानूनी तौर पर तो यह मामला समाप्त हो गया, लेकिन प्रकाश और बाकी लोगों की जिंदगी के जो साल जेल में बीत गए उनका हिसाब देने वाला कोई नहीं. उन पर देशद्रोही होने का जो कलंक लगा वह अलग.
इतिहास बताता है कि राज्य सदियों से शोषण का प्रतीक रहा है और कानून उस शोषणकारी व्यवस्था को मजबूत करने का जरिया. राजा की ‘प्रजा’ से ब्रितानिया हुकूमत की ‘गुलाम’ होने तक भारत की जनता के लिए राज्य का स्वरूप हमेशा शोषणकारी ही बना रहा. आजादी मिलने पर जब जनता की संप्रभुता वाले वेलफेयर स्टेट यानी कल्याणकारी राज्य को स्थापित करने की बात कही गई तब लोगों को जरूर यह लगा कि अब राज्य का स्वरूप बदलेगा. मगर 65 साल बाद भी क्या ऐसा हो पाया है? पिछले कुछ समय से कुडनकुलम में शांतिपूर्ण प्रदर्शन कर रहे लोगों के खिलाफ 200 से ज्यादा मुकदमे दर्ज करके करीब 1,50,000 लोगों को आरोपित बनाया गया है. इनमें से अधिकतर पर देशद्रोह और देश के खिलाफ साजिश एवं युद्ध की तैयारी करने जैसे आरोप हैं. अलग-अलग रिपोर्टों के मुताबिक झारखंड में भी लगभग 6,000 आदिवासियों को ऐसे ही आरोपों के चलते जेल में कैद किया गया है. जम्मू-कश्मीर से लेकर पूर्वोत्तर तक सरकारी तंत्र की बर्बरता का शिकार होने वाले लोगों के कितने ही उदाहरण हैं. कई ऐसे जिन्हें अपनी जान गंवानी पड़ी और कई ऐसे भी जिन्हें घर से उठा लिया गया जिनका आज तक कुछ पता नहीं है. छत्तीसगढ़, महाराष्ट्र, उत्तर प्रदेश समेत कई ऐसे राज्य हैं जहां अलग-अलग कानूनों के अंतर्गत हजारों लोगों को देशद्रोह और देश के खिलाफ साजिश के आरोप में जेल में डाल दिया गया है. और यह सब जिन कानूनों की आड़ में हुआ है वे अपने दुरुपयोग के चलते हमेशा से बदनाम रहे हैं और इसीलिए उन्हें खत्म करने की मांग भी लंबे समय से उठती रही है.
धारा 124 ए (भारतीय दंड संहिता)
पिछले दिनों टीम अन्ना से जुड़े कार्टूनिस्ट असीम त्रिवेदी पर भी देशद्रोह का आरोप लगाया गया था. मामला हाई प्रोफाइल होने के कारण पूरे देश में चर्चा का विषय बन गया. असीम द्वारा वकील न करने पर और जमानत लेने से इनकार करने के बावजूद उन्हें छोड़ दिया गया. लेकिन इस देश में असीम त्रिवेदी की तरह ‘चर्चित देशद्रोह’ करने का सौभाग्य हर किसी को नहीं मिलता. प्रकाश राम और उनके साथियों की तरह हजारों लोग हैं जो देशद्रोह के आरोप में कई साल जेल में बिता चुके हैं और आज भी बिता रहे हैं. अलग-अलग स्रोतों से मिली जानकारी बताती है कि अकेले झारखंड में ही पिछले 10 साल में पुलिस और अर्धसैनिक बलों द्वारा 550 से ज्यादा लोगों को नक्सली होने के नाम पर मौत के घाट उतारा जा चुका है. कुछ समय पहले एक प्रतिष्ठित अखबार में छपी रिपोर्ट के मुताबिक इस समय झारखंड में करीब 6,000 लोग जेल में हैं जिनमें से अधिकतर पर माओवादी साहित्य पाए जाने और माओवादियों की मदद करने का आरोप है.
भारतीय दंड संहिता की धारा 124 ए में देशद्रोह की परिभाषा के तहत आजीवन कारावास तक की सजा का प्रावधान है. धारा 124 ए में लिखा है : ‘राजद्रोह’ : जो कोई बोले गए या लिखे गए शब्दों द्वारा या संकेतों द्वारा या दृश्य-रूपण द्वारा या अन्यथा (भारत) में विधि द्वारा स्थापित सरकार के प्रति घृणा या अवमान पैदा करेगा या पैदा करने का प्रयत्न करेगा, अप्रीति प्रदीप्त करेगा या प्रदीप्त करने का प्रयत्न करेगा, वह (आजीवन कारावास) से, जिसमें जुर्माना जोड़ा जा सकेगा या तीन वर्ष तक के कारावास से जिसमें जुर्माना जोड़ा जा सकेगा या जुर्माने से दंडित किया जाएगा.
इतिहास बताता है कि यह कानून अंग्रेजी राज के दौरान 1870 में लागू किया गया था. तब इसका मकसद था क्रांतिकारियों को कुचलना. आजादी से पहले महात्मा गांधी, बाल गंगाधर तिलक, मौलाना आजाद और एमएन रॉय जैसे कई स्वतंत्रता संग्राम सेनानियों पर इस धारा के अंतर्गत मुकदमे चलाए जा चुके हैं. देश को आजादी मिलने के बाद से ही इस कानून का विरोध होने लगा था. संवैधानिक सभा में बहस के दौरान भी कुछ लोग इस कानून के पक्ष में नहीं थे. देश के पहले प्रधानमंत्री जवाहरलाल नेहरू ने भी इस पर नाखुशी जाहिर की थी. उन्होंने इसे लोकतंत्र विरोधी करार देते हुए कहा था कि यह प्रावधान बहुत ही अप्रिय और आपत्तिजनक है और व्यावहारिक व ऐतिहासिक दोनों ही कारणों से गणतंत्र में इसकी कोई जगह नहीं होनी चाहिए.
उनकी राय थी कि इससे जितनी जल्दी छुटकारा पाया जाए उतना ही बेहतर होगा. लेकिन यह कानून आज भी न सिर्फ मौजूद है बल्कि समय-समय पर इसका इस्तेमाल भी होता रहा है. हालांकि सर्वोच्च न्यायालय ने ‘केदारनाथ बनाम सरकार’ मामले में सुनवाई के दौरान धारा 124 ए का दायरा सीमित कर दिया था. अदालत का कहना था, ‘सिर्फ वही कार्य देशद्रोह की परिभाषा में दंडनीय होगा जो साफ तौर से हिंसा भड़काने या अशांति फैलाने के आशय से किया गया हो.’ फिर भी इस धारा के दुरुपयोग पर अंकुश नहीं लग सका है. हाल में एक आयोजन के दौरान दिल्ली उच्च न्यायालय के पूर्व मुख्य न्यायाधीश राजिंदर सच्चर का कहना था कि इस कानून के चलते ‘यह सरकार निकम्मी है’ जैसे बयान देना भी दंडनीय हो जाते हैं जबकि संविधान ऐसे किसी भी कानून की इजाजत नहीं देता जो अभिव्यक्ति की आजादी का हनन करता हो. सच्चर की मानें तो यह कानून सरकार को निरंकुश बनाता है और सरकार इसे इसलिए खत्म नहीं करना चाहती ताकि उसके हाथ में हमेशा एक ऐसा हथियार रहे जिससे वह अपनी नीतियों के खिलाफ आवाज उठाने वालों को दबा सके.
ऐसा ही होता दिखता है. धारा 124 ए का इस्तेमाल आम तौर पर पत्रकारों और सामाजिक कार्यकर्ताओं के खिलाफ ही किया जाता रहा है. अरुंधती राय, विनायक सेन, पत्रकार सीमा आजाद, उनके पति विश्वमोहन और सोनी सोरी जैसे कई नाम इसके उदाहरण हैं. पॉस्को से लेकर कुडनकुलम संयंत्र मामले तक हजारों आदिवासियों और ग्रामीणों को इस कानून के तहत देशद्रोही घोषित करके जेल भेजा जा चुका है. आजादी के बाद से अब तक हजारों लोगों पर देशद्रोह के मुकदमे चलाए गए. इनमें से ज्यादातर वही हैं जो जनविरोधी नीतियों पर सरकार का विरोध करते आए हैं.
धारा 124 ए का इस्तेमाल आम तौर पर पत्रकारों और सामाजिक कार्यकर्ताओं के खिलाफ ही किया जाता रहा है. अरुंधती राय, विनायक सेन, पत्रकार सीमा आजाद, उनके पति विश्वमोहन और सोनी सोरी जैसे कई नाम इसके उदाहरण है
जयप्रकाश नारायण द्वारा स्थापित संस्था ‘पीपुल्स यूनियन फॉर सिविल लिबर्टीज’ (पीयूसीएल) आपातकाल के दौर से ही ऐसे कानूनों का विरोध करती आई है. संस्था के राष्ट्रीय सचिव महिपाल सिंह कहते हैं, ‘विपक्ष द्वारा सरकार पर कई तरह के आरोप रोज लगाए जाते हैं. सरकार की लगभग हर नीति का विपक्ष खुलेआम विरोध और निंदा करता है तो उन पर देशद्रोह का मुकदमा नहीं होता. लेकिन यही काम जब कोई पत्रकार, सामाजिक कार्यकर्ता और खास तौर पर किसी ग्राम समुदाय के लोग और आदिवासी अपने जल-जंगल-जमीन को बचाने के लिए करते हैं तो उन्हें देशद्रोही घोषित कर दिया जाता है. ऐसे कानूनों की लोकतंत्र में कोई जगह नहीं होनी चाहिए.’
हालांकि इस मुद्दे पर सुप्रीम कोर्ट की अधिवक्ता मीनाक्षी लेखी की राय थोड़ी जुदा है. वे कहती हैं, ‘विपक्ष जब भी किसी सरकारी नीति की निंदा करता है तो वह एक लोकतांत्रिक तरीके से करता है, उसे देशद्रोह नहीं कहा जा सकता. मैं खुद भी कई ऐसी सरकारी नीतियों का विरोध करती आई हूं जो जनहित में नहीं थीं. हम कभी यह नहीं कहते कि इस पूरी व्यवस्था को ही उखाड़ फेंका जाए. जबकि कई अलगाववादी संगठन इसी मंशा से विरोध करते हैं कि इस व्यवस्था को बदल कर किसी तानाशाही व्यवस्था को स्थापित कर दिया जाए और ऐसे लोगों को रोकने के लिए तो यह धारा बहुत ही जरूरी है.’ हाल ही में एक टीवी चैनल को दिए गए साक्षात्कार में सर्वोच्च न्यायालय के पूर्व न्यायाधीश और प्रेस काउंसिल के अध्यक्ष मार्कंडेय काटजू का कहना था, ‘इस धारा का गलत इस्तेमाल करने वाले पुलिस अधिकारियों के खिलाफ धारा 342 के अंतर्गत मुकदमा चलाया जाना चाहिए और उन्हें जेल होनी चाहिए.’ इस धारा के दुरुपयोग पर उनका कहना था, ‘यदि इसका दुरुपयोग बंद नहीं हुआ और मेरी जानकारी में कोई भी ऐसा मामला आया जहां किसी निर्दोष व्यक्ति पर देशद्रोह का मुकदमा चलाया जा रहा हो तो मैं स्वयं ऐसे गलत आरोप लगाने वालों के खिलाफ मुकदमा करूंगा फिर चाहे वह कोई मंत्री या मुख्यमंत्री ही क्यों न हो.’ इसी साक्षात्कार के दौरान जस्टिस काटजू ने यह भी स्वीकार किया कि यह धारा खत्म कर देना ही बेहतर है. हालांकि मीनाक्षी लेखी का मानना है कि किसी भी कानून का दुरुपयोग निंदनीय है, लेकिन 124 ए को समाप्त कर देना कोई समाधान नहीं. वे कहती हैं, ‘दुरुपयोग तो भारतीय दंड संहिता की और भी कई धाराओं का होता रहा है. यहां तक कि धारा 376 और 302 तक का दुरुपयोग हुआ है, इसका मतलब यह तो नहीं कि इन्हें भी समाप्त कर दिया जाए.’
विभिन्न मानवाधिकार संगठन और कई सामाजिक कार्यकर्ता इस धारा को असंवैधानिक बताते हुए इसे समाप्त करने की मांग करते आ रहे हैं. दिलचस्प बात यह है कि भारत में इस कानून की स्थापना करने वाले ब्रिटेन ने भी अपने यहां यह कानून खत्म कर दिया है. जस्टिस सच्चर के शब्दों में, ‘ऐसे कानून बताते हैं कि कैसे राज्य अपने ही लोगों के खिलाफ एक युद्ध छेड़े हुए है. इस कानून का समाप्त होना नागरिक स्वतंत्रताओं की सबसे बड़ी जीत होगी.’
गैरकानूनी गतिविधि रोकथाम कानून (यूएपीए)
आतंकवाद और अलगाववाद से लड़ने के नाम पर आज तक कई विशेष कानून बनाए गए हैं मगर ऐसे कानून हमेशा ही अपने दुरुपयोग के लिए ज्यादा बदनाम हुए. 1985 में पंजाब में खालिस्तान आंदोलन से निपटने के लिए टाडा (टेररिस्ट ऐंड डिसरप्टिव एक्टिविटिस (प्रिवेंशन) एक्ट) बनाया गया था जिसे दो साल बाद पूरे देश में लागू कर दिया गया. टाडा के अंतर्गत कुल 76,000 से भी ज्यादा लोगों को जेल में बंद किया गया. राष्ट्रीय मानवाधिकार आयोग की एक रिपोर्ट के अनुसार लगभग 19,000 लोग तो गुजरात में बंद हुए जहां उस वक्त कोई कथित आतंकवाद नहीं था. टाडा के व्यापक दुरुपयोग के चलते इसका चौतरफा विरोध हुआ और अंततः 1995 में इसे समाप्त कर दिया गया. फिर 2002 में एनडीए सरकार द्वारा पोटा (प्रिवेंशन ऑफ टेररिज्म एक्ट) लागू कर दिया गया. यह भी शुरू से ही विवादास्पद रहा. इसके दुरुपयोग के भी कई मामले सामने आए. इनमें से एक मामले में तो दिल्ली विश्वविद्यालय के एक प्रवक्ता को पोटा अदालत द्वारा फांसी की सजा सुना दी गई थी. बाद में दिल्ली उच्च न्यायालय द्वारा उन्हें बरी कर दिया गया.
2004 में आई यूपीए सरकार ने पोटा को तो निरस्त कर दिया मगर टाडा और पोटा के विवादास्पद प्रावधान यूएपीए (अनलॉफुल एक्टिविटीज प्रिवेंशन एक्ट) में शामिल कर लिए गए. 2008 के मुंबई हमलों के बाद इस कानून को फिर से संशोधित किया गया. यूएपीए का विरोध करने वाले सामाजिक कार्यकर्ताओं का मानना है कि 2008 के संशोधन ने इस कानून को और ज्यादा बर्बर बना दिया है. कश्मीर बार एसोसिएशन के अध्यक्ष एफ ए कुरैशी बताते हैं, ‘यूएपीए नई बोतल में पुरानी शराब जैसा है. यह कानून सरकार को मनमानी करने का अधिकार देता है. जो कोई भी अपने अधिकारों के हनन होने पर आवाज उठाता है, उसे इस कानून से दबा दिया जाता है और उसकी लंबे समय तक जमानत भी नहीं हो पाती.’
ऐसे कानूनों से आतंकवाद पर नियंत्रण पाने का तो कोई भी पुख्ता उदाहरण नहीं मिलता लेकिन इनके दुरुपयोग के हजारों उदाहरण हैं. यह कानून अक्सर सामाजिक कार्यकर्ताओं और अपने जल-जंगलों को बचाने की लड़ाई लड़ने वाले आदिवासियों के दमन के लिए इस्तेमाल होता रहा है. मानवाधिकार कार्यकर्ताओं का मानना है कि यह कानून पुलिस और सरकारी अधिकारियों को जरूरत से ज्यादा शक्तियां प्रदान करके उन्हें मनमानी और दमन करने की छूट देता है.
सीमा आजाद उत्तर प्रदेश में ‘दस्तक’ नाम की एक पत्रिका निकालती हैं. प्रदेश की राजनीतिक खामियों के साथ ही उन्होंने ‘गंगा एक्सप्रेस वे’ के संभावित खतरों पर एक विस्तृत रिपोर्ट अपनी पत्रिका में छापी. छह फरवरी, 2010 को उन्हें दिल्ली से लौटते वक्त इलाहाबाद स्टेशन पर उनके पति विश्वविजय के साथ गिरफ्तार कर लिया गया. माओवादी साहित्य बरामद होने का आरोप लगाते हुए उन्हें यूएपीए की विभिन्न धाराओं में आरोपित बना दिया गया. लगभग ढाई साल जेल में रहने के बाद इसी साल अगस्त में उन्हें इलाहाबाद उच्च न्यायालय द्वारा जमानत पर रिहा किया गया है. सीमा आजाद की ही तरह माओवादी साहित्य बरामद होने के नाम पर विभिन्न राज्यों में हजारों लोगों को कैद किया गया है. इस संदर्भ में 15 अप्रैल, 2011 को विनायक सेन को जमानत देते वक्त सर्वोच्च न्यायालय ने स्पष्ट किया है कि ‘सिर्फ माओवादी साहित्य बरामद होना किसी व्यक्ति को अपराधी नहीं बनाता.’ साथ ही तीन फरवरी, 2011 को एक अपील की सुनवाई के दौरान शीर्ष अदालत ने कहा कि ‘महज किसी प्रतिबंधित संगठन का सदस्य होना किसी व्यक्ति को अपराधी नहीं बनाता जब तक कि किसी हिंसक घटना में उसकी कोई भूमिका न हो’. फिर भी देश में न जाने कितने लोग माओवादी होने के आरोप में जेल में हैं.
सीमा आजाद उत्तर प्रदेश में ‘दस्तक’ नाम की एक पत्रिका निकालती हैं. प्रदेश की राजनीतिक खामियों के साथ ही उन्होंने ‘गंगा एक्सप्रेस वे’ के संभावित खतरों पर एक विस्तृत रिपोर्ट अपनी पत्रिका में छापी.
हाल ही में दिल्ली स्थित जामिया टीचर्स सॉलिडेरिटी एसोसिएशन द्वारा दिल्ली में एक रिपोर्ट जारी की गई. ‘आरोपित, अभिशप्त और बरी’ नामक इस रिपोर्ट में भी कई ऐसे मामले दर्शाए गए हैं जिनमें यूएपीए के तहत लोगों को आरोपित बनाया गया और सालों जेल में बंद रखने के बाद भी जब उनके खिलाफ कोई मामला नहीं बन पाया तो उन्हें बरी कर दिया गया. रिपोर्ट में आमिर नामक एक लड़के का भी जिक्र है जिसे 18 साल की उम्र में जेल में डाल दिया गया था. आमिर का फैसला होने में 14 साल लगे जिस दौरान वह जेल में रहा और उसकी जिंदगी के ये 14 महत्वपूर्ण साल यूं ही निकल गए. एसोसिएशन फॉर प्रोटेक्शन ऑफ सिविल राइट्स नामक संस्था ने आमिर को कोई कारोबार शुरू करने के लिए पांच लाख रुपये की वित्तीय सहायता की है. संस्था की दिल्ली इकाई के सचिव सय्यद अख्लाक अहमद बताते हैं, ‘आमिर और उनके जैसे कई अन्य लोगों की जिंदगी के ये साल तो लौटाए नहीं जा सकते मगर सरकार इनके पुनर्वास के लिए भी कोई कदम नहीं उठाती और न ही उन अधिकारियों के खिलाफ कोई कार्रवाई ही की जाती है जो ऐसे झूठे मामलों में लोगों की जिंदगी बर्बाद कर देते हैं.’ जामिया टीचर्स सॉलिडेरिटी एसोसिएशन की अध्यक्ष मनीषा सेठी ऐसे मामलों में मीडिया की भूमिका पर भी सवाल उठाते हुए कहती हैं, ‘जब भी कोई व्यक्ति देशद्रोह के आरोप में पुलिस द्वारा पकड़ा जाता है तो मीडिया स्वयं ही इन्हें आतंकवादी घोषित करने में रत्ती भर नहीं कतराता. मीडिया में बेझिझक बयान दिए जाते हैं कि कोई माओवादी या लश्कर का आतंकी पकड़ा गया है. जब वही व्यक्ति कोर्ट द्वारा निर्दोष बताया जाता है तो उस पर कहीं कोई खबर नहीं होती.’
यूएपीए अपने कई प्रावधानों के चलते विवादित रहा है. इनमें से एक यह भी है कि इस कानून के तहत आरोपी को 180 दिन तक बिना आरोपपत्र दाखिल किए बंद रखा जा सकता है, जबकि दंड प्रक्रिया संहिता के अनुसार किसी भी मामले में 90 दिन के भीतर आरोपपत्र दाखिल करना अनिवार्य होता है. इस संदर्भ मंे पीयूसीएल की दिल्ली इकाई के अध्यक्ष और अधिवक्ता एनडी पंचोली बताते हैं, ‘आज तक ऐसा एक भी मामला मेरे संज्ञान में नहीं जब यूएपीए के अंतर्गत आरोपी बनाए गए किसी भी व्यक्ति के खिलाफ 90 दिन के भीतर आरोपपत्र दाखिल किया गया हो. पुलिस ऐसे प्रावधानों का गलत इस्तेमाल करती है और किसी को भी इतने लंबे समय तक जेल में डाल देती है. आतंकी गतिविधियों की पड़ताल तो और भी ज्यादा जल्दी की जानी चाहिए फिर आरोपपत्र दाखिल करने के लिए इतना ज्यादा समय देना कहां तक उचित है?’ पंचोली आगे बताते हैं, ‘भारतीय दंड संहिता में हर तरह के अपराध की सजा का प्रावधान है और आतंकवाद से निपटने के लिए भारतीय दंड संहिता ही काफी है. इसके अलावा जितने भी कानून आतंकवाद से निपटने के नाम पर बनाए जाते हैं वह सिर्फ राज्यों द्वारा शोषण करने का ही काम करते हैं जो बंद होना चाहिए.’
नक्सल प्रभावित इलाकों में तो सोनी सोरी जैसे हजारों आदिवासी यूएपीए जैसे कानून का दंश झेल ही रहे हैं साथ ही उन इलाकों के लोग भी इसके दुरुपयोग का शिकार हो रहे हैं जहां नक्सलवाद या माओवाद का नाम तक नहीं है.
सशस्त्र बल विशेषाधिकार कानून (अफस्पा)
काले कानूनों की श्रृंखला में सबसे ज्यादा कुख्यात कानून है ‘आर्म्ड फोर्सेस (स्पेशल पावर्स) एक्ट’ यानी अफस्पा. 1958 में लागू हुआ यह कानून सेना बलों द्वारा नागरिकों की हत्या, बलात्कार व दमन करने का एक साधन बनने के आरोपों को लेकर लंबे समय से विवादों में रहा है. अफस्पा के अंतर्गत सैन्य बलों को जिस प्रकार के अधिकार और छूट हासिल है उसकी तुलना दुनिया के किसी भी अन्य कानून से नहीं की जा सकती है. अफस्पा भारतीय संविधान में वर्णित मूलभूत अधिकारों के उल्लंघन के लिए तो चर्चा में रहा है साथ ही यह 1978 में मेनका गांधी मामले में सर्वोच्च न्यायालय द्वारा दी गई ‘कानून द्वारा स्थापित व्यवस्था’ की परिभाषा का भी उल्लंघन करता है. उत्तर-पूर्व के राज्यों से लेकर जम्मू-कश्मीर तक जहां भी यह कानून प्रभावी है वहां इसके दुरुपयोग के हजारों उदाहरण मिलते हैं.
पांच मार्च, 1995 को नागालैंड की राजधानी कोहिमा में राष्ट्रीय राइफल्स के जवानों ने गाड़ी के टायर फटने की आवाज को बम धमाका समझ कर गोलीबारी शुरू कर दी. इस गोलीबारी में सात लोगों की जान चली गई और 22 लोग गंभीर रूप से घायल हुए. मरने वालों में चार और आठ साल की दो बच्चियां भी शामिल थीं. नवंबर, 2000 में मणिपुर की राजधानी इंफाल के पास एक बस स्टैंड पर खड़े 10 लोगों को असम राइफल्स के जवानों द्वारा मार दिया गया. अफस्पा की आड़ में हुए इस नरसंहार के बाद ही इरोम शर्मिला ने इस कानून को हटाने की मांग के साथ भूख हड़ताल शुरू की. इस हड़ताल को 12 साल होने वाले हैं. आज तक की सबसे लंबी भूख हड़ताल करने वाली इरोम का नाम कई रिकॉर्डों में दर्ज हो चुका है, लेकिन अफस्पा को हटाने की उनकी मांग आज तक अधूरी है.
सरकार आतंकवाद से लड़ने के नाम पर ऐसे कानूनों को बनाए रखने का तर्क देती है. लेकिन क्या इन कानूनों का दुरुपयोग करने वालों को दंडित करने के लिए भी किसी इतने ही प्रभावी कानून की आवश्यकता नहीं है?
जम्मू-कश्मीर में भी हजारों परिवार इस कानून के दुरुपयोग के शिकार हुए हैं. श्रीनगर में रहने वाली परमीना अहंगर पिछले 22 साल से अपने बेटे की राह देख रही हैं. 18 अगस्त, 1990 की रात तीन बजे उनके बेटे को राष्ट्रीय सुरक्षा गार्ड के सिपाही घर से उठा कर ले गए थे. उनका बेटा जावेद अहंगर उस वक्त 16 साल का था और दसवीं कक्षा में पढ़ता था. उस रात के बाद से जावेद की कोई खबर नहीं मिली. प्रशासन से लेकर कोर्ट तक कई-कई बार गुहार लगा चुकी परमीना अब गुमशुदा युवाओं के अभिभावकों की एक संस्था चलाती हैं. गांव-गांव जाकर उन्होंने लापता लोगों के परिवार वालों को संगठित करके ‘एसोसिएशन फॉर पेरेंट्स ऑफ डिसअपीयर्ड पर्सन्स’ का गठन किया. तहलका से बात करते हुए परमीना बताती हैं, ‘मैंने हर एक थाने, हर छावनी, हर कैंप, हर अस्पताल में अपने बेटे को ढूंढ़ा मगर उसकी कोई खबर नहीं मिली. आज 22 साल हो चुके हैं. आज मैं सिर्फ अपने बेटे के लिए नहीं लड़ रही बल्कि उन हजारों बच्चों के लिए लड़ रही हूं जो जावेद की ही तरह लापता कर दिए गए हैं. हमें मारने के लिए तो कई कानून हैं लेकिन जो इन कानूनों के नाम पर खुलेआम कत्ल कर रहे हैं उन्हें सजा देने के लिए कोई कानून नहीं है.’ बात जायज है. सरकार आतंकवाद से लड़ने के नाम पर ऐसे कानूनों को निरस्त करने से तो इनकार कर सकती है मगर क्या ऐसे कानूनों का दुरुपयोग करने वालों को दंडित करने के लिए भी किसी इतने ही प्रभावी कानून की आवश्यकता नहीं है?
2004 में अफस्पा पर बदनामी का एक बड़ा कलंक तब लगा जब 30 वर्षीया थान्गजम मनोरमा के साथ असम राइफल्स के जवानों द्वारा सामूहिक बलात्कार करके उनकी हत्या कर दी गई. इसके विरोध में 40 महिलाओं ने निर्वस्त्र होकर असम राइफल्स के मुख्यालय के सामने बैनर दिखाकर विरोध प्रदर्शन किया, जिन पर ‘इंडियन आर्मी रेप अस’ लिखा था. इसने देश को झकझोर कर रख दिया. मजबूरन केंद्र सरकार को अफस्पा की जांच के लिए एक आयोग का गठन करना पड़ा. जस्टिस जीवन रेड्डी की अध्यक्षता में बने इस पांच सदस्यीय आयोग ने 2005 में अपनी रिपोर्ट सौंपी थी. इसमें कहा गया कि अफस्पा को तुरंत निरस्त कर दिया जाना चाहिए. जीवन रेड्डी आयोग के अलावा 2007 में वीरप्पा मोइली की अध्यक्षता वाली प्रशासनिक सुधार समीति और हामिद अंसारी की ‘वर्किंग ग्रुप ऑन कॉन्फिडेंस बिल्डिंग मेजर्स इन जम्मू एंड कश्मीर’ ने भी अफस्पा को हटाए जाने की संस्तुति की है. इसी साल मार्च में संयुक्त राष्ट्र संघ के प्रतिनिधि क्रिस्टोफ हेंस ने भी कई इलाकों में घूम कर और कई लोगों से मिलकर एक रिपोर्ट केंद्र को सौंपी है. इसमें भी अफस्पा को मानवाधिकारों का हनन करने वाला कानून मानते हुए इसे हटाए जाने की संस्तुति की गई है.
सवाल यह भी है कि ऐसे कानून कितने सफल रहे हैं. अफस्पा को ही लें. जब इस कानून को बनाया गया था तब पूर्वोत्तर में सिर्फ ‘नागा नेशनल काउंसिल’ ही एक ऐसा संगठन था जिससे सशस्त्र विद्रोह के संभावित खतरे थे. आज अफस्पा के इतने साल बाद आलम यह है कि ऐसे पचासों संगठन उत्तर-पूर्व में मौजूद हैं. इससे यह तो साफ है कि जिन उद्देश्यों के लिए ऐसे कानूनों को बनाया जाता है उनकी पूर्ति नहीं हो पाती जबकि इन कानूनों का दुरुपयोग बहुत बड़े स्तर पर होता है. आजादी के 65 साल बाद भी यदि हजारों बेगुनाह लोग अपने देश के ही कानून की बलि चढ़ रहे हों तो वेलफेयर स्टेट या कल्याणकारी राज्य की बातें हवा-हवाई ही लगती हैं.