(तहलका की पांच वर्षों की सरोकारी पत्रकारिता पर विशेष)
हम जिस दौर में जी रहे हैं उसमें स्मरण करने की कोई अहमियत ही नहीं रही है. हमारे चारों ओर तमाम पुरस्कार समारोह, सालाना समारोह, गोष्ठियां और दूसरे किस्म के ‘इस या उस स्मृति में’ वाले आयोजन हो रहे हैं. सभी का दावा है कि ऐसा करके वो इतिहास के किसी-न-किसी हिस्से को समृद्ध करने का कार्य कर रहे हैं. ऐसा लग रहा है कि मानो जानकारी की सूनामी में दबीं स्मृतियों को झड़ने-पोंछने के बाद इन आयोजनों की खूंटियों से टांगकर उन्हें थोड़ा जीने का मौका दिया जा रहा है. मगर दुखद सच्चाई ये है कि हो ऐसा भी नहीं रहा है. इनमें से कोई ही आयोजन शायद ऐसा हो जो वर्तमान को संवारने और बेशकीमती भूत को संरक्षित करने का काम करता हो. ज्यादातर समारोह विशुद्ध व्यावसायिक हैं जो कुछ ऐसा करने के प्रयास में लगे होते हैं जिससे फायदा उठाया जा सके.जाहिर है कि कैमरे के फ्लैश के जैसे एक क्षण तो इनकी उपस्थिति आंखों में चौंध पैदा करती है और दूसरे ही क्षण घटाटोप छा जाता है. बाजार द्वारा हर चीज को अमूल्य, अनोखा और ऐतिहासिक बनाने की कोशिश, ये सुनिश्चित करती है कि कुछ भी वैसा नहीं बन पाता.
भारत के 30 करोड़ भरे-पूरे लोग यहां के 80 करोड़ भूखे-प्यासों के साथ एक जटिल डोर से बंधे हुए हैं, और इस जुड़ाव का अपनी बुद्धिमत्ता और दयालुता के साथ आदर करने की जिम्मेदारी भरे पेट वालों की है ऐसे में तहलका की अंग्रेजी पत्रिका के पांच साल का होने का आयोजन (हिंदी तो अभी महज 6 महीने पुरानी ही है), भी कुछ-कुछ इन्ही आयोजनों जैसा ही लगकर दंभ भरने का सा आभास दे सकता है. लेकिन तहलका के इतिहास पर नजर डालें तो ये नितांत जरूरी प्रतीत होता है. दुनिया को अचंभित करने के लिए नहीं बल्कि खुद को ये विश्वास दिलाने के लिए कि हम तय रास्तों पर न चलकर सही रास्तों पर चलते रहे हैं.
यदि आपने तहलका के किन्हीं दो अंकों को भी पढ़ा है तो आपको ये बताने की जरूरत ही नहीं कि तहलका किस चीज में यकीन रखता है मगर यदि आप इसे पहली बार देख रहे हैं तो मैं इसका एक रेखाचित्र बनाने का प्रयास करता हूं.
मूलत: तहलका, खुद को, हमारे देश के निर्माताओं की धर्मनिरपेक्ष, लोकतांत्रिक, बहुलतावादी और उदार भारत की सोच से जुड़ा हुआ पाता है. इसी मोटी सी परिभाषा के दायरे में इसकी प्रतिबद्धताएं बिल्कुल साफ हैं. इसको अपने काम के लिए धनी और अभिजात्य लोगों के संसाधन तो चाहिए मगर उनके हितों को साधने की इसकी मंशा कभी नहीं रही. ये तो चुपचाप सब-कुछ झेल रहे, दबे-कुचलों के साथ खड़े होने की मंशा रखता है. ये, जो हमारी पत्रिका कभी नहीं पढ़ सकते या पढ़ेंगे, उनकी कहानियों को उन तक पहुंचाने के प्रयास करता है, जो इसे पढ़ते हैं. इसलिए नहीं कि ये मंदिर में मंच पर बैठकर उपदेश देने का इरादा रखता है बल्कि ये बताने के लिए कि भारत के 30 करोड़ भरे-पूरे लोग यहां के 80 करोड़ भूखे-प्यासों के साथ एक जटिल डोर से बंधे हुए हैं, और इस जुड़ाव का अपनी बुद्धिमत्ता और दयालुता के साथ आदर करने की जिम्मेदारी भरे पेट वालों की है. इस रिश्ते की मर्यादा निभाए जाने पर ही भारत राष्ट्र के होने का मौलिक विचार टिका हुआ है. इस बात को लगातार ध्यान में रखने पर ही देश का भविष्य निर्भर करता है. कुलीनों के पास भी अंतत: तभी एक देश रह सकता है जब वो इसमें औरों की हिस्सेदारी को स्वीकार कर सकते हैं.
तहलका, वर्ग, जाति, भाषा, धर्म या किन्हीं ऐसी ही दूसरी चीजों पर आधारित हर तरह की कट्टरता की खिलाफत करता है. हमारे उपमहाद्वीप में मौजूद तरह-तरह की असंख्य दरारों में से एक सबसे नुकसानदेह हिंदू और मुसलमानों के बीच शत्रुता की भावना है. इसने हमें कई बार बुरी तरह तबाह किया है और ये हमारे टुकड़े-टुकड़े करने की क्षमता रखती है. इसे दुनिया के सामने कुछ और एकांत में कुछ जैसे किसी दोगलेपन की नहीं बल्कि एक सीधी और मजबूत नजर से देखे जाने की जरूरत है. पूर्वाग्रह और अन्याय का हल ढूंढ़ने और आधुनिकता के वरदानों, जो कि नई तकनीक वाले नये-नये खिलौने नहीं बल्कि सहिष्णुता और शांतचित्त वाली समझ है, को फिर से मजबूत किए जाने की आवश्यकता है. मगर ऐसा कुछ भी नहीं हो रहा. इन परिस्थितियों के कोलाहल में विवेक और समझदारी के लिए लड़ते तहलका का तंबू मजबूती से तना हुआ है.
एक पत्रिका जिसका अंग्रेजी संस्करण – यदि सब कुछ ठीक रहे तो – मात्र 1 लाख ही बिकता हो और संसाधनों को गवारा न हो तो महज 50 हजार से कुछ ज्यादा तथा जिसका हिंदी संस्करण अभी हर 15 दिन में करीब 50 हजार की संख्या ही पार कर पाता हो, उसके द्वारा ये सब कहा जाना काफी बड़े बोल लग सकता है. किंतु विनम्रता के साथ में इतना जरूर कह सकता हूं कि इतनी कम क्षमताओं के साथ तहलका ये अच्छे से समझता है कि इसका काम हर व्यक्ति को हिलाना नहीं बल्कि उन्हें हिलाना है जो जनता को गति, दिशा और बेहतर भविष्य दे सकने की क्षमता रखते हैं. तरह-तरह के रहस्यों को सामने लाकर, आम लोगों में तर्क-वितर्क की स्थितियां और बुद्धिजीवियों में उद्वेलन उत्पन्न कर तहलका समाज की दो सबसे महत्वपूर्ण शक्तियों – राजनीतिक और आर्थिक – को उनके सुंदरतम रूपों में सीमित रखने के प्रयास में लगा रहता है. ये शक्तियां एक हाथी की तरह हैं और मीडिया एक अंकुश की तरह जिसका मुख्य काम इस हाथी को सही रास्ते पर चलने को विवश करते रहने का है.
हमने कहीं से ईंट कहीं से रोड़ा इकट्ठा कर लेख की इमारत बनाने और नितंब और वक्षस्थल वाली पत्रकारिता औरों के लिए ही छोड़े रखी. क्योंकि हमारे पास पहले से ही इतना कुछ करने को हमेशा ही रहा
इससे कुछ और आगे जाते हैं. हो सकता है कि अब तक ये भी कुछ स्पष्ट हो गया हो कि तहलका केवल एक निरपेक्ष इतिहासकार की भूमिका निभाने में विश्वास नहीं रखता. जैसा कि चलन है कि किसी स्टोरी के लिए दोनों तरफ के संस्करणों को लिया और उनकी सत्यता जांचने की कड़ी मेहनत किए बिना उन्हें छाप डाला. तहलका अपने निर्णय और राय को किसी भी स्टोरी में शामिल करने से गुरेज नहीं करता. उदाहरण के तौर पर अर्थ और व्यापार जैसे एक ऐसे क्षेत्र में जिसमें तहलका को कोई विशेषज्ञता हासिल नहीं है, तहलका पहली समाचार पत्रिका थी, जिसने शेयर बाजार में कुछ बहुत ज्यादा गड़बड़झाला चल रहा है, ऐसी घोषणा कर दी थी. और ये सब बाजार के ढह जाने के काफी पहले किया गया था. हालांकि तहलका ने कभी भी निजी प्रकृति के अभियान चलाने में भरोसा नहीं किया परंतु मगर हर सार्वजनिक लड़ाई में ये किस जगह खड़ा है इसे लेकर कभी संदेह की कोई गुंजाइश भी इसने कभी नहीं छोड़ी. तहलका मानता है कि एक पत्रकार का काम केवल जानकारी देना भर नहीं बल्कि जनहित के लिए एक योद्धा की तरह लड़ने का भी है जो हर सभ्य कदम, हर मानवीय मूल्य को अपना कंधा देता रहता है.
जहां तक भ्रष्टाचार का सवाल है तो निस्संदेह इससे लड़ने की जरूरत है मगर ये असमानता और अन्याय के साथ लड़े जाने वाले एक बहुत बड़े और महत्वपूर्ण युद्ध का एक छोटा सा हिस्सा ही है. भ्रष्टाचार एक असमान और अन्यायी समाज का लक्षण भर है और बिना झिझक ये कहा जा सकता है कि ये आकलन संपूर्ण विश्व में सत्य साबित हो चुका है. अगर सबको बराबरी का अधिकार और विरोध करने की क्षमता मिल जाती है तो भ्रष्टाचार झेली जा सकने वाली हदों में सीमित किया जा सकता है.
इससे पहले कि हम अत्यधिक गंभीर सुनाई-दिखाई पड़ने लगें, मैं कहना चाहता हूं कि तहलका को कला और संस्कृति पर किए गए अपने काम पर भी खूब मान है. यहां पर उद्देश्य सिर्फ इतना ही रहा है कि चाटुकारिता और पक्षपातपूर्ण व्यवहार से बचा जाए जिससे आज शायद ही कोई अछूता हो. जैसे कि किसी के काम की समीक्षा उसके मित्र या उससे अतिरिक्त सहानुभूति रखने वाले किसी व्यक्ति से करवाना या फिर किसी ऐसे से करवाना जो लेखक या कलाकार के प्रति हद दर्जे की दुर्भावना या शत्रुता रखता हो. तहलका हमेशा बिल्कुल ही हवाई चीजों की अनदेखी और तथ्यात्मक आलोचना में विश्वास रखने के साथ जन-संस्कृति से जुड़ी चीजों को भी सारगर्भित बनाने का प्रयास करता रहा है. सिनेमा से जुड़े इसके कई साक्षात्कार नई जमीन ढूंढ़ने वाले साबित हुए. हमने कहीं से ईंट कहीं से रोड़ा इकट्ठा कर लेख की इमारत बनाने और नितंब और वक्षस्थल वाली पत्रकारिता औरों के लिए ही छोड़े रखी. क्योंकि हमारे पास पहले से ही इतना कुछ करने को हमेशा ही रहा.
जो कुछ ऊपर लिखा है वो पांच साल पहले और भी ज्यादा बड़बोलापन और डींग हांकना कहलाता. मगर 250 से ज्यादा अंग्रेजी और 12 हिंदी के संस्करणों की वजह से हमारे दावे में लोगों को अब सच्चाई की एक छोटी सी झलक जरूर दिख रही होगी. एक ओर जहां हमें अपनी गुजरात 2002, सिमी, जेसिका, निठारी की इन्वेस्टिगेशंस पर गर्व है वहीं दूसरी ओर अपने काम की सामाजिक प्रतिबद्धता पर गहरा संतोष भी है. चाहे वो दलितों और जनजातियों से जुड़े मुद्दे हों या विकास और पुनर्वास से जुड़े या भोपाल, सिंगूर, बंत सिंह और अरावली में अवध खनन या फिर बांधों और किसानों की आत्महत्याओं की दिल दहलाने वाली सच्चाइयां, तहलका हमेशा इनमें अपनी जिम्मेदारियां को तलाशने और उन्हें निबाहने की कोशिश में लगा रहा.
हालांकि तहलका के बढ़िया काम का श्रेय इसके संपादकों को जाता है. मगर इसको सही मायनों में प्रेरणा देने वाले इसमें काम कर रहे युवा पत्रकार हैं – जिनमें ज्यादातर महिलाएं हैं – जो बेहद प्रतिभाशाली, ईमानदार, मजबूत और तहलका की सरोकारी पत्रकारिता से पूरी तरह जुड़ा हुआ महसूस करने वाले हैं.
हर उम्मीद जगाने वाली कहानी में एक अंधेरा कोना भी होता ही है. पांच साल पहले कोई भी हमसे उबरने और पत्रिका निकालने की जरा भी उम्मीद नहीं कर रहा था. जब हमने ऐसा कर लिया तो लोगों का कहना था कि हम ज्यादा से ज्यादा एक साल के मेहमान हैं. मैं ये कहना चाहता हूं कि उनकी आशंका बिल्कुल सही थी. ये एक बेहद दुर्गम यात्रा रही है – सप्ताह दर सप्ताह, महीना दर महीना. प्रशंसाएं और शाबाशी तो दुनिया भर से खूब मिलीं लेकिन संसाधनों का हमेशा टोटा पड़ा रहा.
मीडिया के इस स्वर्णिम काल में हर कोई सोचता होगा कि निवेशक हमसे जुड़ने के लिए कुछ भी कर सकने को तैयार होंगे जिससे हम और भी भाषाओं में अपनी उपस्थिति दर्ज करा सकें, एक टेलिविजन चैनल ला सकें. हालांकि कुछ अद्भुत लोग आगे आए भी किंतु कहते हुए दुख सा होता है कि ये नाकाफी से भी कुछ कम ही रहे. शायद ऐसा हमारी कारोबारी अक्षमताओं या देश के धनी लोगों की ऐसे कामों के प्रति अनिच्छाओं या फिर जिस गाड़ी को हम चला रहे हैं उसकी प्रकृति की वजह से हुआ होगा.
फिर भी अगर आज मैं कुछ कह सकता हूं तो ये कि हम अब न केवल पांच साल के हो गए हैं बल्कि आगे बढ़ने के लिए दृढ़निश्चयी भी हैं. हो सकता है आगे हम आसमान की ऊंचाइयों तक पहुंच जाएं और हो सकता है कि हम औंधे मुंह गिरकर ढ़ेर हो जाएं. मगर उम्मीद है कि हम कभी अपनी सोच और विश्वास को पैदा करने वाली मशीनरी में कोई बदलाव नहीं करेंगे.