देना बैंक तमाम सार्वजनिक क्षेत्र बैंकों (पीएनबी) में सबसे ज्य़ादा बुरी हालत में है। रिवर्ज बैंक ऑफ इंडिया ने अपने ‘प्राम्प्ट करेक्टिव एक्शन’ (पीसीए) के तहत इस पर किसी भी नया क्रेडिट लेने पर रोक लगा दी है। लेकिन अब उम्मीद बंधी है कि इसे नया जीवन दान मिलेगा। जब इसके साथ दो और बैंकों का विलय हो जाएगा। अपनी इस कुशल पहल से सरकार ने दो स्वस्थ बैंकों, बैंक ऑफ बड़ौदा और विजया बैंक को देना बैंक की देनदारियां सौंप दी हैं। इसकी वजह साफ है कि दो मजबूत बैंक एक कमज़ोर बैंक को संभाल भी लेंगे और देश का तीसरा बैंक बन कर ज्य़ादा से ज्य़ादा लेन-देन कर सकेंगे। इन तीनों बैंकों में बैंक ऑफ बड़ौदा का कुल कारोबार रुपए 10.3 लाख करोड़ का है। यानी यह देना बैंक के आकार से पांच गुना ज्य़ादा है। देना बैंक का कुल व्यापार रुपए 1.73 लाख करोड़ मात्र का है। विजया बैंक छोटा ज़रूर है लेकिन उसका भी व्यापार रुपए 2.8 लाख करोड़ है। बैंक ऑफ बड़ौदा का एनपीए अनुपात 5.4 फीसद है। विजया बैंक का 4.1 फीसद और देना बैंक का 11.04 फीसद है। इन सबकी कबाइन्ड एन्टिटी मिली जुली निधि का एनपीए अनुपात 5.7 फीसद होगा।
कागज़ पर खूबसूरत
कागज़ पर तो यह प्रस्ताव बेहद नायाब है मगर सवाल यह है कि क्या यह काम करेगा? क्या देना बैंक को जीवित रहने के लिए ऑक्सीजन मिलेगी? या बड़े बैंकों से विलय के बाद यह बैंक भी खत्म हो जाएगा। हम सभी यह जानते हैं कि देना बैंक क्यों बुरी हालत में पहुंच गया। क्योंकि इसने खूब कर्ज बांटे। ऐसा जान पड़ता है कि मजबूत बैंकों से यह कहा जाए कि वे कमजोर बैंकों को ले लें जिससे खराब कर्ज देने से जो संकट बना है उससे राहत मिलें। लगता है कि यह प्रयास सरकार इसलिए कर रही है क्योंकि खराब कर्ज से जो संकट बढ़ा है यह उसी प्रक्रिया का हिस्सा है जिससे बैंक उद्योग खराब कर्ज के लेनदेन से उबर पाए। विलय की घोषणा होते ही जहां बैंक ऑफ बड़ौदा और विजया बैंक के शेयर स्टॉक एक्सचेंज में ठिठक से गए वहीं देना बैंक के शेयर काफी उछले।
यदि बैंक ऑफ बड़ौदा के शेयर धारकों के शेयरों में इस विलय की घोषणा के बाद सोलह फीसद गिरावट आई और वे निराश हुए तो यह सहज ही है। इस पर आश्चर्य नहीं होना चाहिए। देना बैंक इन तीनों बैंकों में सबसे ज्य़ादा खराब वित्तीय संस्थान है। उसे रिजर्व बैंक ने ‘प्राम्प्ट करेक्टिव एक्शन’ में भी डाल रखा है। विलय यह तब हो रहा है जब सरकार ने स्टेट बैंक ऑफ इंडिया का सहयोगी बैंकों के साथ पिछले साल विलय हो जाने दिया। लाइफ इन्श्योरेंस कारपोरेशन ऑफ इंडिया और परेशानी में फंसे आईडीबीआई बैंक का भी इस साल के अंत तक विलय हो जाएगा।
कमज़ोर अस्तित्व
जबरन विलय से एक ऐसी वस्तु बनती है जो विलय के पहले के मजबूत बैंकों की तुलना में काफी कमज़ोर होती है। लेकिन इस तथ्य से कतई इंकार नहीं है कि भारत में ऐसे कितने ही बैंक सरकारी क्षेत्र में हैं जिनका विलय सिर्फ कागज पर ही अच्छा लगता है। विलय से हमेशा गलत संकेत जाते हैं।
यह ज़रूरी है कि सरकार बैंक ऑफ बड़ौदा, विजया बैंक और देना बैंक के विलय की घोषणा का बारीक अध्ययन कराए क्योंकि इसके ‘वैल्यू एडीशन’ पर कतई विचार नहीं किया गया है। इस कारण यदि बाजार ने इस फैसले के विरोध में प्रतिक्रिया दी है तो चकित नहीं होना चाहिए।
सरकार का तो यही रवैया था कि किसी तरह देना बैंक को किसी मजबूत बैंक मसलन बैंक ऑफ बड़ौदा का पिछलग्गू बना दो साथ ही विजया बैंक का लॉलीपाप थमा दो जिससे मामला सुलझ जाए। बैंक ऑफ बड़ौदा की बेहतर स्थिति पूंजी के मामले में है। इसने अभी हाल अपने तमाम जानकारों के एनपीए खत्म करने का तरीका भी शुरू कर दिया है। विजया बैंक उन कुछ बैंकों में है जो तब भी नफा कमा रहे थे जब ज्य़ादातर सार्वजनिक बैंक खतरे झेल रहे थे।
सकारात्मक सोच
विजया बैंक की अपनी बावन फीसद शाखाएं दक्षिणी क्षेत्र में ही हैं जबकि बैंक ऑफ बड़ौदा की दस फीसद शाखाएं दक्षिण में हैं इससे इनकी पकड़ का लाभ तो होगा। लेकिन देना बैंक की गुजरात में ज्य़ादा शाखाएं हैं जहां बैंक ऑफ बड़ौदा भी है। देना बैंक में तीन साल का वह घाटा भी जोड़ा जाएगा जब वहां कामकाज एकदम ठप्प था।
बढ़ रहे नाम पर नॉन परफॉमिंग एसेट (एनपीए) को खत्म करने की कोशिश में सरकार को दूसरी बड़ी भूल नहीं करनी चाहिए। इसे अभी स्टेट बैंक ऑफ इंडिया के साथ किए गए प्रयोग का जायजा भी ले लेना चाहिए तभी उसे सब जगह लागू करने लायक समाधान बनाना चाहिए। एसबीआई का कुल लाभ तेजी से गिरा है। आखिरकार इसे पांच अपने सहयोगी बैंकों और भारतीय महिला बैंक को भी जोडऩा पड़ा। इसी तरह बीमार आईडीबीआई का लाइफ इन्श्योरेंस के साथ विलय भी अच्छा व्यावसायिक फैसला नहीं कहा जा सकता।
विलय और एक्विजिशन (एमएंडए) की प्रक्रिया में कोई गलती नहीं है लेकिन इसे पूरी तौर पर व्यावसायिक धरातल पर जांच-परख कर ही अमल में लाना चाहिए। इसे राजनीतिक तौर पर लादना नहीं चाहिए। फिर सार्वजनिक क्षेत्र को हमेशा सरकार बढ़ावा देती है। उन्हें चलाने के लिए उनके पेशेवर बोर्ड होते हैं जो खुद ऐसे फैसले लेने में समर्थ हैं।
बैंकिंग सुधार का भविष्य
सुनने में आ रहा है कि बैंक ऑफ बड़ौदा और विजया बैंक के देना बैंक से विलय के शोर के बाद और भी कई विलय और बैंकों की मजबूती की शुरूआत हो गई है। अब सब की निगाहें प्रस्तावित विलय पर केंद्रित हैं। वे यह जानना चाहते हैं कि यह विलय कितना उपयोगी साबित होता है। बैंक अधिकारियों का अनुमान है कि इस प्रक्रिया के पूरा होने में चार से छह महीने का वक्त लगेगा ही। निवेशक और बैंकर यह मानते हैं कि यह विलय इसलिए भी महत्वपूर्ण है क्योंकि इसके आधार पर भविष्य के फैसले लिए जाएंगे। कामकाज के लिहाज से यदि चुस्ती आती है यह सकारात्मक काम होगा और देश का यह तीसरा सबसे बड़ा कर्ज देने वाला बैंक समूह होगा।
विलय के बाद फंड की लागत भी कम होने की संभावना है क्योंकि विजया बैंक पूरी तौर पर कम अवधि की जमा राशि पर निर्भर है जो प्राकृतिक तौर पर खासी महत्वपूर्ण भी है।
तीनों बैंकों का समृह अब एक ऐसा प्रयोग है जो सरकारी क्षेत्र के तमाम बैंकों के भविष्य को तय करेगा। इसके नतीजों को देखकर ही सरकारी बैंकों के विलय और एक्विजिशन, की रूपरेखा बनेगी जिसका लाभ वित्तीय संस्थान और दूसरे सार्वजनिक उद्यम भी ले सकेंगे जहां ज्य़ादा श्रम शक्ति है और मनमाना लेनदेन है और जहां पसंदगी और नापसंदगी के आधार पर ऊंटपटांग फैसले लिए जाते हैं।