वे ऐसे किंग हैं जिनकी चर्चा आम तौर पर मीडिया में नहीं होती. पर मध्य बिहार के राजनीतिक गलियारे और गंवई चौपालों की सियासी बहस का वे लाजिमी हिस्सा हुआ करते हैं. लोग उनके असल नाम की बजाय उन्हें किंग कह कर ही संबोधित करते हैं. वे सार्वजनिक मंचों पर नहीं दिखते. सरकारी-गैरसरकारी समारोहों से दूर का वास्ता भी नहीं रखते. भाषणबाजी तो जैसे उनके लिए है ही नहीं. राजनीतिक और नीतिगत फैसले भी नहीं लेते, पर फैसले को अपनी जरूरतों और इच्छाओं के हिसाब से प्रभावित करने का माद्दा रखते हैं. एक धनाढ्य उद्योगपति होने के बावजूद वे खुद को एक राजनेता ही कहलाना पसंद करते हैं. बिहार की सत्ताधारी राजनीति जब भी गरमाती है तो पर्दे के पीछे से उनके सियासी रसूख की तपिश को महसूस तो किया जा सकता है, पर उन्हें न तो देखा जा सकता है और न ही सुना. इसलिए देश भर की तो बात ही छोड़िए, बिहारी जनमानस की बड़ी आबादी के लिए भी वे अनजाने ही हैं.
पर वे राजनीतिक रूप से कितने महत्वपूर्ण हैं इसका अंदाजा लगाने के लिए सिर्फ यह जानना काफी है कि संसद में पहुंचने के लिए जो तीन संवैधानिक रास्ते हैं वे उन सब पर टहल चुके हैं. जनता के वोट से चुन कर वे लोकसभा पहुंचे हैं. यह 1980 की बात है जब वे कांग्रेस के टिकट पर जहानाबाद से जीते थे. 1984 में वे चुनाव हार गए, लेकिन राष्ट्रपति द्वारा मनोनयन के रास्ते वे राज्यसभा पहुंच गए. इसके बाद वे पहले राष्ट्रीय जनता दल और बाद में जनता दल यूनाइटेड के सहारे ऊपरी सदन पहुंचते रहे. 1980 से 2012 तक का उनका यही राजनीतिक सफर है. राज्यसभा में यह उनकी सातवीं पारी है.
उनका नाम है महेंद्र प्रसाद. हालांकि वे खुद को किंग महेंद्र कहलवाना पसंद करते हैं. फिलहाल वे सिर्फ इसलिए चर्चा में नहीं हैं कि वे सातवीं बार राज्यसभा के सदस्य बने हैं, बल्कि इसलिए भी कि उनकी वजह से उनके दल के दो ऐसे नेता भी राज्यसभा की सदस्यता दोबारा पा गए जिन्होंने शायद खुद के लिए ईश्वर-अल्लाह से प्रार्थना करना भी छोड़ दिया था. ये हैं अली अनवर और अनिल साहनी. अनवर और साहनी पहले भी सत्ताधारी जदयू से राज्यसभा के सदस्य थे. पिछले सात साल में जब भी राज्यसभा के चुनाव हुए हैं, जदयू यह घोषित करता रहा है कि किसी नेता को लगातार दो बार राज्यसभा भेजना उसकी परंपरा नहीं है. ऐसे में अली अनवर और अनिल साहनी के लिए दोबारा ऊपरी सदन का सदस्य बनने की संभावना नहीं थी. पर पार्टी की राजनीति पर गहरी नजर रखने वाले विश्लेषकों के अनुसार यह किंग महेंद्र ही थे जिनके लिए जदयू को यह परंपरा तोड़नी पड़ी. किंग महेंद्र राज्यसभा में खुद के जाने के प्रति कितना आश्वस्त थे इसका अंदाजा उनकी उस बात से लगाया जा सकता है जो उन्होंने निर्विरोध चुने जाने के बाद कही. उनका कहना था, ‘अगर राज्यसभा की एक सीट के लिए भी चुनाव होता तो हमारी जीत पक्की होती.’
देखा जाए तो बिहार में राजनीति के खेल में चित और पट, दोनों किंग महेंद्र की रही है. 1980 से आज तक वे हर सत्ताधारी पार्टी से सांसद रहे हैं. जब कांग्रेस सत्ता में थी तब वे घोर कांग्रेसवादी हुआ करते थे. फिर मंडल के दौर में पिछड़े नेताओं का उभार हुआ तो भी भूमिहार जाति से ताल्लुक रखने वाले किंग का रुतबा बरकरार रहा. 1990 में लालू ने सत्ता संभाली तो भी किंग लालू की आंखों का तारा बने और राज्यसभा पहुंचते रहे. वह भी तब लालू के इस दौर को उच्चवर्ग के राजनीतिक पतन के दौर के रूप में देखा गया. फिर 2005 में लालू के घोर विरोध का बिगुल बजा कर जब नीतीश सत्ता में आए तब भी किंग महेंद्र, किंग ही बने रहे और नीतीश की तरफ से 2006 में राज्यसभा पहुंचाए गए. अब 2012 में वही इतिहास दोहराया गया है.
पिछले लगभग 32 साल में से कम-से-कम 25 साल किंग महेंद्र रसायन और उर्वरक मंत्रालय की संसदीय सलाहकार समिति के सदस्य जरूर रहे हैं
सवाल उठता है कि आखिर क्यों बिहार का हर सत्ताधारी दल एक चर्चित दवा कंपनी एरिस्टो के इस मालिक को इतनी तरजीह देता रहा है क्या इसकी वजह आर्थिक मदद है? इस सवाल का जवाब जदयू के बैंक खातों की जानकारी रखने वाले एक वरिष्ठ नेता गोपनीयता की शर्त पर देते हैं. वे कहते हैं, ‘हम काले और सफेद धन की बहस में नहीं जाना चाहते. सीधी बात यह है कि चुनाव या इस तरह के दीगर अवसरों पर, जब भी पार्टी को जरूरत पड़ती है वे खुल कर आर्थिक सहायता करते हैं. यह सहायता निश्चित तौर पर निर्धारित नियमों के अनुसार चेक से की जाती है. इससे उन्हें भी टैक्स छूट का फायदा तो मिलता ही है’.
लेकिन क्या सचमुच उनकी किसी भी सत्ताधारी पार्टी के लिए महज इतनी ही उपयोगिता है कि उनसे पार्टी फंड में पैसे लिए जाएं? जदयू के ही सांसद और हाल के दिनों में किंग से छत्तीस का आंकड़ा रखने वाले जगदीश शर्मा भी इस सवाल पर बेहद सावधान दिखते हैं. वे कहते हैं, ‘किंग महेंद्र गहरी समझ वाले नेता हैं. समय-समय पर पार्टी को उनके राजनीतिक अनुभवों का लाभ मिलता रहता है. सिर्फ फंड ही एक मामला नहीं है जिसके कारण पार्टी उन्हें पसंद करती है. उन्होंने अपनी कंपनी के माध्यम से हमारे क्षेत्र के सैकड़ों लोगों को रोजगार दिया है’.
किंग महेंद्र 1980 से यानी पिछले लगभग 32 साल में से कम-से-कम 25 साल संसद की एक खास समिति के सदस्य जरूर रहे हैं. यह संसदीय समिति है रसायन और उर्वरक मंत्रालय की संसदीय सलाहकार समिति. इस समिति के सदस्य रहने के कारण कई लोग आरोप लगाते रहे हैं कि वे अपनी दवा कंपनी को लाभ पहुंचाने के लिए इस समिति से जुड़े रहते हैं. हालांकि जगदीश शर्मा कहते हैं कि ऐसे आरोप ईर्ष्या रखने वाले लोग ही लगाते हैं. वे कहते हैं, ‘उनकी दवा कंपनी एक स्थापित कंपनी है जिसे वे 30 सालों से सरकार के भरोसे ही नहीं चला रहे. जहां तक संसदीय सलाहकार समिति की सदस्यता की बात है तो यह सब जानते हैं कि ज्यादातर सांसद किसी-न-किसी संसदीय समिति के सदस्य होते ही हैं. इसमें क्या अजूबा है?’
जहानाबाद में गोविंदपुर गांव के मूल निवासी 72 वर्षीय किंग महेंद्र के नाम विश्व भ्रमण के कई रिकॉर्ड भी हैं और जुबान न खोलने का भी उनका रिकॉर्ड अद्भुत रहा है. दूसरे शब्दों में कहें तो संसद में चुप बैठने का अगर रिकॉर्ड निर्धारित किया जाए तो किंग इसमें भी शायद सब पर भारी पड़ें. आंकड़े बताते हैं कि अपने 30 साल के संसदीय करियर में किंग ने अब तक मात्र पांच सवाल पूछे हैं. शुरुआत से ही वे प्रेस से बात करने से परहेज करते रहे हैं. यही वजह है कि काफी कोशिशों के बाद भी तहलका की उनसे बात नहीं हो सकी. उनके दल के राज्यसभा सांसद अली अनवर कहते हैं, ‘महेंद्र जी सार्वजनिक जीवन में खामोश रहना पसंद करते हैं पर निजी बातचीत में वे काफी शालीन, हंसमुख और यात्रापसंद इंसान हैं.’ वे आगे कहते हैं ‘किंग महेंद्र को एक हद तक राज्यसभा की वेबसाइट में छपी जानकारियों से समझा जा सकता है.’
राज्यसभा की वेबसाइट से किंग के बारे में जो जानकारी सामने आती है, उसका विश्लेषण भी काफी दिलचस्प है. अगर आप अंग्रेजी अक्षरमाला के तमाम 26 अक्षरों से शुरू होने वाले देशों के नामों की सूची देखें तो इनमें सिर्फ ‘एक्स’ ही वह अक्षर है जिससे शुरू होने वाले देश का भ्रमण किंग ने नहीं किया है. वह भी इसलिए कि ‘एक्स’ अक्षर से दुनिया के किसी भी देश का नाम शुरू नहीं होता. किंग के नाम एक रिकॉर्ड यह भी है कि उन्होंने एक वित्तीय वर्ष यानी अप्रैल 2002 से अप्रैल 2003 के दौरान 84 देशों का भ्रमण किया था. सबसे ज्यादा यात्रा करने वाले सांसद होने का गौरव उन्हें हासिल है. वे लिम्का बुक ऑफ रिकॉर्ड्स की राष्ट्रीय रिकॉर्ड श्रेणी में भी हैं. यहां उन्होंने 2004 से 2010 तक सबसे ज्यादा देशों का भ्रमण करने वाले भारतीय का रिकॉर्ड भी अपने नाम किया है.
एक साल पुरानी जानकारी के अनुसार किंग दुनिया के कुल 258 में से 205 देशों में अपने पांव रख चुके हैं. उनके इस रिकॉर्ड के मुख्यमंत्री नीतीश कुमार भी कायल हैं. पिछले दिनों जब किंग महेंद्र राज्यसभा के लिए नामांकन भरने पटना पहुंचे तो उनका परिचय कराते हुए मुख्यमंत्री ने अपने चेहरे पर मुस्कान बिखेरते हुए कहा, ‘महेंद्र जी सोमालिया छोड़कर दुनिया के सभी देशों का दौरा कर चुके हैं. अबकी बार वे वहां भी पहुंच जाएंगे.’ मुख्यमंत्री के इस रहस्योद्घाटन से लगा कि इस एक साल में किंग ने कम-से-कम 50 और देशों का भ्रमण कर लिया है.
सादा जीवन पर शाही अंदाज के शौकीन महेंद्र प्रसाद खान पान में अब भी बिहारी जरूर हैं पर वे बिहार में कम ही दिखते हैं. इसी तरह भले ही उनकी दवा फैक्टरियों में सैकड़ों बिहारी काम करते हैं पर उनके कारोबार का बड़ा हिस्सा बिहार से बाहर ही है. इसके बावजूद बिहार के हर सत्ताधारी राजनीतिक दल को उनके फंड का लाभ जरूर मिलता रहता है. हालांकि यह भी कहा जाता है कि जैसे उनकी फैक्ट्रियां गुजरात से वियतनाम तक फैली हुई हैं, वैसे बिहार में भी होतीं तो कुछ लाभ बिहारी जनता को भी जरूर होता.