शिवेन्द्र राणा
अपने अज्ञातवास के समय एक बार लेनिन पेरिस (फ्रांस) की सडक़ों पर टहल रहे थे। भूखे ज़ोर की लगी थी, पैसे थे नहीं। एक वेटर ने उन्हें खाना खिलाया। जब लेनिन ने भविष्य में पैसे चुकाने के लिए उसका पता माँगा, तब वेटर ने कहा कि यह उसने सिर्फ़ मानवता के नाते किया था। सन् 1917 में क्रान्ति हो गयी और लेनिन रूस के राष्ट्रपति बने। उन्होंने उस वेटर के पास कुछ पैसे, एक महँगा उपहार और एक पत्र भेजा। उन्होंने लिखा- ‘आपने मेरे बुरे दिनों में मेरा साथ दिया, इसका धन्यवाद। आज मेरे अच्छे दिन आ गये हैं। मैं आपको कुछ तुच्छ उपहार भेज रहा हूँ। कृपया इसे स्वीकार कीजिए।’
उस वेटर ने उपहार एवं पैसे लौटाते हुए उसी पत्र के पिछले हिस्से पर लेनिन के लिए संदेश लिखा- ‘आप कृपया अन्यथा न लें। इसे स्वीकार करने का अर्थ होगा कि मैंने आपकी सहायता आपके अच्छे भविष्य में आपसे कुछ प्राप्त होने के प्रलोभन में की थी। इससे मानवता का उद्देश्य पराजित होगा। अत: मैं आपके पैसे और उपहार लौटा रहा हूँ। लेकिन अच्छे दिनों में अपने बुरे वक़्त के साथियों को यदि आप इसी तरह हमेशा याद रखेंगे; उनका सम्मान करेंगे; तो अच्छा वक़्त हमेशा आपके साथ बना रहेगा।’
भाजपा-संघ को इस प्रकरण का संदेश समझने की ज़रूरत है। पार्टी एक साल बाद आम चुनाव में उतरने की तैयारी में है; लेकिन काडर में असंतोष चरम की ओर है। आमतौर पर पूरी भगवा लॉबी दो तरह के काडर में बँटी थी- एक जनसंघ-भाजपा की दूसरा खांटी संघियों की। अब पिछले पाँच-छ: वर्षों में भाजपा का अनुशासित काडर लुप्तप्राय है। संघ का शेष है; लेकिन उसमें भी कालनेमियों की भरमार है, जो भाजपा के टिकट पर लाभार्थी बनने की फ़िरिक़ में हैं। आज कैमरे और सोशल मीडिया पर भाजपा नेताओं की जो चमक-दमक दिख रही है, बस ये ऊपर की गाज-फेन है। धरातल पर सब नदारद है।
लालकृष्ण आडवाणी ने सन् 2004 में भाजपा की स्तब्ध करने वाली पराजय की समीक्षा करते हुए लिखा था- ‘हालाँकि निष्क्रियता तथा भ्रष्टाचार विधिसम्मत शिकायतें हैं; लेकिन इससे भी ज़्यादा मतदाता और पार्टी के कार्यकर्ता निर्वाचित प्रतिनिधियों के अहंभाव से क्षुब्ध थे। कांग्रेस तथा कुछ अन्य व्यक्ति-केंद्रित राजनीतिक पार्टियों से अलग पार्टी कार्यकर्ता भाजपा की रीढ़ की हड्डी हैं। जहाँ पार्टी कार्यकर्ता रुठे रहते हैं या पूरी तरह से प्रेरित नहीं होते हैं, वहाँ जनता के सामने सरकार की सकारात्मक छवि नहीं बन पाती। अपने कार्यकाल के छ: वर्षों में हमने पार्टी और सरकार के बीच समन्यव स्तर पर पायी गयी कमियों के कारण कुछ हद तक अपने कार्यकर्ताओं की उपेक्षा की।’
वर्तमान स्थिति इससे अधिक विद्रूप है। पिछले नौ वर्षों में सत्ता ने भाजपा नेतृत्व को इतना अहंकारी बना दिया है कि उसने अपने ही काडर की उपेक्षा और अपमान किया जा रहा है। लगता नहीं है कि पार्टी अपने अतीत या वर्तमान से कुछ सीखने को तैयार है। कर्नाटक की हार के बाद भी पार्टी की कार्यशैली नहीं बदली। उसके लक्षण बता रहे हैं कि वह इस साल के अन्त तक मध्य प्रदेश भी गवाँ देगी। और इसके लिए विरोधियों की एकजुटता से अधिक उसके काडर का मौन विरोध ही काफ़ी होगा।
कितना आश्चर्यजनक है कि भाजपा-संघ द्वारा बाहर से आयातित, अपने विरोधी रहे नेताओं को बड़ा सम्मान प्रदान किया जाता है। जैसे, बसपा प्रमुख मायावती की जी-हुजूरी करने वाले एवं बाद में उनको छोडक़र सत्ता के हमराही बने बृजेश पाठक; बसपा और सपा में उछलकूद करते रहे अभी एक साल पहले भाजपा को गालियाँ देते हुए सपा के साथ जाने वाले पुन: सत्ता सुख के लिए भाजपा में पहुँचे दारा चौहान; ऐसे ही बहुजन मिशन को धोखा देकर भाजपाई बने स्वामी प्रसाद मौर्य, जो पाँच साल सत्ता सुख भोगकर ऐन चुनाव से पहले भाजपा को गालियाँ देते हुए सपा में गये। दूसरी ओर उनकी बेटी पिता का खुलेआम समर्थन करके पूरी ठसक से सत्ता संगिनी बनी हुई हैं। कांग्रेस से आये वर्तमान पंजाब भाजपा के प्रदेश अध्यक्ष सुनील जाखड़, सपा से आये नरेश अग्रवाल, राजद से आये रामकृपाल यादव, कई पार्टियों के भ्रमणशील फागू चौहान आदि। हालाँकि इन्हें सक्षम मानने वाले भाजपाई सोचें कि अगर ये इतने क़द्दावर हैं, तो 2014 की भाजपा लहर में ही अपने दलों को जितवा देते। ऐसे ही अवसरवादियों की आमद से पार्टी काडर भ्रष्ट हो चला है। एक वक़्त था, जब भाजपा द्वारा आमंत्रित 500 कार्यकर्ताओं में 50 इकट्ठे होते थे, किन्तु यह सभी अनुशासित एवं पार्टी की विचारधारा के प्रति समर्पित होते थे। आज 50 को आमंत्रित करने पर 5,000 आसानी से एकत्रित हो जाते हैं। लेकिन अधिकांश लम्पट और ज़ाहिल क़िस्म के होते हैं। और अब पार्टी का ऐसे असामाजिक तत्त्वों पर नियंत्रण भी नहीं रहा है। अब तो देश के सर्वाधिक अनुशासित काडर वाले संघ की भी यही स्थिति है। वरना उसके अनुषांगिक संगठन राष्ट्रवादी मुस्लिम मंच की इतनी हैसियत नहीं होती कि वह नूपुर शर्मा के विरुद्ध दिन-दिहाड़े मज़हबी, उन्मादी नारे लगाता।
अपने वैचारिक विरोधियों के लिए संघ-भाजपा की थ्योरी थी कि जो जितना हिन्दू धर्म-संस्कृति को गलियाँ देता है, अपमानित करता है वह विपक्षियों की नज़र में उतना ही बड़ा सेक्युलर है। अब नयी थ्योरी है कि संघ-भाजपा को जो जितना अधिक कोसता है, वह उन्हें उतना ही अधिक प्रिय है। अब देखिए, कल तक भाजपा-संघ को भगवा आतंक का पर्याय कहने वाले जितिन प्रसाद, ज्योतिरादित्य सिंधिया, आरपीएन सिंह जैसे कांग्रेसी सरकार में अतिविशिष्ट हैं। जिस अजीत पवार ने महाराष्ट्र में सरकार को समर्थन के नाम पर दग़ा देकर पार्टी की फ़ज़ीहत करायी, आज उन्हें ही उप मुख्यमंत्री बना दिया गया। दो दशकों तक पीडीपी के अलगाववादी सुर के ख़िलाफ़ हिन्दुत्व वाले भाजपा नेताओं ने महबूबा मुफ़्ती के साथ निर्लज्जता से मास्टर स्ट्रोक के नाम पर सत्ता सुख भोगा। असल में इन सबके पीछे इनकी नैतिकताविहीन-निर्लज्ज सत्तालोलुपता रही है, जिसे जनता अब स्पष्ट देख-समझ पा रही होगी।
तो ये है पार्टी विद् डिफरेंस की नैतिकता और उसका उसूल, जो ऐसे सिद्धांतहीन लोगों के लिए रेड कारपेट बिछाने को तैयार रहती है और अपने काडर को जूते की नोक पर रखती है। संघ-भाजपा के विचारहीनता की यह हद है कि जिनसे धोखा खाती है और अपमानित होती है, उन्हें सर-आँखों पर बिठाने से नहीं चूकती। तो फिर वह किस मुँह से अपने काडर से समर्पण एवं निष्ठा की उम्मीद रखती है?
यही नहीं, भाजपा-संघ विरोध में लिप्त रहे प्रशासनिक अधिकारी भी वर्तमान सत्ता में सिरमौर बने हुए हैं। उदाहरणस्वरूप नृपेंद्र मिश्र, जिन्हें नियमों में बदलाव कर पीएमओ में लाया गया था। इनके प्रमुख सचिव रहते ही अयोध्या में कारसेवकों पर गोली चलवायी गयी थी। आज वही राम मंदिर निर्माण समिति के चेयरमैन हैं। यानी जिनके हाथ राम सेवकों के ख़ून से रंगे हैं, उन्हीं को मंदिर निर्माण की ज़िम्मेदारी मिल गयी। उनके बेटे साकेत मिश्र को भी उत्तर प्रदेश विधान परिषद् का सदस्य बनाया गया है। ये भाजपाई किसे बेवक़ूफ़ बना रहे हैं? ऐसे ही आडवाणी को रथयात्रा के दौरान तत्कालीन लालू राज में अपने नंबर बढ़वाने के लिए आडवाणी को गिरफ़्तार करने वाले उस समय के समस्तीपुर के ज़िलाधिकारी आर.के. सिंह आज आरा के सांसद हैं और मंत्री पद से सम्मानित हैं। जबकि धनबाद के उस समय के उपायुक्त अफ़ज़ल अमानुल्लाह ने ऐसे ही निर्देश को फ़्तानून-व्यवस्था के लिए संकट मानकर स्वीकार नहीं किया था, और उन्हें कोई इनाम नहीं मिला। आम कार्यकर्ताओं के साथ आर.के. सिंह का रूखा एवं अहंकार भरा व्यवहार चर्चा में रहता है। वह कई बार सार्वजनिक रूप से भाजपा का अपमान कर चुके हैं। लेकिन फिर भी पार्टी उन्हें ढो रही है। वैसे बताते चलें कि ये वही आर.के.सिंह हैं, जिन्होंने कांग्रेस सरकार में गृहसचिव के पद पर रहते हुए हिन्दू आतंकवाद की थ्योरी दी थी और संघ को हिन्दू आतंकियों का प्रशिक्षण केंद्र बताया था। इसी प्रकार भाजपा सरकार में विशेष रुतबा प्राप्त मुख्यमंत्री योगी आदित्यनाथ के सलाहकार आईएएस अवनीश अवस्थी एक समय सपा नेतृत्व के नाक के बाल हुआ करते थे। और आज देखिए!
आज़ादी के बाद यह पहली सरकार है, जिसमें नौकरशाहों को इतनी प्रमुखता प्राप्त है। यदि भाजपा नेतृत्व को नौकरशाहों को ही जनप्रतिनिधि के रूप में पार्टी एवं जनता पर लादना है, तो उसे युवा नेतृत्व एवं काडर की क्या आवश्यकता है? आज केंद्र ही नहीं, बल्कि राज्य स्तर पर जहाँ भाजपा सरकारें हैं; सत्ता संरक्षण में प्रशासनिक अमला स्वेच्छाचारी एवं निरंकुश है। उसके कामों में कोई जनपक्ष नहीं बचा है; क्योंकि जनप्रतिनिधियों का ही सम्मान नहीं है। आज नौकरशाही के हौसले इतने बुलंद हैं कि वे आम पार्टी कार्यकर्ता तो दूर, विधायक-सांसदों को अपमानित करने से नहीं चूक रहे हैं। यह समस्या सिर्फ़ यहीं तक सीमित नहीं है। पत्रकारों, लेखकों समेत तमाम बुद्धिजीवी वर्ग को, जो संघ-भाजपा की वैचारिक लड़ाई लड़ता रहा; सत्ता के स्वर्णिम काल में भी हासिये पर है। जब वामपंथी वर्ग यह कटाक्ष करता है कि सरकार भले उनकी हो, सिस्टम तो हमारा है; तो यह बहुत हद तक यथार्थ है। क्योंकि आज भी वे बौद्धिक क्षेत्र में हावी हैं और अपने लोगों को आगे बढ़ा रहे हैं। आज भी तमाम शैक्षणिक एवं साहित्यिक संस्थानों पर उनका क़ब्ज़ा है। लेकिन भाजपा-संघ को इसकी सुध नहीं कि वो अपने समर्थक बुद्धिजीवियों को इन पदों से सम्मानित करें या उनकी प्रगति के प्रस्तावक बनें। किन्तु उन्हें केवल चुनावी बढ़त की चिन्ता है। पिछले नौ वर्षों में संघ-भाजपा ने हर मोर्चे पर अपने प्रभाव के प्रसार का प्रयास तो किया, किन्तु बौद्धिक मोर्चा ख़ाली ही रहा है। यह सब असावधानीवश नहीं हुआ है, बल्कि नेतृत्व ने दृढ़ता नहीं दिखायी। वरना लेखकों, पत्रकारों, प्राध्यापकों के एक बड़े बौद्धिक समूह ने लम्बे समय तक संघ-भाजपा के पक्ष में वामपंथी जमात से लोहा लिया था। आज अपनी ही सरकार और संगठन द्वारा उपेक्षित, अपमानित यह वर्ग भी है। जैसे पत्रकार एवं लेखक संदीप देव ने निरंतर संघ-भाजपा के लिए विपक्ष से खुलेआम मोर्चा लिया, आज अपमानित किये जा हैं। वर्तमान में कॉरपोरेशन और दूसरी अन्य संस्थाओं में अध्यक्ष तथा निदेशक के अधिकांश पद ख़ाली हैं, जहाँ पार्टी द्वारा वरिष्ठ नेताओं और काडर को समायोजित किया जा सकता है; लेकिन अपनी और अपने बच्चों की कुर्सी सुरक्षित करने के इंतज़ाम में लगे शीर्ष भाजपाई नेतृत्व को अपने काडर की चिन्ता कहाँ है? बस इनकी अपनी सत्ता बनी रहे। आज संघ और भाजपा के समर्पित लोग दबी ज़ुबान से कहने लगे हैं कि जितना अपने कार्यकर्ताओं का अपमान पार्टी और संगठन करता है, उतना तो विरोधी भी नहीं करते। स्पष्ट है शीर्ष पर पहुँचे लोग केवल सत्ता-पिपासु हैं; जिन्होंने धार्मिक गोलबंदी, राष्ट्रवाद एवं नये भारत के निर्माण के नारे के द्वारा आम जनता के साथ ही अपने काडर को भी छला है।
सूफ़ी परम्परा के सबसे चर्चित सन्तों में से सम्मिलित बाबा बुल्ले शाह कहते हैं :-
‘पहाड़ा ते चढ़ते सिलाब वेखे,
विच कंडया दे रूलदे गुलाब देखे,
दौलत ते इतना मान ना कर बंदया,
सडक़ा ते रूलदे नवाब वेखे’
शायद ये सलाह अहंकार से ग्रसित संघ-भाजपा को भविष्य में लज्जित एवं अपमानित होने से बचा ले। अन्यथा तारीख गवाह है कि जब इंदिरा गाँधी का अहंकार नहीं टिका, तो इनका घमंड भी नहीं टिकेगा। अत: इसे समझने-समझाने से परे थोड़ा इंतज़ार करिए इनकी दुर्दशा और दुर्दिन अब अधिक दूर नहीं है।
(लेखक पत्रकार हैं। ये उनके अपने विचार हैं।)