एक फिल्मी गीत है – ‘मैं इधर जाऊँ या उधर जाऊँ।’ कांग्रेस की कुछ ऐसी ही स्थिति है; या कहिए कि दुविधा में है। कांग्रेस में साफ तौर पर दो तरह की सोच बन गयी है। एक दक्षिण की तरफ देख रही है और दूसरी पश्चिम दिशा की तरफ। दिशाएँ विपरीत हैं और दोनों में कोई एक-दूसरे से समझौता करने को तैयार नहीं; जबकि पार्टी की समस्या का एक ही हल है- मध्य मार्ग। अर्थात् पार्टी के सभी नेता एक नयी टीम तैयार करें, जिनमें अनुभव और युवा जोश का मिश्रण हो।
सोनिया गाँधी कांग्रेस और कांग्रेस से बाहर इसलिए अविवादित नेता बन सकीं, क्योंकि उन्होंने सबको साथ लेकर चलने की नीति अपनायी। सोनिया गाँधी ने तो उन शरद पवार को भी माफ करके यूपीए में साझेदार बना लिया, जिन्होंने उनके खिलाफ बहुत ही कटु शब्द बोलते हुए कांग्रेस से विद्रोह किया था। कुछ और भी उदाहरण हैं; जैसे कि तारिक अनवर, जो अब कांग्रेस में ही आ चुके हैं।
इसमें रत्ती भर भी शक नहीं कि राहुल गाँधी ही सोनिया गाँधी के बाद कांग्रेस में ऐसे नेता हैं, जो देशव्यापी प्रभाव और पहचान रखते हैं। कई सर्वे भी यही बताते हैं कि प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी के बाद देश के सबसे लोकप्रिय नेता वही हैं। सोनिया गाँधी की जगह निश्चित ही उन्हें अध्यक्ष बनाया जाना चाहिए। हालाँकि राहुल गाँधी को यह सुनिश्चित करना होगा कि उनके आने से किसी नेता में असुरक्षा की भावना न बने। उन्हें तब तक कांग्रेस को सोनिया गाँधी की सबको साथ लेकर चलने वाली कांग्रेस बनाकर रखना होगा, जब तक कि वह अपने बूते इंदिरा गाँधी के समय वाली ताकतवर कांग्रेस नहीं बना लेते।
पिछले लोकसभा चुनाव में हार के बाद राहुल गाँधी द्वारा अध्यक्ष पद से इस्तीफा देने के बाद सोनिया गाँधी को पार्टी का अंतरिम अध्यक्ष बनाया गया था, लेकिन नये अध्यक्ष के लिए कांग्रेस में कवायद शुरू हो गयी थी। पार्टी की 24 अगस्त की कार्यकारिणी (सीडब्ल्यूसी) की बैठक से पहले काफी ऊहापोह की स्थिति बनी। राहुल गाँधी के अपने नेताओं के भाजपा हित वाले आरोप पर वरिष्ठ नेता कपिल सिब्बल भड़क गये थे, लेकिन बाद में शान्त हो गये। अब बैठक में तय हुआ है कि कोरोना का प्रभाव कम होते ही अगले छ: महीने के भीतर पार्टी एआईसीसी का अधिवेशन करेगी। पूरी सम्भावना है कि कांग्रेस अध्यक्ष का चुनाव होगा। इसमें कोई गैर-गाँधी भी चुनाव लड़ सकेगा। जल्दी ही एक समिति बनेगी, जो चुनाव से पहले की प्रक्रिया पर काम करेगी। वहीं, सीडब्ल्यूसी की बैठक से जो संकेत मिले, वो यही हैं कि राहुल गाँधी के अध्यक्ष बनने की सूरत में वरिष्ठ नेता पार्टी का भविष्य खतरे में देखते हैं।
तहलका की भरोसेमंद जानकारी के मुताबिक, देश के एक बहुत वरिष्ठ नेता, जो अब कांग्रेस में नहीं हैं; अपने लिए बड़ा पद मिलने की सूरत में अपनी पूरी पार्टी समेत कांग्रेस में लौटने के लिए तैयार थे। कांग्रेस के कुछ बड़े नेताओं की उन्हें पार्टी में वापस लाने की गुप्त मुहिम चली थी। सूत्रों के मुताबिक, 23 वरिष्ठ नेताओं की चिट्ठी का ताल्लुक इसी मुहिम से था। पार्टी में राहुल को नहीं चाहने वाले इन नेताओं का मानना था कि ये वरिष्ठ नेता कद के मामले में प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी का भी मुकाबला करने में सक्षम हैं।
सीडब्ल्यूसी की बैठक में पास प्रस्ताव में इस चिट्ठी के खिलाफ सख्त शब्दों का इस्तेमाल इसलिए किया गया था, क्योंकि सोनिया गाँधी तक भी यह खबर पहुँच गयी थी। जान-बूझकर चिट्ठी को भाजपा से जोड़कर बताया गया। सोनिया गाँधी के राजनीतिक सलाहकार अहमद पटेल ने बैठक में राहुल गाँधी को पार्टी का ज़िम्मा सँभालने को कहा, जो एक बड़ी बात है। क्योंकि पटेल जो कहते हैं, उसे सोनिया गाँधी की बात माना जाता है। इससे यह साफ लगता है कि एआईसीसी के अधिवेशन में राहुल गाँधी को अध्यक्ष चुना जाएगा।
हालाँकि इस दौरान कांग्रेस की गतिविधियाँ दिलचस्प रहेंगी। साथ ही यह भी देखना दिलचस्प होगा कि वरिष्ठ नेता, जिनमें गुलाम नबी आज़ाद, आनंद शर्मा, मनीष तिवारी, कपिल सिब्बल, शशि थरूर आदि शामिल हैं; अपने अन्य साथियों के साथ मिलकर क्या योजना बनाते हैं? ‘तहलका’ की जानकारी के मुताबिक, आने वाले समय में पत्र लिखने वाले नेताओं के खिलाफ कार्रवाई भी हो सकती है।
सोनिया गाँधी 23 नेताओं के पत्र और इसकी भाषा से सख्त नाराज़ हैं। लेकिन यह भी एक बड़ा सच है कि कांग्रेस का एक बहुत बड़ा तबका गाँधी परिवार से बाहर जाने के खिलाफ ही नहीं है, उसे लगता है कि गाँधी परिवार के टॉप पर न रहने से कांग्रेस खत्म हो जाएगी। उनका कहना है कि एनडीए सरकार (खासकर प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी) के निशाने पर गाँधी परिवार रहा है; उन्हें (कांग्रेस को) विभिन्न तरीकों से परेशान किया गया है। राजस्थान में जिस तरह राहुल गाँधी ने प्रियंका गाँधी से मिलकर सचिन पायलट वाला मसला सुलझाया। और अब पत्र बम्ब से उभरा गम्भीर विवाद सीडब्ल्यूसी की बैठक में ठण्डा किया गया। फिलहाल जिस तरह सोनिया गाँधी को अंतरिम अध्यक्ष बनाये रखा गया है, उससे यही संकेत मिलता है कि गाँधी परिवार की पार्टी पर पूरी पकड़ है और विरोध के स्वर उठाने वाले अकेले पड़ सकते हैं।