कांग्रेस को दोबारा खड़ा करने की प्रक्रिया आखिर शुरू हो गयी है। लम्बे समय के बाद कांग्रेस संगठन में बड़े पैमाने पर फेरबदल किया गया है। नयी कांग्रेस कार्यसमिति बनायी गयी है और महासचिवों के स्तर पर भी बड़ा फेरबदल किया गया है। कई पुराने नेताओं का कद घटा दिया गया है; जबकि युवाओं को अधिक अवसर दिये गये हैं। राहुल गाँधी के समर्थक अहम पद पाने में सफल रहे हैं; जबकि प्रियंका गाँधी को उत्तर प्रदेश के प्रभारी का पूरा ज़िम्मा दे दिया गया है। संसद के सत्र से पहले कांग्रेस की यह कोशिश मोदी शासित केंद्र सरकार के खिलाफ लामबन्द होने का संकेत देती है।
हाल में पार्टी अध्यक्ष को चिट्ठी लिखने वाले नेताओं में से कई का कद घटा दिया गया है। कांग्रेस अध्यक्ष सोनिया गाँधी ने संगठन चलाने और संचालन में अपनी मदद के लिए जिस विशेष समिति का गठन किया, उसमें ए.के. एंटनी, अहमद पटेल और अंबिका सोनी शामिल हैं। संगठन से जुड़े मामलों में कांग्रेस अध्यक्ष सोनिया गाँधी की मदद के लिए विशेष समिति में के.सी. वेणुगोपाल, मुकुल वासनिक, रणदीप सुरजेवाला भी शामिल होंगे। एक अन्य महत्त्वपूर्ण फैसले के तहत गुलाम नबी आज़ाद, अंबिका सोनी, मोतीलाल वोरा, मल्लिकार्जुन खडग़े को महासचिव पद से हटा दिया गया है।
वैसे पार्टी में फेरबदल की ज़रूरत काफी समय से महसूस की जा रही थी; क्योंकि आम कार्यकर्ताओं का मानना है कि राहुल को पार्टी अध्यक्ष की ज़िम्मेदारी सँभालकर पूरी तरह संगठन को मज़बूत करने में जुट जाना चाहिए। पार्टी की युवा इकाई में पदाधिकारी रहे रमन सिंह का कहना है कि आज की तारीख में राहुल ही पूरे विपक्ष में ऐसे नेता हैं, जिनका राष्ट्रव्यापी आधार है। रमन ने कहा- ‘जिन 23 वरिष्ठ नेताओं की चिट्ठी को पार्टी के बीच विद्रोह बताया जा रहा है, वह भाजपा की शरारत है। यह विद्रोह नहीं, बल्कि कांग्रेस को मज़बूत करने की ज़िक्र है। मोदी के नेतृत्व में सरकार बहुत से मोर्चों पर जिस तरह फेल हुई है, उससे आम आदमी में अब तेज़ी से नाराज़गी उभर रही है।
राहुल गाँधी को पार्टी की कमान सँभालकर पूरी ताकत से मोदी सरकार के खिलाफ राष्ट्रव्यापी अभियान शुरू करना चाहिए। कांग्रेस के भीतर बेचैनी का सबसे बड़ा कारण अगले लोकसभा चुनाव से पहले पार्टी को बहुत मज़बूती से दोबारा खड़ा करने की चिन्ता है। पार्टी के किसी भी राज्य स्तर के नेता या ज़मीनी स्तर पर छोटे कार्यकर्ता से बात कर लो, वह आपको कहेगा कि हमें किसी भी सूरत में अगला चुनाव नहीं हारना है। अगर ऐसा हुआ, तो पार्टी बिखर जाएगी। चुनाव में जीत को पार्टी के कार्यकर्ता सबसे बड़ी खुराक मानते हैं। दिल्ली में कांग्रेस के एक पूर्व विधायक ने कहा- ‘आप याद करें, तीन राज्यों में विधानसभा चुनाव जीतने के बाद अचानक कांग्रेस को राष्ट्र स्तर पर कितनी तबज्जो मिलनी शुरू हो गयी थी। इन चुनावों के बाद भाजपा ने विधानसभा का कोई चुनाव नहीं जीता है। लेकिन कांग्रेस उस माहौल को बनाकर नहीं रख पायी। हालाँकि इसके यह मायने नहीं हैं कि कांग्रेस का अस्तित्व ही खत्म हो गया है। भाजपा भी पाँच साल सत्ता में रहने के बाद सन् 2004 और सन् 2009 में लगातार दो लोकसभा चुनाव हारी थी। लिहाज़ा कोई ऐसी बात नहीं है कि कांग्रेस के लोग निराशा होकर घर बैठ जाएँ। भाजपा ने कांग्रेस की हार को लेकर जैसा दुष्प्रचार किया है, वो उसके अपने भीतर के डर को उजागर करता है। कांग्रेस कार्यसमिति की बैठक में जो जज़्बात पार्टी नेताओं के भीतर उठे थे और जैसी तल्खी उभरी थी, वह अब धीरे-धीरे कम हो रही है और पार्टी के भीतर सभी नेता इस घटना को समझने की कोशिश कर रहे हैं।
पार्टी के कुछ वरिष्ठ नेताओं, जिनसे इस संवाददाता की बात हुई है, उससे यही नतीजा निकलता है कि आने वाले समय में पार्टी एक मज़बूत दल के तौर पर उभरेगी। इन नेताओं के मुताबिक, संगठन के भीतर संवाद की प्रक्रिया जारी है। एक वरिष्ठ नेता ने कहा- ‘अध्यक्ष के चुनाव से पहले विस्तृत तौर पर संगठन को लेकर सुझाव मिलेंगे और इन सबको नज़र में रखते हुए भविष्य की तैयारी की जाएगी।’
कांग्रेस की अहम बैठकों में जिस तरह अब तमाम वरिष्ठ नेता दिखने लगे हैं, उससे ज़ाहिर होता है कि पार्टी के भीतर तल्खी को काम करने की आलाकमान के स्तर पर कोशिश हुई है। गुलाम नबी आज़ाद जैसे कांग्रेस के समर्पित और वफादार नेता अब फिर बैठकों में दिखने लगे हैं और अपने सुझाव दे रहे हैं। कांग्रेस कार्यसमिति की बैठक, जिसमें 23 बड़े नेताओं के पत्र बम्ब ने बड़ी हलचल पैदा की थी, के बाद संसद के मानसून सत्र की तैयारी के लिए सोनिया गाँधी के नेतृत्व में 8 अगस्त को हुई पार्टी के संसदीय रणनीति समूह की बैठक में अच्छा माहौल देखने को मिला और आज़ाद सहित तमाम नेताओं ने खुलकर अपने सुझाव रखे। कांग्रेस के नेता और कार्यकर्ता चाहते हैं कि देश भर में राज्यों में मज़बूत और ज़मीनी नेताओं को पार्टी की प्रांतीय बागडोर देकर आने वाले एक साल के भीतर पार्टी को खड़ा किया जाए। एक नेता ने कहा कि इसके बाद प्रदेश कार्यकारिणी और ज़िला स्तर की नियुक्तियों में देरी न हो और तमाम लोगों को ज़िम्मेदारियाँ बाँटकर संगठन को तेज़ी से सक्रिय किया जाए। इन नेताओं का कहना है कि उन राज्यों में भी संगठन को मज़बूत करने के लिए तेज़ कदम उठाये जाएँ, जहाँ सहयोगी दलों की सरकारें हैं। एक वर्तमान सांसद ने नाम न छापने की शर्त पर कहा- ‘हम हमेशा दूसरे दलों के पिछलग्गू की भूमिका में नहीं रह सकते। हम देश की सबसे बड़ी राजनीतिक पार्टी रहे हैं और आज भी कांग्रेस का देश भर में एक बड़ा समर्थक वर्ग है। मोदी सरकार के खिलाफ नाराज़गी का ग्राफ बढ़ता जा रहा है और कांग्रेस ही उसका सबसे बेहतर और जनता की हितों की रक्षा वाला श्रेष्ठ विकल्प है। लिहाज़ा संगठन को पहले राज्यों में मज़बूत किया जाना और अपने स्तर पर विधानसभा चुनावों में पूरी ताकत से हिस्सा लेना बहुत ज़रूरी है।’
कांग्रेस के भीतर उतर प्रदेश में पार्टी को दोबारा खड़ा करने की कोशिशों और इसके नतीजों से उत्साह है। प्रियंका गाँधी की सक्रियता और विपरीत हालात में भी लगातार दो बार पार्टी टिकट पर विधायक बन चुके अजय कुमार लल्लू को प्रदेश अध्यक्ष बनाने से भले कुछ पुराने नेताओं में अपने अलग-थलग पडऩे को लेकर बेचैनी है, यह बात सभी मान रहे हैं कि इतने वर्षों से ध्वस्त पड़े संगठन में अब कुछ जान आयी है और पार्टी कार्यकर्ता उत्साहित दिखने लगे हैं।
हाल के महीनों को देखें, तो योगी सरकार के निशाने पर बसपा और सपा से ज़्यादा कांग्रेस या कह लीजिए प्रियंका गाँधी रही हैं। प्रियंका ने प्रदेश से जुड़े हर उस मसले को उठाया है, जो योगी सरकार को परेशान कर सकता है। बसपा तो हाल के महीनों में भाजपा की समर्थक जैसी भूमिका में दिखने लगी है। सपा भी उतनी सक्रिय नहीं है, जितनी प्रियंका गाँधी हैं। यह भी आरोप हैं कि भाजपा उत्तर प्रदेश कांग्रेस के उन नेताओं को कथित रूप से शह दे रही है, जो प्रियंका गाँधी के आने से अपनी हैसियत को लेकर परेशान हैं। भले जब उनके पास अवसर था, तो उन्होंने उत्तर प्रदेश में कांग्रेस को मज़बूत करने के लिए कुछ नहीं किया हो। पार्टी के भीतर नेता मानते हैं कि प्रियंका जैसी सक्रियता ही कांग्रेस को उत्तर प्रदेश की कठोर राजनीतिक ज़मीन पर दोबारा खड़ा कर सकती है। योगी सरकार कांग्रेस की सक्रियता से कितनी परेशान है, इसका अंदाज़ा इस बात से ही लगाया जा सकता है कि प्रियंका गाँधी की तरफ से अध्यक्ष बनाये गये अजय कुमार लल्लू के खिलाफ इन महीनों में दर्ज़नों मामले बना दिये गये हैं और उन्हें पार्टी के सरकार विरोधी कार्यक्रमों में जाने से भी रोका जाता है।
उत्तर प्रदेश कांग्रेस के लिहाज़ से बहुत ही अहम राज्य है। दशकों से कांग्रेस वहाँ सत्ता से बाहर है और उसका संगठन लचर हो चुका है। सन् 2009 में पार्टी ने लोकसभा चुनाव में उत्तर प्रदेश में अचानक 22 लोकसभा सीटें जीतकर सबको चौंका दिया था। हालाँकि इससे यह तो ज़ाहिर हो ही गया था कि कांग्रेस ज़्यादा कोशिश करे, तो सूबे में फिर खड़ी हो सकती है। उत्तर प्रदेश के पिछले विधानसभा चुनाव में जब कांग्रेस ने प्रशांत किशोर को अपना रणनीतिकार बनाया था, तो उन्होंने एक आंतरिक सर्वे करके पार्टी आलाकमान को यह सुझाव दिया था कि प्रियंका गाँधी को इस चुनाव में मुख्यमंत्री पद का दावेदार घोषित कर दिया जाए। लेकिन कांग्रेस इसकी हिम्मत नहीं जुटा पायी। अब कांग्रेस खुद प्रियंका को आगे कर रही है, तो उत्तर प्रदेश के कांग्रेस संगठन में सक्रियता भी दिखने लगी है।
अध्यक्ष पद का मसला
कांग्रेस में अध्यक्ष पद की लड़ाई इस बात को लेकर है नहीं है कि राहुल गाँधी अध्यक्ष बनें या न बनें। लड़ाई इस बात को लेकर है कि जो भी अध्यक्ष बने वो पूरा वक्त संगठन को समर्पित करे। ‘तहलका’ की जानकारी के मुताबिक, कांग्रेस के वरिष्ठ नेता चाहते हैं कि भले राहुल गाँधी अध्यक्ष बनें, वो पूरा समय संगठन को दें और पूरी ताकत के साथ मोदी सरकार के खिलाफ खड़े हों। पार्टी नेताओं के मुताबिक, वरिष्ठ 23 नेताओं ने जो पत्र लिखा था, उसमें गाँधी परिवार का विरोध नहीं था, अपितु नेता पूरे समय वाला अध्यक्ष चाहते हैं। इसमें कोई दो राय नहीं है कि कांग्रेस के भीतर अनुभवी नेताओं की कमी नहीं है। लेकिन इन सबकी एक समस्या समान है। किसी भी नेता का अखिल भारतीय स्तर का कद नहीं है। ऐसे में कांग्रेस में स्वाभाविक रूप से अध्यक्ष के तौर पर राहुल गाँधी का ही नाम सामने आता है। हाँ, राहुल गाँधी को अध्यक्ष बनकर युवा और अनुभवी नेताओं की एक मज़बूत टीम बनानी पड़ेगी और खुद को पूर्णकालिक अध्यक्ष के तौर पर मैदान में उतरना पड़ेगा।
पार्टी के भीतर एक वर्ग प्रियंका गाँधी को भी अध्यक्ष के रूप में देखता है; लेकिन ज़्यादातर नेताओं का मानना है कि राहुल गाँधी प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी का मुकाबला करने के लिए सबसे बेहतर विकल्प हैं। सीडब्ल्यूपी के सदस्य रह चुके जम्मू-कश्मीर के एक कांग्रेस नेता ने कहा कि राहुल को अध्यक्ष बनकर चार वरिष्ठ नेताओं को कार्यकारी अध्यक्ष बनाकर अपनी टीम बनानी चाहिए, जिसमें युवा नेताओं से लेकर वरिष्ठ नेताओं का मिश्रण हो और सबको राज्यों में संगठन को दोबारा खड़ा करने की जबावदेही वाली ज़िम्मेदारी सौंपी जाए। हालाँकि पार्टी में एक ऐसा छोटा वर्ग भी है, जो कहता है कि किसी गैर-गाँधी को अध्यक्ष बनाकर आजमाना चाहिए। यह वर्ग यह तर्क देता है कि इससे गाँधी परिवार के पार्टी को अपने तक सीमित रखने के विरोधियों के आरोपों से भी कांग्रेस को मुक्त होने में मदद मिलेगी। यह नेता कहते हैं कि पहले भी ऐसा हुआ है। हालाँकि ज़्यादातर कांग्रेस नेता मानते हैं कि भाजपा ही सबसे ज़्यादा गाँधी परिवार का विरोध करती है और दुष्प्रचार करके परिवार को बदनाम करती है। जनता में गाँधी परिवार के प्रति हमेशा भरोसा रहा है, क्योंकि उसे कांग्रेस और गाँधी-नेहरू परिवार की पृष्ठभूमि पता है। एक वरिष्ठ नेता ने कहा- ‘भाजपा अपनी नाकामियाँ छिपाने के लिए नेहरू से लेकर इंदिरा गाँधी और राजीव गाँधी जैसे दिवंगत नेताओं को कोसती है। इन सभी नेताओं ने समर्पण से देश के लिए काम किया और मुश्किल वक्तों में देश को सँभाला और विकास की बड़ी योजनाएँ लायीं। ऐसी विरोधी पार्टी भाजपा को खुश करने के लिए कांग्रेस को गाँधी परिवार से बाहर जाने का रिस्क क्यों लेना चाहिए?’
‘तहलका’ की जानकारी बताती है कि आने वाले समय में अध्यक्ष पद के लिए बाकायदा चुनाव करवाने की तैयारी पार्टी में चल रही है। एआईसीसी का अधिवेशन जब भी होगा, उसमें नया अध्यक्ष चुना जाएगा। गाँधी परिवार चाहता है कि यदि कोई भी चुनाव लडऩा चाहता है, तो ऐसा किया जाए। ऐसे में हो सकता है चुनाव में एक से ज़्यादा प्रत्याशी हों। यह भी हो सकता है कि राहुल गाँधी या अन्य कोई भी जो चुना जाए, वह सर्वसम्मति से अध्यक्ष चुना जाए।
कांग्रेस में यह सोच ज़रूर बन रही है कि पार्टी का नेता आक्रामक हो और वह सरकार की बखिया उधेड़ सके। संगठन में जान फूँक सके। कांग्रेस के भीतर वरिष्ठ नेताओं का मानना है कि मोदी सरकार के खिलाफ हमला करने का यह सबसे बेहतर समय है; क्योंकि उसकी लोकप्रियता गलत नीतियों के कारण नीचे जा रही है। इन नेताओं के अनुसार मोदी के नेतृत्व में भाजपा जनता के बीच अब तक की सबसे बड़ी अलोकप्रियता का सामना कर रही है और कांग्रेस के लिए यह खुद को एक मज़बूत विकल्प के रूप में जनता के सामने करने का सबसे उपयुक्त अवसर है। पार्टी के एक नेता ने कहा- ‘लेकिन इसके लिए आपको बहुत ज़्यादा संगठित होना पड़ेगा। देश भर में संगठन को अपने नेता के पीछे खड़ा होना पड़ेगा, ताकि भाजपा के कांग्रेस या गाँधी परिवार पर हमले के वक्त लोगों को हमारे ही कैम्प में खामोशी न मिले। और सबसे ज़्यादा ज़रूरी यह कि हमारे पास एक ऐसा अध्यक्ष होना चाहिए, जो मैदान में पूरी ताकत से सरकार की चूलें हिला सके।’
कांग्रेस में भविष्य की सम्भावनाएँ
पार्टी के भीतर हलचल के बावजूद भविष्य में संगठन के स्वरूप को लेकर एक सोच विकसित हो रही है। ‘तहलका’ की जानकारी के मुताबिक, नेतृत्व में इस बात को लेकर चिंता है कि पार्टी के आम कार्यकर्ता में कांग्रेस के भविष्य को लेकर चिन्ता पनप रही है, जो कुछ हद तक निराशा में भी बदल रही है। पार्टी में गाँधी परिवार के नजदीकी कुछ बड़े नेता अब यह सोचने लगे हैं कि संगठन में बड़े पैमाने पर फेरबदल किया जाना आवश्यक हो गया है। राज्यों में नये और मज़बूत नेताओं को अध्यक्ष बनाने की ज़रूरत है, ताकि राज्य इकाइयाँ सक्रिय हो सकें; एक यह भी विचार पार्टी में उभर रहा है। कुछ कद्दावर नेताओं, जो अपने राज्यों को बेहतर जानते हों और संगठन के स्तर पर भी माहिर हों; उन्हें राज्यों में अध्यक्ष बनाया जाए, ताकि सन्देश जाए कि आलाकामन पार्टी को पुनर्जीवित करने में जुट गया है। कुछ वरिष्ठ नेताओं का मानना है कि राज्यों में पार्टी को अपने स्तर पर ज़िन्दा करना होगा। यह भी विचार है कि युवा और वरिष्ठ नेताओं को संतुलित आधार पर राष्ट्रीय स्तर पर अहम ज़िम्मेदारियाँ दी जाएँ और उनकी जवाबदेही सुनिश्चित की जाए। साथ ही महिला नेताओं का प्रतिनिधित्व भी बढ़ाया जाए। यह भी एक विचार है कि यदि राहुल गाँधी अध्यक्ष बनते हैं, तो उन्हें सुझाव देने और राजनीतिक दाँवपेच में माहिर करने के लिए अशोक गहलोत जैसे बड़े कद के दो कार्यवाहक अध्यक्ष भी बनाये जाएँ। इसके अलावा देश के सभी बड़े मुद्दों के विशेषज्ञों की एक मज़बूत टीम बनायी जाए, जो मोदी सरकार के कमज़ोर पहलुओं को लेकर उसके खिलाफ आक्रामक प्रचार कर सकने वाले मसौदे तैयार करे। पार्टी के बीच एआईसीसी अधिवेशन के बाद बड़े पैमाने पर मोदी सरकार के खिलाफ देशव्यापी अभियान शुरू करने का भी विचार है, जिसे लघु रणनीतिक विराम देते हुए अगले लोकसभा चुनाव तक जारी रखा जाये। पार्टी में एक विचार यह भी है कि अध्यक्ष के चुनाव के बाद पहले कांग्रेस से जुड़े रहे कद्दावर नेताओं को वापस पार्टी में लाने की मुहिम शुरू की जाए। इन नेताओं में एनसीपी प्रमुख शरद पवार, पश्चिम बंगाल की मुख्यमंत्री ममता बनर्जी, तेलंगाना के मुख्यमंत्री के चंद्रशेखर राव, आंध्र प्रदेश के मुख्यमंत्री वाईएस जगनमोहन रेड्डी और अन्य नेता शामिल हैं। नेता यह भी चाहते हैं कि यदि राहुल अध्यक्ष बनते हैं, तो भी सोनिया गाँधी पार्टी अभिभावक के रूप में सक्रिय रहें और यूपीए की अध्यक्ष भी बनी रहें। हालाँकि यह नेता अध्यक्ष के तौर पर राहुल गाँधी को पूरी शक्ति देने के हक में भी हैं।
कांग्रेस के दो ध्रुव
कांग्रेस के बीच वर्तमान में एक बहुत दिलचस्प स्थिति है। इसमें दो मज़बूत ध्रुव हैं और दोनों ही कांग्रेस से पार्टी-निष्ठा रखते हैं। इनमें एक का नेतृत्व सोनिया गाँधी करती हैं, दूसरे का उनके पुत्र राहुल गाँधी। सोनिया के साथ पुराने और आजमाये हुए नेता हैं और राहुल के साथ कांग्रेस की युवा पीढ़ी के नेता। पहले यह तो होता था कि कांग्रेस में गाँधी परिवार के समर्थक होते थे और जो थोड़े बहुत बचते थे, वे पार्टी में गैर-गाँधी की बात करते थे। लेकिन हाल के महीनों में कांग्रेस में स्थिति बदलकर गाँधी बनाम गाँधी की हो गयी है। सोनिया गाँधी के साथ पूर्व प्रधानमंत्री मनमोहन सिंह, पूर्व रक्षा मंत्री ए.के. एंटनी, अंबिका सोनी, शक्तिशाली राजनीतिक सलाहकार अहमद पटेल, गुलाम नबी आज़ाद, पी. चिदंबरम, अमरिंदर सिंह, सुमन दुबे, अशोक गहलोत, सुशील कुमार शिंदे, मल्लिकार्जुन खडग़े, कपिल सिब्बल, आनंद शर्मा और वीरप्पा मोइली जैसे वरिष्ठ नेता हैं। जबकि राहुल गाँधी के साथ सचिन पायलट, के.सी. वेणुगोपाल, सुष्मिता देव, छत्तीसगढ़ के मुख्यमंत्री भूपेश भगेल, जयराम रमेश, रणदीप सुरजेवाला, अजय माकन और गौरव गोगोई जैसे नेता हैं। इसके अलावा राहुल गाँधी की टीम में कुछ प्रोफेशनल भी हैं, जो सोनिया गाँधी की टीम में नहीं। इनमें सोशल मीडिया समन्वयक निखिल अल्वा (पार्टी की नेता रहीं मार्गरेट अल्वा के बेटे), पूर्व निवेश बैंकर आईआईएम स्नातक अलंकार सवाई, रणनीतिक सलाहकार सचिन राव, ऑक्सफोर्ड के पढ़े कौशल किशोर विद्यार्थी के अलावा राजीव गाँधी के ज़माने में दूर संचार में सी-डॉट प्रणाली लाने वाले सैम पित्रोदा जैसे लोग हैं। यहाँ एक बहुत ही दिलचस्प बात यह है कि कुछ वरिष्ठ या युवा कांग्रेस नेता ऐसे हैं, जो सोनिया और राहुल दोनों के बराबर करीबी और भरोसेमंद हैं। इनमें प्रमुख हैं- ए.के. एंटनी, जयराम रमेश और के.सी. वेणुगोपाल। दरअसल राहुल गाँधी के सबसे भीतरी सॢकल में जो प्रोफेशनल हैं, वरिष्ठ नेताओं की चिढ़ उनसे ही है। यह राजनीतिक लोग नहीं है और राहुल के साथ बदली हुई आधुनिक राजनीति करना चाहते हैं। वरिष्ठ नेताओं का मानना है कि यह लोग मोदी और शाह जैसे नेताओं से पार नहीं पा सकते और कच्ची राजनीति करते हैं। वरिष्ठ नेताओं को यह भी लगता है कि राहुल गाँधी पूरी तरह कांग्रेस का ज़िम्मा लेते हैं, तो उनके यह साथी वरिष्ठ नेताओं को किनारे करने की मुहिम छेड़ सकते हैं। यही कारण है कि पार्टी के भीतर तठस्थ नेता यह कोशिश कर रहे हैं कि राहुल गाँधी अध्यक्ष का ज़िम्मा सँभालें और वरिष्ठ नेताओं को साथ लेकर कांग्रेस की अनुभव और युवा जोश की एक मज़बूत टीम बनाएँ। इसमें कोई दो-राय नहीं कि राहुल गाँधी ने पिछले दो-ढाई साल में प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी और भाजपा सरकार के खिलाफ दम पर लोहा लिया है। उन्हें इसमें वरिष्ठ कांग्रेस नेताओं साथ न के बराबर मिला है। राहुल के अध्यक्ष के नाते तीन राज्य विधानसभा चुनाव जीतने के बाद इन नेताओं का रुख कुछ बदला था; लेकिन उसके बाद वे खामोश होकर बैठ गये। पिछले लोकसभा चुनाव में कांग्रेस के 50 ही सीटों के आसपास सिमट जाने से इन वरिष्ठ नेताओं को यह बात कहने का अवसर मिल गया कि अपने युवा सलाहकारों के बूते राहुल पार्टी को बड़ा चुनाव नहीं जिता सकते। बहुत-से लोग राहुल की इस हिम्मत को दाद देते हैं कि चुनाव में पार्टी की हार के बाद उन्होंने इस्तीफा देने की नैतिकता दिखायी, जो आज की राजनीति बिरली चीज़ हो गयी है। हालाँकि कुछ अन्य उनके इस्तीफे को मैदान छोडक़र भागने की संज्ञा देते हैं। हालाँकि हाल के राजस्थान संकट के दौरान राहुल गाँधी की एक ही एंट्री ने सचिन पायलट वाला मसला हल करवाकर यह भी साबित किया कि एक नेता के गुण उनमें हैं, और पार्टी का एक मज़बूत वर्ग उनका समर्थन करता है। अब देखना दिलचस्प होगा कि कांग्रेस का अध्यक्ष कौन बनेगा? लेकिन कांग्रेस के ज़्यादातर नेता और छोटे कार्यकर्ता तो यही मानते हैं कि यह राहुल गाँधी ही होंगे।