इसे देश का दुर्भाग्य ही कहा जाएगा कि केंद्र की मोदी सरकार देश के नागरिकों से ही दोग़ला व्यवहार करने में लगी है। एक तरफ़ वह अपने उद्योगपति मित्रों का क़र्ज़ माफ़ करने में और उन्हें क़र्ज़ पर क़र्ज़ दिलाने में लगी है, तो दूसरी तरफ़ वह आम नागरिकों को दिये क़र्ज़ पर लगातार ब्याज दरें बढ़ाने का खेल खेल रही है। हाल ही में आरबीआई ने पाँचवीं बार ब्याज दरों में बढ़ोतरी करते हुए इसके रेपो रेट को 5.90 फ़ीसदी से बढ़ाकर 6.25 फ़ीसदी कर दिया है। अब अगर कोई 20 साल के लिए 30 लाख रुपये का क़र्ज़ लेता है, तो उसे कुल 1,55,330 रुपये ज़्यादा चुकाने होंगे।
ध्यान रहे यह ब्याज दरें अमीरों के लिए नहीं हैं, क्योंकि अमीरों को हज़ारों करोड़ का क़र्ज़ भी मामूली ब्याज दरों पर दिया जाता है और उसे भी माफ़ करने के रास्ते निकाल लिये जाते हैं, जिसका बोझ आम क़र्ज़दारों पर ही पड़ता है। लेकिन आपको यह जानकर हैरानी होगी कि फिर भी ग़रीब लोग ही क़र्ज़ चुकाने में अमीरों से आगे हैं। यानी एक तरफ़ जहाँ अमीर लोग, जिनमें कि सबसे ज़्यादा केंद्र की मोदी सरकार के दोस्तों और चहेतों की संख्या सबसे ज़्यादा है, जो या तो क़र्ज़ लेकर विदेश भाग चुके हैं या फिर डिफाल्टर हैं, उनके लाखों करोड़ रुपये के क़र्ज़े माफ़ कर दिये गये हैं। वहीं दूसरी तरफ़ वे लोग हैं, जो बहुत बड़ी मजबूरी में छोटा-मोटा क़र्ज़ ले चुके हैं; लेकिन वो उसे मोटी ब्याज दर के बावजूद समय पर चुका रहे हैं। यानी देश में दो तरह के लोग हैं- एक, अमीर बेईमान और दूसरी तरफ़ ग़रीब ईमानदार।
हाल ही में सामने आयी रिपोर्ट के मुताबिक, मुद्रा योजना के तहत बैंकों से लिए छोटे क़र्ज़ को छोटे-छोटे बिजनेस करने वाले व्यापारियों ने कोरोना-काल में भी समय से ज़्यादातर क़र्ज़ लौटा दिया है। वहीं बड़े उद्योगपतियों में ज़्यादातर या तो डिफाल्टर हैं या क़र्ज़ लौटाने की बजाय उसे माफ़ कराने के जुगाड़ भिड़ा रहे हैं।
बता दें कि सात साल पहले शुरू हुई योजना के तहत बेल्डर, लोहार, दुकानदार, मोबाइल रिपेयर और गुमटी वाले छोटे व्यापारियों ने कोरोना महामारी में विकट घाटे के बावजूद भी क़र्ज़ की क़िस्तें समय पर चुकाकर ख़ुद को ईमानदार साबित किया। इसका ही नतीजा यह है कि मुद्रा योजना का एनपीए सबसे कम महज़ 3.38 फ़ीसदी है। एक आरटीआई के जवाब में आरबीआई ने बताया है कि मुद्रा योजना के लॉन्च होने के बाद से 8 अप्रैल 2015 से 30 जून 2022 तक सभी प्रकार की बैंकों के लिए प्रधानमंत्री मुद्रा योजना के तहत कुल 13.64 लाख करोड़ रुपये का क़र्ज़ छोटा काम करने वालों ने लिया। इस दौरान एनपीए 46,053.39 करोड़ रुपये तक बढ़ गया था।
अब दिसंबर, 2022 में यह घटकर महज़ 3.38 फ़ीसदी रह गया है। वहीं वित्त वर्ष के अंत में यानी 31 मार्च 2022 को अमीरों का एनपीए 5.97 फ़ीसदी था। यह तब था, जब उद्योगपतियों का 11 लाख करोड़ रुपये का क़र्ज़ माफ़ कर दिया गया है। अमीरों पर क़र्ज़ का यह एनपीए यूपीए सरकार की तुलना में क़रीब पाँच गुना ज़्यादा है।
इस स्थिति के चलते ही आज की तारीख़ में बैंकों के कमज़ोर हो रहे हालात के बारे में समझ सकते हैं, जिसे लगातार छिपाने की कोशिशें बैंक भी कर रहे हैं और सरकार भी इस पर पर्दा डाल रही है। केंद्र की मोदी सरकार के ही जवाब से पता चलता है कि 1 अप्रैल, 2015 से 31 मार्च, 2021 तक उसने उद्योगपतियों का 11,19,482 करोड़ रुपये का क़र्ज़ राइट ऑफ यानी माफ़ किया है, जो कि बैंकों को सीधे तौर पर चूना लगाने जैसा ही है। आरटीआई के जवाब में सामने आया है कि यूपीए की केंद्र की मनमोहन सरकार ने भी मोदी सरकार आने से पहले के अपने पाँच साल के कार्यकाल में यानी सन् 2004 से सन् 2014 तक केंद्र की यूपीए सरकार ने क़र्ज़दारों के 2.22 लाख करोड़ रुपये माफ़ किये थे। लेकिन मोदी सरकार ने पाँच गुना क़र्ज़ माफ़ किया है, वो भी उद्योगपतियों का।
हैरानी की बात यह है कि आरटीआई का जवाब रिजर्व बैंक ऑफ इंडिया (आरबीआई) ने दिया है। सवाल यह है कि संसद में यह भी क्यों नहीं बताती कि कितने लोग अब तक देश के बैंकों का कितना-कितना पैसा लेकर भाग चुके हैं? साथ ही उसे यह भी खुलकर बताना चाहिए कि स्विस बैंक में अब तक कितना काला धन जमा हो चुका है? सन् 2014 में प्रधानमंत्री बनने बाद नरेंद्र मोदी ने सन् 2016 तक कहा था कि उनके पास काले धन वालों की लिस्ट है। सवाल यह भी है कि अब काले धन वालों की लिस्ट कहाँ चली गयी? और मोदी सरकार को यह भी बताना चाहिए कि इस समय विदेशों की बैंकों में कितना और किन-किन लोगों ने काला धन छुपाकर रखा हुआ है?
इसी शीत सत्र में वित्त मंत्री निर्मला सीतारमण ने राज्यसभा में देश के बैंकों द्वारा पिछले 5 साल में माफ़ की गयी यानी बट्टे खाते में डाली गयी रक़म 10,9,511 करोड़ रुपये बतायी थी। वित्त मंत्री ने यह भी कहा है कि यह कहना गलत होगा कि सरकार ने क़र्ज़ माफ़ कर दिया है। बट्टे खाते में क़र्ज़ ट्रांसफर करना और उसे माफ़ करना दोनों ही अलग-अलग बातें हैं। बैंक इन पैसों की वसूली के लगातार प्रयास करते रहे हैं। इसके लिए बैंक अदालत का दरवाज़ा भी खटखटा सकते हैं। इसके साथ ही बैंक क़र्ज़दार के ऊपर दिवाला सम्बन्धित क़ानून के तहत कार्रवाई करने के भी सक्षम हैं।
अदालत डिफॉल्टर्स के ख़िलाफ़ दिवाला क़ानून संहिता 2016 के तहत कार्रवाई कर सकता है। इस बट्टे खाते में जमा रक़म की वसूली के सवाल के जवाब में वित्त राज्य मंत्री भागवत कराड ने संसद में बताया है कि जिन क़र्ज़ों को बट्टे खाते में डाला है, उन्हें सरकार द्वारा माफ़ किये गये क़र्ज़ की श्रेणी में नहीं डाला गया है। उन्होंने कहा कि वित्त वर्ष 2021-22 में कुल 1,74,966 करोड़ रुपये बट्टे खाते में डाले गये थे। बाद में बैंकों ने इसमें से 33,534 करोड़ रुपये वसूल कर लिये।
बहरहाल आरटीआई के जवाब में आरबीआई ने कहा है कि सिर्फ़ कोरोना के 15 महीनों में केंद्र सरकार ने उद्योगपतियों का 2,45,465 करोड़ रुपये का क़र्ज़ माफ़ किया है, जिसमें सरकारी बैंकों ने 1,56,681 करोड़ रुपये का क़र्ज़ माफ़ किया, जबकि प्राइवेट बैंकों ने 80,883 करोड़ रुपये का क़र्ज़ माफ़ किया। वहीं विदेशी बैंकों ने 3,826 करोड़ रुपये का, एनबीएफसी ने 1,216 करोड़ रुपये का और शेड्यूल कॉमर्स बैंक ने 2,859 करोड़ रुपये का क़र्ज़ माफ़ किया है। इसी शीत शत्र में सरकार ने संसद में एक सवाल के जवाब में कहा है कि आरबीआई से क़र्ज़ माफ़ी के आँकड़े उपलब्ध नहीं हैं। यानी केंद्र की नरेंद्र मोदी सरकार अब अपने मित्रों की क़र्ज़ माफ़ी के आँकड़े भी छुपाने में लगी है।
कांग्रेस नेता राहुल गाँधी ने और आम आदमी पार्टी के मुखिया, दिल्ली के मुख्यमंत्री अरविंद केजरीवाल व पार्टी के नेता संजय सिंह ने इस मुद्दे पर कई बार केंद्र की मोदी सरकार को घेरा है कि किस तरह से मोदी सरकार अपने उद्योगपति दोस्तों पर मेहरबान है। आज की तारीख़ में गौतम अडानी की नेटवर्थ क़रीब 140 अरब डॉलर यानी तक़रीबन 11.18 लाख करोड़ रुपये है। इतना ही नहीं, अडानी को बैंक क़र्ज़-पर-क़र्ज़ दिये जा रहे हैं और वसूली का कोई हिसाब ही नहीं है। पूर्व आरबीआई गवर्नर रघुराम राजन ने चेतावनी दी है कि सन् 2023 देश की अर्थ-व्यवस्था के लिहाज़ से बहुत ख़राब होने वाला है।
सवाल यह है कि बैंक डिफाल्टर्स के चलते ईमानदार छोटे क़र्ज़ धारकों को इसकी क़ीमत ज़्यादा ब्याज देकर चुकानी पड़ रही है, तो वहीं आम जनता को महँगाई की मार झेलकर इसे चुकाना पड़ रहा है। ऐसे में केंद्र की मोदी सरकार की यह ज़िम्मेदारी बनती है कि वह बेईमानों के प्रति नरम रुख़ अख़्तियार करके उन लोगों को ग़रीबी की तरफ़ न धकेले, जो दिन-रात मेहनत करके ईमानदारी से बमुश्किल दाल-रोटी खाने की कोशिशें करते रहते हैं। सरकार को यह भी याद रखना होगा कि हिन्दुस्तान में ग़रीबी, भुखमरी, बेरोज़गारी और आत्महत्याओं की दर लगातार बढ़ रही है।
(लेखक वरिष्ठ पत्रकार एवं राजनीतिक विश्लेषक हैं।)