कहां है वह भारत?

 

असम से मानेसर तक का भारत न्यूज मीडिया में कहां है? एक अच्छा अखबार वह है जिसमें देश खुद से बातें करता हो. कोई 50 साल पहले दी गई अमेरिकी लेखक आर्थर मिलर की इस कसौटी पर अपने राष्ट्रीय अखबारों और चैनलों को कसा जाए तो कितनों में देश खुद से बातें करता हुआ दिखाई या सुनाई देता है? जो देश उसमें दिखाई या सुनाई देता है, वह ‘भारत’ है या ‘इंडिया’? कहने को दर्जनों राष्ट्रीय चैनल और अखबार हैं, लेकिन क्या उनमें देश और उसके असली नुमाइंदे दिखाई और सुनाई देते हैं? 

असम में पिछले एक महीने से सांप्रदायिक हिंसा जारी है. इसमें अब तक 80 से अधिक लोगों की जान जा चुकी है. चार लाख से अधिक लोग घर बार छोड़कर राहत शिविरों में रहने को मजबूर हैं. लेकिन इसकी जैसी व्यापक लेकिन संवेदनशील रिपोर्टिंग होनी चाहिए थी, वह नहीं हुई. वरिष्ठ टीवी पत्रकार राजदीप सरदेसाई ने यह कमी तो मानी है लेकिन उनका यह तर्क समझ से परे है कि असम की हिंसा को पर्याप्त और इन-डेप्थ कवरेज न मिलने के पीछे बड़ी वजह उसका दिल्ली से दूर होना है.

 

वहां देश से अलग होने का कोई आंदोलन हो जाए या चीन अरुणाचल प्रदेश पर दावा करने लगे तो मीडिया का तीसरा नेत्र खुल जाता है

 

इक्का-दुक्का अपवादों को छोड़ दें तो असम और पूरा पूर्वोत्तर भारत कथित राष्ट्रीय न्यूज मीडिया के राडार पर कहीं नहीं दिखता. जैसे वह भारत का हिस्सा ही नहीं हो. अलबत्ता वहां देश से अलग होने का कोई आंदोलन शुरू हो जाए या चीन अरुणाचल प्रदेश पर दावा करने लगे तो मीडिया का तीसरा नेत्र खुल जाता है. लेकिन बाकी समय में पूर्वोत्तर के लोग कैसे रह रहे हैं, वहां क्या हो रहा है, उनकी समस्याएं, सवाल और मुद्दे क्या हैं आदि को रिपोर्ट या चर्चा के लायक नहीं समझा जाता है. 

हैरानी की बात नहीं है कि अधिकांश राष्ट्रीय चैनलों या अखबारों के पूर्वोत्तर भारत के राज्यों में रिपोर्टर नहीं हैं. खुद राजदीप सरदेसाई के मुताबिक, किसी भी राष्ट्रीय चैनल के पास पूर्वोत्तर के सभी राज्यों में तो छोड़िए, असम की राजधानी गुवाहाटी में भी ओबी वैन नहीं है. क्या इसकी वजह सिर्फ पूर्वोत्तर भारत का दिल्ली से दूर होना या उसका दुर्गम होना है? या इसकी वजह न्यूजरूम में वहां के प्रति गहरे सामाजिक-आर्थिक-सांस्कृतिक पूर्वाग्रह हैं? कहीं इसका एक बड़ा कारण यह तो नहीं है कि पूर्वोत्तर भारत में टीआरपी का एक भी पीपुलमीटर नहीं लगा है और बाकी देश में भी पूर्वोत्तर के दर्शकों की संख्या नाममात्र की है?

लेकिन अगर असम में हिंसा की असंतोषजनक कवरेज का कारण उसका दिल्ली से दूर होना मान भी लिया जाए तो दिल्ली से सटे मानेसर में मारुति की कार फैक्टरी में श्रमिक असंतोष के बाद भड़की हिंसा में एक अधिकारी की मौत और उसके बाद श्रमिकों के दमन-उत्पीड़न की लगभग एकतरफा, आधी-अधूरी और कुछ मामलों में फर्जी रिपोर्टिंग का कारण क्या है? क्यों लगभग सभी चैनल/अखबार मारुति के श्रमिकों और यूनियन के खलनायकीकरण में लगे रहे? सबका ध्यान 18 जुलाई की हिंसा की घटना पर था, लेकिन किसी की दिलचस्पी उसके पीछे के कारणों को जानने में नहीं थी. चैनल/अखबार मारुति और जिला प्रशासन के प्रवक्ता ज्यादा लग रहे थे. क्या यह सिर्फ संयोग है या फिर सोची-समझी संपादकीय नीति का नतीजा? 

दिल्ली और चैनलों/अखबारों के दफ्तरों के आस-पास लाखों मजदूर छोटी-बड़ी फैक्टरियों में काम करते हैं लेकिन क्यों किसी चैनल/अखबार में श्रमिक बीट कवर करने वाला रिपोर्टर नहीं है और न श्रमिक मुद्दों की नियमित रिपोर्टिंग होती है? गोया वे इस देश के नागरिक ही न हों. अगर हमारे राष्ट्रीय चैनलों/अख़बारों में पूर्वोत्तर भारत और करोड़ों मजदूर नहीं हैं तो उनमें कौन-सा देश दिखता और बातें करता है?