महाराष्ट्र और गुजरात की सीमा से सटे एक गांव में दिलीप (नाम असली नहीं) का जन्म हुआ। उसके पिता महाराष्ट्र के उस गांव में छोटे-छोटे सामान बेचने की फेरी लगाते थे। तीन भाई बहनों में वह मझला है। पढ़ाई में मन नहीं लगता था और सारा दिन गलियों में बिताता था। पढ़ाई में कमज़ोर होने के चलते घर से डांट-मार पड़ती और वह घर से भाग जाता। दो-तीन बार भागा। एक बार गुजरात के एक रेलवे स्टेशन पर पुलिस की नजऱ उस पर पड़ी और उसे पकड़ कर नज़दीक की एक संस्था में उसे छोड़ आए। उस समय दिलीप की आयु 9-10 साल की रही होगी। अनाथ, घर से भागे और बेसहारा बच्चों की देखरेख करने वाली यह संस्था गैर सरकारी संगठन है। ऐसे घर को इस संस्था ने नाम दिया है-स्नेहालय। यहां दिलीप को जब स्कूल में जाने के लिए कहा गया तो उसने पढऩे से साफ मना कर दिया। लेकिन वहां के मुखिया ने समझाया कि अगर पढ़ाई नहीं करोगे तो इसी तरह जि़ंदगी भर इधर-उधर भागते रहोगे। जि़ंदगी में पढ़ाई बहुत ज़रूरी है। दिलीप ने जब देखा कि वहां रहने वाले और बच्चे भी पढ़ाई करते हैं तो उसने स्कूल जाना शुरू कर दिया। अब वह व्यस्क हो गया है, स्नातक कर लिया है और नौकरी भी। दिलीप के माता-पिता, भाई-बहन कहां है, इसके बारे में उसे कुछ नहीं पता। वह उदासी भरे लहजे में बताता है कि उसका गरीब परिवार किराए के कमरे में रहता था, उसने पता लगाने की कोशिश की लेकिन कुछ नहीं पता चला। दिलीप कहता है कि जब कोई भी बच्चा ऐसे बाल देखभाल केंद्र से बाहर जाता है तो उसके पास ऐसा हुनर होना चाहिए कि वह बाहर सरवाइव कर सके। ध्यान देने वाली बात यह है कि 18 साल का होते ही ऐसे बच्चों को संस्था के हॉस्टल से बाहर आना पड़ता है क्योंकि कानून के अनुसार चाइल्ड केयर इंस्टीच्यूट/बाल देखभाल संस्थान में बच्चे 18 साल तक की आयु तक ही रह सकते हैं। दरअसल मुल्क में सैंकड़ो युवा-युवतियों को ऐसे हालात का सामना करना पड़ता है। एक बात और महत्वपूर्ण है कि मुल्क में ऐसे बच्चों के लिए आफ्टरकेयर की भी व्यवस्था है लेकिन ऐसे 67 फीसद बच्चों को इसके बारे में कुछ भी पता नहीं है। बाल देखभाल संस्थानों में रहने वाले बच्चे जब ये संस्थान छोड़ते हैं तब उन्हें किन-किन दिक्कतों का सामना करना पड़ता है, इस पर हाल ही में जारी एक सर्वे रिपोर्ट उनके संघर्ष को नीति-निर्माताओं के सामने रखती है। ‘बियॉन्ड
18: लीविंग चाइल्ड केयर इन्स्टिटूशन्स-स्पोटिंग यूथ लीविंग केयर’ नामक सर्वे यूनिसेफ और टाटा ट्रस्ट के सहयोग से बाल देखभाल संस्थान चलाने वाली संस्था उदयन ने तैयार किया है। इस सर्वे में मुल्क के पांच राज्य दिल्ली, महाराष्ट्र, गुजरात, कर्नाटक और राजस्थान को शमिल किया गया है। सर्वे के नतीजे बताते हैं कि 18 साल पूरा होने के बाद बाल देखभाल संस्थानों से बाहर निकलने वाले युवाओं में से तकरीबन 50 फीसद को बाहरी दुनिया में कठोर हकीकत का सामना करना पड़ता है। उनमें से तकरीबन 50 फीसद तादाद ऐसे युवाओं की है जिनके पास नौकरी पाने लायक कोई भी योग्यता व क्षमता नहीं होती। बाल देखभाल संस्थानों के अनुभव बावत यह सर्वे बताता है कि 44 फीसद बच्चों के साथ उनकी देखभाल और पुनर्वासन के बारे में विचार विनिमय नहीं किया गया था। 40 फीसद केयर लीवर्स ने अपनी स्कूल की पढ़ाई पूरी नहीं की थी। 30 फीसद केयर लीवर्स को अपने अपने बाल देखभाल संस्थानों में व्यस्क मैंटर नहीं मिले थे। जिन बच्चों के बाल देखभाल संस्थानों में प्रवास के दौरान सकारात्मक अनुभव रहे, उनकी आफ्टरकेयर वाले क्षेत्र में अच्छा करने की संभावना होती है। उनके सामाजिक व भावात्मक रिश्ते बेहतर होते हैं और कॅरियर के अवसर भी बेहतर होते हैं। इस सर्वेक्षण में केयर लीवर्स के पुनर्वासन के वर्तमान दृष्टिकोण में लैंगिक विषमता को भी दर्शाया गया है। 63 फीसद लड़कियों और 36 फीसद लडक़ों की शैक्षिक पात्रता एक समान होने के बावजूद लड़कियों को आमदनी के स्वतंत्र स्त्रोत नहीं मिले पाते। पांच में से केवल दिल्ली और महाराष्ट्र इन दो राज्यों में ही लड़कियों के रहने के लिए आफ्टरकेयर होम की सुविधा है। उन्हें वित्तीय रूप से स्वावलंबी बनाने के विशेष प्रयास नहीं किए जाते। इन लड़कियों की एक तो शादी की जाती है या उन्हें स्वाधार गृह में भेजा जाता है। सर्वेक्षण के नतीजे यह भी बताते हैं कि ऐसे 67 फीसद बच्चों को आफ्टरकेयर प्रावधानों और उनके लिए बनाई गई कल्याणकारी योजनाओं के बारे में कोई भी जानकारी नहीं है।
सरकारी और गैर सरकारी बाल देखभाल संस्थानों में ऐसे बच्चों को 18 साल तक की आयु तक रखा जाता है, जो अनाथ, बेसहारा, आदि होते हैं। लडक़ों व लड़कियों दोनों के लिए अलग-अलग संस्थान हैं। ये संस्थान उनके रहने, खाने व पढ़ाई का बंदोबस्त करते हैं। भारत सरकार के महिला व बाल विकास मंत्रालय ने देश में बाल देखभाल संस्थानों की कुल संख्या जानने के लिए जैना समिति का गठन किया व 2018 में प्रकाशित जैना समिति रिपोर्ट के मुताबिक देश में मार्च 2017 तक बाल देखभाल संस्थानों की कुल संख्या 9,589 थी। इन संस्थानों में 3,70,227 बच्चे हैं। सरकारी रिपोर्ट के मुताबिक मुल्क में कुल बाल आबादी की पांच फीसद आबादी अनाथ है। 21 लाख अनाथ बच्चे 15-17 आयु वर्ग के हैं और इस आयु वर्ग को जो व्यस्क ग्रुप की ओर बढ़ रहा है, उसे विशेष ज़रूरतों में महत्वपूर्ण मार्गदर्शन की दरकार होती है। जैसा कि यह सर्वे बताता है कि देश में ज़रूरतमंद बच्चों में से 67 फीसद को आफ्टरकेयर होम्स के बारे में जानकारी ही नहीं है। आफ्टरकेयर अर्थात बाल न्याय (बच्चों की देखभाल और रक्षण) अधिनियम 2015, 2016 में यह कानूनी प्रावधान है कि ऐसे बच्चे जो 18 साल की आयु के बाद बाल देखभाल संस्थान छोड़ रहे हैं, वे और तीन साल के लिए राज्य की जि़म्मेदारी हैं व विशेष परिस्थितियों में दो साल और भी सरकार अपनी जि़म्मेदारी का निर्वाह बढ़ा सकती है। पर दिक्कत यह है कि इसका पालन गंभीरता से नहीं हो रहा है। देश के लगभग सभी राज्यों में बाल देखभाल संस्थानों को छोड़ कर जाने वाले 50 फीसद केयर लीवर्स के लिए रहने की कोई सुविधा नहीं है। और अंदाजन इतने ही बच्चों के पास कोई रैंजीडेंस पू्रफ नहीं है। उनके पास पहचान का संकट बराबर बना रहता है। केयर लीवर्स में से 48 फीसद बच्चे वित्तीय रूप से स्वावलंबी नहीं हैं। जीवन जीने का हुनर और व्यावसायिक हुनर केयर लीवर्स की आम बच्चों की तरह ही एक अहम ज़रूरत तो है पर अधिकांश इससे वंचित हैं। भारत विश्व में युवा आबादी वाले देश के रूप में जाना जाता है और सरकार युवा शक्ति को हुनरमंद बनाकर देश को नई ऊचांइया पर पहुंचाना चाहती है। युवा शक्ति को हुनरमंद बनाने की बात करते हैं तो चाइल्ड लीवर्स जोकि एक संवेदनशील श्रेणी है, पर भी सरकार को ध्यान देना होगा।
नेशनल यूथ पॉलिसी 2014, नेशनल पॉलिसी ऑन स्किल डेवलपमेंट एंड एंटरप्नियूरशिप 2015 और युवाओं के लिए बनाई जाने वाली अन्य नीतियों में इन केयर लीवर्स को संवेदनशील समूह माना जाना चाहिए। गौरतलब है कि नीति आयोग ने बच्चों के अधिकारों के लिए काम करने वाली अंतरराष्ट्रीय संस्था यूनिसेफ के साथ गतवर्ष 2018 में भारत की युवा जनसंख्या, खासतौर पर हाशिए पर रहने वाले समूहों के लिए सामाजिक-आर्थिक अवसरों के विस्तार हेतु एक राष्ट्रीय सहयोग कार्यक्रम शुरू किया है जिसे ‘युवा’ नाम दिया गया है। उम्मीद की जानी चाहिए कि इस कार्यक्रम से आफ्टरकेयर के युवा भी लाभान्वित होंगे।