3 मई को जब कर्नल आशुतोष शर्मा को उत्तरी कश्मीर के हंदवाड़ा के चांगिमुल्ला में आतंकियों द्वारा नागरिकों को बन्धक बनाने की जानकारी मिली, तो वह मेजर अनुज सूद, दो जवानों और जम्मू-कश्मीर पुलिस के एक उप निरीक्षक सगीर पठान के साथ घटनास्थल पर पहुँचे। कर्नल शर्मा की अगुवाई में मोर्चे पर सुरक्षा बलों की टीम ने स्थानीय नागरिकों को सुरक्षित निकालने के लिए आतंकियों के कब्ज़े वाले क्षेत्र में प्रवेश किया। उन्होंने नागरिकों को तो सुरक्षित निकाल लिया, लेकिन वे उग्रवादियों की भयंकर गोलीबारी के चपेट में आ गये। इस गोलाबारी में दो आतंकवादी ढेर हुए, मगर कर्नल आशुतोष शर्मा सहित पाँच जवान शहीद हो गये।
मूल रूप से उत्तर प्रदेश के बुलंदशहर के रहने वाले कर्नल शर्मा पिछले कई साल से कश्मीर में कई सफल आतंकरोधी अभियानों का हिस्सा रहे हैं। उन्हें दो बार वीरता के लिए सेना पदक से सम्मानित किया गया, जिसमें एक कमांडिंग ऑफिसर (सीओ) के रूप में बहादुरी के लिए उन्हें तब मिला, जब उन्होंने एक आतंकवादी को गोली मारी; जो अपने कपड़ों में छिपे एक ग्रेनेड के साथ सडक़ पर अपने लोगों की तरफ भाग रहा था।
आतंकियों के साथ मुठभेड़ में जान गँवाने वाले कर्नल शर्मा पिछले पाँच साल में पहले कर्नल रैंक के अधिकारी हैं। इससे पहले 2015 में सेना ने अलग-अलग आतंकी घटनाओं में दो कर्नल रैंक के अधिकारियों को खो दिया था। कर्नल शर्मा के परिवार में 12 साल की उनकी बेटी और पत्नी हैं।
इसी तरह मुठभेड़ में सर्वोच्च बलिदान देने वाले मेजर सूद का कुछ महीने पहले ही विवाह हुआ था। उनके परिवार को उनकी मृत्यु की खबर उसी दिन मिली, जिस दिन वह घर लौटने वाले थे। उन्होंने मार्च में जम्मू-कश्मीर में अपने दो साल के कार्यकाल को पूरा कर लिया था, लेकिन लॉकडाउन के कारण उन्हें रुकने के लिए कहा गया था। उनके पिता ब्रिगेडियर (सेवानिवृत्त) सीके सूद ने मीडिया को बताया कि सूद महीने भर की छुट्टी पर घर आने वाले थे और फिर पंजाब के गुरदासपुर में उन्हें ज्वाइन करना था। सेना में मेजर सूद परिवार की लगातार तीसरी पीढ़ी थे।
शर्मा और सूद की शहादत के एक दिन बाद उसी ज़िले में घात लगाकर आतंकियों ने तीन और सुरक्षाकॢमयों की हत्या कर दी। पिछले एक महीने में घाटी में आतंकी घटनाओं में तेज़ी का यह एक उदहारण है। इस महीने में कश्मीर में कोरोना वायरस के कारण लॉकडाउन की अवधि में सुरक्षा बलों ने इस केंद्र शासित प्रदेश में करीब 30 आतंकवादियों को भी मार गिराया है। इसके अलावा कर्नल शर्मा, मेजर सूद और पाँच पैरा कमांडो सहित 16 जवानों को खोया भी है। जबकि इसके विपरीत यूटी में कोविड-19 के कारण कुल नौ लोगों की जान गयी है।
हिंसा का नया दौर अप्रैल के पहले सप्ताह में शुरू हुआ, जब नियंत्रण रेखा के पास केरन सेक्टर में ऑपरेशन रेंडोरी बेहाक के तहत चली कार्रवाई में एक साथ पाँच सैनिक शहीद हुए और पाँच आतंकवादियों की मौत हुई। घुसपैठियों के समूह के बारे में जानकारी मिलने पर सेना ने उन्हें घेरने के लिए सैनिकों को मौके पर भेजा था। यह एक कठिन पहाड़ी इलाका था, जहाँ भारी बर्फबारी भी हुई थी। इससे आतंकवादियों को ट्रैक करना मुश्किल हो गया। फिर भी हमारी जाँबाज़ सेना ने अंतत: घुसपैठियों को खत्म कर दिया। हालाँकि इसमें पाँच सैनिक शहीद हो गये।
इन उलटफेरों के बाद 5 मई को सुरक्षा बलों ने दक्षिण कश्मीर में अपने पैतृक गाँव बेगपोरा में छिपे हिजबुल मुजाहिदीन के ऑपरेशनल चीफ रियाज़ नाइकू को मार गिराया। नाइकू पिछले आठ साल से यहाँ सक्रिय था। पिछले साल अलकायदा की कश्मीर यूनिट ‘अंसार गजवत-उल-हिंद’ के कमांडर ज़ाकिर मूसा को ढेर करने के बाद सुरक्षा एजेंसियों के लिए यह सबसे बड़ी सफलता थी।
हालाँकि, कोरोना वायरस के खिलाफ लड़ाई पर ध्यान चले जाने से कश्मीर में चल रही हिंसा से ध्यान हट गया है। लेकिन घाटी और नियंत्रण रेखा दोनों पर आतंकी गतिविधियों में नाटकीय वृद्धि को देखते हुए, जिसमें छ: साल के बच्चे सहित चार नागरिकों की हत्या भी हुई; गॢमयों के लिए संकेत अच्छे नहीं हैं। स्तम्भकार नसीर अहमद कहते हैं कि ऐसे समय में जब भारत और पाकिस्तान को कोविड-19 महामारी के मरीज़ों को देखने और उनकी जान बचाने की ज़रूरत है, तब हिंसा की आशंका बढ़ रही है। हम केवल यह आशा कर सकते हैं कि यह गॢमयों तक न चले।
एलओसी पर झड़पों में अचानक हुई वृद्धि को सुरक्षा एजेंसियों ने आतंकवादियों को भारत की तरफ भेजने की पाकिस्तान की कोशिश का नतीजा बताया है। सुरक्षाकॢमयों की हत्या इस दावे को सत्यापित भी करती है। लगभग सभी उग्रवादी जो मुठभेड़ों में मारे गये या घात लगाये बैठे थे; कश्मीरी थे। इन्होंने पाक अधिकृत कश्मीर (पीओके) में प्रशिक्षण लिया था। दक्षिण कश्मीर में उनके परिवारों ने सम्बन्धित थानों में उनके शव लेने के दावे किये। हालाँकि पुलिस ने उन्हें देने से मना कर दिया। क्योंकि इससे उनके अंतिम संस्कार की एक बड़ी कड़ी बन जाती। उनके शव उत्तरी कश्मीर में कहीं दफनाये गये थे।
घाटी में जैसे सुरक्षा स्थिति बन रही है, उसमें हालिया हिंसक घटनाओं से परे देखने की भी ज़रूरत है। एक, इस पैमाने पर हिंसा पिछले साल अगस्त में अनुच्छेद-370 के निरस्त होने के बाद पहली बार हुई है। इसने एक बार फिर आतंकवाद को केंद्र में ला दिया है, जो आगे गॢमयों के लिए अच्छी खबर नहीं है।
दूसरा, हमलों का दावा एक नये आतंकवादी संगठन द रेजिस्टेंस फ्रंट (टीआरएफ) ने किया है। इसके अलावा एक और उग्रवादी संगठन तहरीक-ए-मिल्लत-ए-इस्लामी (टीएमआई) ने अपने जन्म की घोषणा की है। और दोनों का दावा है कि उनकी उत्पत्ति स्वदेशी है। अब लश्कर-ए-तैयबा या जैश-ए-मोहम्मद का कोई उल्लेख नहीं है। यह एक दूरगामी रणनीति है, जिसमें यह ज़ाहिर करने की कोशिश हो रही है कि कश्मीर का आतंकवाद स्थानीय रूप से पैदा हुआ है।
यदि ऐसा है, तो यह पिछले 30 साल में पहली बार होगा कि कश्मीर-आतंकवाद को स्वदेशी बनाने के लिए जानबूझकर एक प्रयास किया गया है। यह लश्कर और जैश जैसे पाकिस्तान स्थित उग्रवादी संगठनों के कश्मीर में कार्रवाई के कमज़ोर होने का नतीजा हो सकता है। पिछले साल के पुलवामा हमले, जिसका दावा जैश ने किया था और जिसमें सीआरपीएफ के 40 जवान शहीद हो गये थे; ने भारत और पाकिस्तान को लगभग युद्ध के मुहाने पर ला खड़ा किया था।
एक पुलिस अधिकारी ने कहा- ‘द रेजिस्टेंस फ्रंट (टीआरएफ) लश्कर का ही एक छद्म रूप है। इसका धर्मनिरपेक्ष ध्वनित होने वाला नाम कश्मीर में आतंकवाद को एक धाॢमक नहीं, राजनीतिक मुहिम के रूप में दिखाने का जानबूझकर किया गया प्रयास है। इसे एक नयी छवि गढऩे की एक कोशिश कहा जा सकता है।
घुसपैठ और प्रशिक्षण का खेल
आतंकी हिंसा में ऐसे समय में फिर से तेज़ी आयी है, जब आतंकवाद कमज़ोर होने के संकेत दे रहा था। पुलिस के अनुमान के अनुसार, कश्मीर में लगभग 250 सक्रिय आतंकवादी हैं, जिनमें से लगभग 50 इस साल जनवरी के बाद मारे गये हैं। इसके अलावा धारा-370 के निरस्त होने के कुछ महीनों बाद कश्मीरी युवाओं के हथियार उठाने के मामलों में गिरावट दिखायी दी थी। इससे आतंकवादियों की संख्या में कमी आने की सम्भावना थी। लेकिन सुरक्षा बलों की हाल की हत्याओं ने इन गणनाओं को गलत साबित किया है। इसने स्पष्ट कर दिया है कि आतंकवाद खत्म नहीं हो रहा है।
घुसपैठ एक निरंतर प्रक्रिया बनी हुई है, वह भी तब जब हाईटेक सीमा बाड़ लगाने की बातें की गयी हैं। जो आतंकी सीमा पार कर रहे हैं, वे अत्यधिक प्रशिक्षित और युद्ध में निपुण हैं। यह इस तथ्य से ज़ाहिर हो जाता है कि उन्होंने पाँच पैराट्रूपर्स को भी मार दिया, जिन्होंने सितंबर, 2016 में पाकिस्तान के खिलाफ सॢजकल स्ट्राइक में हिस्सा लिया था।
यह चीज़ें यह दर्शाती हैं कि कश्मीरी युवा एक बार फिर पाकिस्तान और पाक अधिकृत कश्मीर (पीओके) में हथियारों के प्रशिक्षण के लिए सीमा पार कर रहे हैं। कुछ मामलों में युवाओं को वाघा सीमा से वैध वीज़ा पर पाकिस्तान का दौरा करने के लिए कहा जाता है। पिछले डेढ़ दशक में ऐसा नहीं था। युवा आतंकवाद से जुड़ेंगे और स्थानीय स्तर पर प्रशिक्षण देंगे। लेकिन इन सशस्त्र युवाओं के पास यह ट्रेनिंग प्रतीकात्मक ही ज़ाहिर होती है, क्योंकि अल्पकालिक प्रशिक्षण अक्सर एक के बाद एक होने वाली मुठभेड़ में उन्हें जान बचाना मुश्किल हो जाता है। पिछले एक साल में दक्षिणी कश्मीर में आतंकवादियों के साथ मुठभेड़ में शायद ही किसी सुरक्षाकर्मी की मौत हुई हो। अधिकांश आतंकवादी ट्रैक किये जाने के कुछ घंटों के भीतर ही मार दिये जाते हैं। कई मामलों में सुरक्षा बलों ने उन घरों को ही उड़ा दिया, जहाँ आतंकवादी शरण लिये हुए थे।
लेकिन कश्मीरी एक बार फिर से सीमा पार एक बेहतर हथियार प्रशिक्षण की माँग कर रहे हैं, जो सुरक्षा एजेंसियों के लिए गम्भीर चिन्ता का कारण होना चाहिए। पुलिस सूत्रों के अनुसार, जो आतंकवादी घुसपैठ कर पाने में सफल रहते हैं, उन्हें हथियारों को सँभालने के लिए छ: महीने का प्रशिक्षण मिलता है। यह सच्चाई पिछले महीनों में उनकी तरफ से सुरक्षाकॢमयों को पहुँचाये गये नुकसान को दर्शाती हैं।
एक वरिष्ठ पुलिस अधिकारी ने कहा कि आतंकवाद में बढ़ोतरी ने हमें आश्चर्यचकित नहीं किया है। अधिकारी ने कहा कि हमें उम्मीद थी कि इस बार आतंकी अपनी ताकत दिखाने की कोशिश करेंगे। लेकिन हम इससे निपटेंगे और जल्द ही हालत हमारे हक में होंगे।
आतंकी रुझान
मार्च में आतंकवाद का फिर से उभरना इसके तीन दशक लम्बे इतिहास में एक नया चरण है। इन वर्षों में आतंकवाद घटता-बढ़ता रहा है। भले बड़ी संख्या में आतंकवादियों ने सुरक्षा बलों की पकड़ को कम नहीं आँका है, लेकिन आतंकवादियों की संख्या में भारी कमी ने भी आतंकवाद की चुनौती को कम नहीं किया है। इसके विपरीत एक निरंतर पुर्नपूर्ति ने आतंकवाद को जीवित रखा है। और वह भी तब-जब घाटी में 2012-13 के आँकड़ों के मुताबिक, 100 से अधिक आतंकवादी नहीं थे और दक्षिण कश्मीर जहाँ अब करीब 200 आतंकवादियों के होने का दावा किया जाता है; में महज़ 15 आतंकी थे।
साल 2015 से पहले के दशक में हर साल सुरक्षा बलों ने औसतन 100 आतंकवादियों को मार गिराया, जो घाटी में सक्रिय आतंकवादियों की कुल संख्या भी हुआ करती थी। लेकिन आतंकवाद समाप्त नहीं हुआ, जिसकी भरपाई ज़्यादातर विदेशी आतंकियों ने की। साल 2015 के बाद बुरहान वानी के उभार ने उग्रवाद के स्तर को बदल दिया, जो अब काफी हद तक स्थानीय युवाओं पर आधारित है। विदेशी बनाम स्थानीय आतंकवादी अनुपात एक बार फिर स्थानीय आतंकवादियों के पक्ष में बदल गया है। जबसे आतंकियों के मरने की संख्या बढ़ी है, स्थानीय भॢतयों में इज़ाफा हुआ है। हालाँकि यह भर्ती मुख्य रूप से अक्षुण्य कश्मीर में हुई है, क्योंकि मध्य और उत्तरी कश्मीर संख्या घटने के मामले में ज़्यादा प्रभावित नहीं हुए हैं। साल 2016 में बुरहान वानी के मारे जाने के बाद के महीनों में घाटी में आतंकवादियों की संख्या लगभग 300 हो गयी, उनमें से अधिकांश दक्षिण कश्मीर से थे और वहीं केंद्रित हो गये।
इसका एक कारण स्थानीय समर्थन था, जो इस क्षेत्र में आतंकवादियों ने हासिल किया। आतंकवादी अंत्येष्टि में भाग लेने वाले लोगों की संख्या में नाटकीय वृद्धि से यह बात साबित भी हुई है। प्रत्येक आतंकवादी की मौत लोगों ने बड़े पैमाने पर शोक का मुज़ायरा किया। आतंकवादियों के शवों को उस क्षेत्र में सबसे बड़े उपलब्ध मैदान में दफनाने के लिए रखा गया, ताकि बड़ी भीड़ वहाँ जुटायी जा सके। यह जगह जल्दी ही बड़े पैमाने पर स्थानीय लोगों के शोर के साथ भर जाती है। वहाँ शस्त्र लहराये जाते हैं और आज़ादी समर्थक नारे लगते हैं। महिलाएँ रोयीं, उनमें से कई आतंकवादियों के शव देखकर बेहोश हो गयीं। शोक और क्रोध शव दफनाने के साथ ही कम नहीं हुआ। इन दृश्यों ने अंतिम संस्कार के बाद पूरे इलाके में व्यापक विरोध का रास्ता बनाया।
इसी तरह वहाँ भी विरोध किया गया, जब आतंकवादियों को ट्रैक किया गया और सुरक्षा बलों ने घेरा। युवाओं के झुण्डों ने मुठभेड़ स्थलों को बाधित किया। यहाँ तक की खुद का जीवन भी दाँव पर लगा दिया। आतंकवादियों को बचाने के प्रयासों में अनुमानित 50 नागरिकों की जान चली गयी है। आतंकवादियों की इस तरह एक नायक जैसी छवि ने अधिक स्थानीय युवाओं को आतंकवाद में शामिल होने के लिए प्रेरित किया। फलस्वरूप, बंदूकधारी आतंकियों की बढ़ती मौतों के बावजूद आतंकवाद जारी रहा। वास्तव में आतंकियों की मौतों ने आतंकवाद को रोकने के बजाय और इसे बढ़ाने में मदद की। लेकिन सरकार ने अपना तरीका नहीं बदला। उसने उग्रवाद को खत्म करने के लिए सख्त कार्रवाई पर ज़ोर दिया।
साल 2016 और 2017 में सुरक्षा एजेंसियों ने ‘ऑपरेशन ऑल आउट’ नाम आतंकवाद के खिलाफ अभियान को दिया। इसका उद्देश्य एक निश्चित समय सीमा के भीतर सभी आतंकवादियों को मारने का प्रयास करके आतंकवाद को खत्म करना था। सुरक्षा बल बड़ी संख्या में आतंकवादियों को मारने में सफल रहे और कुछ ही महीनों में उनकी गिनती को लगभग 100 तक कम कर दिया। इससे सक्रिय 300 आतंकवादियों की संख्या फिर से 200 के आसपास पहुँच गयी। इसी बीच घाटी में राजनीतिक गतिशीलता को प्रभावित किया गया, जिसने बिना स्थिति की गहराई को समझे हिंसा और अशान्ति के एक और चरण का रास्ता खोल दिया।
विपत्तियों का ग्राफ
दक्षिण एशिया आतंकवाद पोर्टल के अनुसार, कश्मीर में 2003 में 2542 हत्याओं के बाद से उग्रवाद से सम्बन्धित मृत्यु दर कम होने लगी थी। 2007 तक यह संख्या घटकर 777 हो गयी थी। 2012 में यह घटकर सबसे कम 117 हो गयी थी। लेकिन 2012 के बाद से हत्याएँ फिर से बढ़ रही हैं। 2013 में यह संख्या बढक़र 181 हुई। फिर 2014 और 2015 में क्रमश: 193 और 174 रही, लेकिन 2016 में यह 267 हो गयी। हालाँकि, 2018 एक दशक में सबसे घातक वर्ष रहा।
हिंसा की विभिन्न घटनाओं में कम-से-कम 586 लोग मारे गये। मारे गये लोगों में 160 नागरिक, 267 आतंकवादी और भारतीय सशस्त्र बल और जम्मू-कश्मीर पुलिस के 159 सदस्य थे। सशस्त्र बलों और पुलिस के साथ मुठभेड़ों के दौरान 267 आतंकवादियों की मौत भी पूर्ववर्ती दशक में सबसे अधिक थी। संयोग से घाटी में जब हिंसा का दौर बढ़ा तब नई दिल्ली ने पाकिस्तान और कश्मीरी अलगाववादी समूहों के साथ वार्ता को स्थगित कर दिया। भाजपा की अगुवाई वाली केंद्र सरकार की अपनायी गयी सख्त सुरक्षा लाइन कश्मीर में भी एक कठिन प्रत्युत्तर से मिली है। आतंकी भॢतयाँ बढ़ गयी हैं और वैचारिक चर्चा कट्टरपंथी हो रही है, जो दोनों और के कश्मीर के लिए घातक हैं।
इस स्थिति के प्रति एक सख्त सुरक्षा रुख और हालत ने आम लोगों के लिए पीड़ा का नया दौर पैदा किया है। और धारा-370 के हटने के बाद यह पीड़ा कई गुना बढ़ गयी है। अभूतपूर्व संचार कटौती से जुड़े छ: महीने के लम्बे लॉकडाउन, सैकड़ों नेताओं, सिविल सोसायटी कार्यकर्ताओं व प्रदर्शनकारियों की गिरफ्तारी ने लोगों, व्यवसायों, शिक्षा आदि को बहुत बड़ा झटका दिया है। अब जब जम्मू-कश्मीर इस मुसीबत और बार-बार के बन्द से उभर ही रहा था, उसे कोविद-19 नाम की इस महामारी के प्रकोप ने एक नयी मुसीबत में धकेल दिया।
नयी चुनौती का सामना
सुरक्षा एजेंसियाँ फिर से उभरे आतंकवाद की चुनौती से कैसे निपटेंगी? उत्तरी कश्मीर में पिछले एक महीने में सुरक्षाकॢमयों की हत्याओं से दक्षिण कश्मीर में अपनायी गयी प्रतिक्रिया से अलग प्रतिक्रिया अपनानी होगी।
एक पुलिस अधिकारी कहते हैं कि हम उत्तर और दक्षिण कश्मीर में उग्रवाद के दो अलग-अलग रूपों का सामना कर रहे हैं। उत्तर में प्रशिक्षित आतंकवादी हैं, जिन्होंने सीमा पार से घुसपैठ की है; जबकि दक्षिण में मुख्य रूप से स्थानीय आतंकवादी हैं, जो स्थानीय और कमज़ोर तरीके से प्रशिक्षित हैं। इसलिए उत्तर की और अधिक ध्यान देने की आवश्यकता होगी।
इसी समय में सुरक्षा एजेंसियाँ स्थानीय स्तर पर आतंकी भर्ती में आयी तेज़ी को लेकर चिन्तित हैं। अधिकारी कहते हैं कि पाकिस्तानी आतंकवाद-समॢथत स्थानीय भर्ती ने कश्मीर में आतंकवाद में उतार-चढ़ाव रखा है। लेकिन आतंकवाद को कम करने या इसे खत्म करने की कुंजी स्थानीय भर्ती पर लगाम पर निर्भर है। ऐसा करना मुश्किल और कहना आसान है।
हालाँकि सेना और पैरामिलिट्री समॢथत जम्मू-कश्मीर पुलिस को तीन दशक का अनुभव है। पिछले दो दशक में यह उग्रवाद से जूझ रहे केंद्र शासित प्रदेश में मुख्य बल के रूप में उभरा है। लेकिन इसके लिए चुनौती कई गुना बढ़ सकती है, अगर कश्मीर में आतंकवादियों की संख्या बढ़ जाती है। एक पुलिस अधिकारी ने कहा कि पिछले दो दशक में आतंकवाद में 200 से 250 आतंकवादी शामिल हैं। अब पाकिस्तान इस संख्या को बढ़ाने का प्रयास कर रहा है, ताकि अधिक-से-अधिक आतंकवादियों को भेजकर हिंसा के स्तर को बढ़ाया जा सके। लेकिन हम चुनौती के लिए तैयार हैं।
नये तर्क
हालाँकि नयी हिंसा का आयात, प्रशिक्षण के लिए पार करने वाले कश्मीरी युवाओं या उनके बड़ी संख्या में मारे जाने से परे है। इसका महत्त्व इस बात में निहित है कि घाटी में आतंकवाद खत्म हो चुकी कोई चीज़ नहीं है। खासकर जम्मू-कश्मीर की स्वायत्तता खत्म होने के बाद भी। इसके विपरीत, कश्मीर को स्वायत्तता के नतीजे के रूप में सशस्त्र संघर्ष की भावना को बल मिल सकता है। यह भी बहुत महत्त्वपूर्ण है कि पिछले नौ महीनों में इस क्षेत्र में लोकतांत्रिक राजनीतिक गतिविधि शून्य हो गयी है। धारा-370 के निरस्त होने के बाद नयी दिल्ली ने कश्मीर में सामान्य मुख्यधारा की राजनीति पर भी रोक लगा दी है, जो अलगाववादी राजनीति के लिए रास्ता खोल सकती है। यहाँ तक कि फेसबुक पोस्ट भी, जो अक्सर सहज नहीं होते हैं; कानूनी कार्रवाई को आमंत्रित करते हैं। इस तरह असंतोष ज़ाहिर करने के सभी प्लेटफार्म पर अंकुश लगा दिया गया है।
यह भी महत्त्वपूर्ण है कि पिछले साल 5 अगस्त से पहले, आतंकवाद और सार्वजनिक विरोध की मानसिकता के पीछे ज़्यादातर अलगाववादी थे और इसमें मुख्यधारा के दलों की कोई हिस्सेदारी नहीं थी। कश्मीर में अब शिकायत का दायरा बड़े क्षेत्र में फैल गया है। और इस अभिव्यक्ति के कम या मध्यम रूप में नयी दिल्ली के प्रति और अधिक विरोधी होने की आशंका है।
यह इस पृष्ठभूमि के खिलाफ है कि ताज़ा घुसपैठ हो रही है। जो आतंकवादी आ रहे हैं, उनमें सिर्फ पाकिस्तानी आतंकवादी नहीं हैं, बल्कि उनके अलावा कश्मीरी भी शामिल हैं। ज़ाहिर है कि कोविद-19 महामारी ने इस प्रवाह को नहीं रोका है। वास्तव में एलओसी के किनारे पिघलने वाली बर्फ ने इसे आसान बना दिया है। अगर आतंकियों की आमद जम्मू-कश्मीर में जारी रहती है, जैसा कि सम्भावना है; तो यह आने वाले महीनों में एक नयी चुनौती को खड़ा कर सकती है।
यह देखना दिलचस्प होगा कि क्या कश्मीर में अधिक पाकिस्तानी आतंकवादी लड़ाई में शामिल होते हैं? बुरहान वानी के 2015 में उदय के बाद स्थानीय उग्रवाद की नयी लहर शुरू हुई। कश्मीरी आतंकवादियों ने अपने विदेशी समकक्षों को सामान्य रूप से पीछे छोड़ दिया। विदेशियों के पक्ष में जन-अनुपात का कोई भी महत्त्वपूर्ण परिवर्तन नाटकीय रूप से कश्मीर में आतंकवाद के परिदृश्य को बदल सकता है। हालाँकि, इस परिदृश्य का अधिकांश भाग अटकलों के दायरे में है। लेकिन ताज़ा हिंसा ने इस सम्भावना को अधिक बल दिया है।
अफगानी प्रभाव और आतंकवाद का हल
अमेरिका के साथ अफगानिस्तान के हालिया समझौते के बाद तालिबान के निकट भविष्य में अफगानिस्तान के सम्भावित अधिग्रहण के बाद क्षेत्रीय भू-राजनीति में अपेक्षित बदलाव का कश्मीर पर निश्चित ही असर पड़ेगा। एक आशंका और सम्भावना यह भी है कि अफगान मुजाहिदीन कश्मीर वापस लौट सकते हैं। अगर पूर्व भारतीय जासूस प्रमुख एएस दुल्लत की बात मानें, तो अफगानी आतंकवादी पहले से ही कश्मीर में हो सकते हैं। दुल्लत ने हाल में एक ऑनलाइन पोर्टल को बताया कि करीब 50 विदेशी यानी पाकिस्तानी, अफगानी, अरबी और तुर्की आतंकवादी हाल के हफ्तों में सीमा पार करके कश्मीर में आये थे।
अफगान आतंकवादियों की मौज़ूदगी घाटी में ज़मीनी हालात को कैसे बदल सकती है? इसका अंदाज़ा इसी बात से लगाया जा सकता है कि नब्बे के दशक के मध्य से, जब तालिबान ने अफगानिस्तान में 9/11 तक शासन किया; इस क्षेत्र में आतंकी हिंसा में भारी वृद्धि के अलावा यह अवधि आईसी-814 प्लेन को अपहृत कर काबुल ले जाने से लेकर कारगिल युद्ध तक के लिए चिह्तित है। कश्मीर में इस तरह के परिदृश्य फिर उभरने की संभावना से इन्कार नहीं किया जा सकता। इसके अलावा भारत की कश्मीर की स्वायत्तता को वापस लेने के मद्देनज़र रणनीतिक रूप से पाकिस्तान और तालिबान को लाभ देने वाली सोच ने इसका विरोध करने की कसम खायी है और कश्मीरी इसे पहले जैसा चाहते हैं।
यह भी सच है कि अब भू-राजनीतिक सन्दर्भ नब्बे के दशक से बहुत अलग है और तालिबान खुद भी इसमें शामिल होने के लिए उत्सुक नहीं है। लेकिन अफगानिस्तान में तालिबान की शासन में वापसी बहुत बड़ा भू-राजनीतिक परिवर्तन होगा, जिसमें वह कश्मीर सहित क्षेत्रीय परिस्थितियों से जुड़ा रहना चाहेगा। इस तरह के सभी कारक कश्मीर और भारत-पाकिस्तान सम्बन्धों की स्थिति को लेकर बहुत बेहतर नहीं दिखते। दोनों देश कुछ ही समय पहले की बालाकोट जैसी स्थिति के कगार पर पहुँच सकते हैं।
एक स्थानीय राजनेता कहते हैं कि यह महत्त्वपूर्ण है कि नई दिल्ली कश्मीर में तेज़ी से बदलती स्थिति को दूर करने के लिए क्या उपाय करती है? अपनी पहचान ज़ाहिर नहीं करने की शर्त पर उन्होंने कहा कि एक राजनीतिक कदम की तत्काल आवश्यकता है, जो अनुच्छेद-370 को मनमाने तरीके से खत्म करने पर पैदा हुई आशंकाओं और चिन्ताओं का समाधान कर सकता हो। इस राजनेता ने कहा कि हिंसा तब तक शायद ही रुके, जब तक भारत और पाकिस्तान के बीच बातचीत हो और कश्मीर सहित सभी मुद्दों के समाधान की दिशा में एक प्रक्रिया शुरू हो। उन्होंने कहा कि इसके लिए एक मिसाल है- ‘साल 2003 से 2007 तक भारत और पाकिस्तान के बीच शान्ति प्रक्रिया की पाँच साल की अवधि के दौरान कश्मीर में हिंसा में भारी गिरावट आयी थी। दोनों देशों को वैसी ही प्रक्रिया शुरू करने की सख्त ज़रूरत है।’
उस समय के दौरान भारत और पाकिस्तान कश्मीर के निपटारे की दिशा में काम कर रहे थे, जिसमें तत्कालीन राष्ट्रपति परवेज़ मुशर्रफ का चार सूत्रीय फार्मूला भी शामिल था। इसमें कश्मीर हल के लिए एक चार सूत्री फार्मूला निर्धारित किया गया था। यह सूत्र थे- 1- समझौते के लिए कश्मीर में क्षेत्रों की पहचान, 2- सेना को हटाना, 3- स्वशासन और 4- भारत-पाकिस्तान के बीच एक संयुक्त प्रबन्धन या परामर्श तंत्र बनाना।
प्रस्तावों में राज्य के किसी भी क्षेत्रीय पुन: समायोजन के बिना कश्मीर समाधान की एक परिकल्पना की गयी थी,जिसमें इस्लामाबाद के पारम्परिक कठोर रुख में ज़बरदस्त कमी दिखती थी। यह पूर्व प्रधानमंत्री अटल बिहारी वाजपेयी थे, जिन्होंने मुशर्रफ के साथ यह आशा भरी वार्ता शुरू की थी, जिसका बाद में पूर्व प्रधानमंत्री मनमोहन सिंह ने पालन किया। सन् 2007 के अन्त तक समझौता कमोवेश सिरे चढऩे की तैयारी में था कि मुशर्रफ की सत्ता अचानक चली गयी और बाद में मुम्बई हमलों के बाद इस प्रक्रिया और कश्मीर समाधान का अन्त हो गया।
हालाँकि ऐसा बहुत कुछ है, जो उसके बाद घटा है। जिस गतिशीलता ने बातचीत को सम्भव बना दिया था, उसे हासिल करना आज कठिन है। जम्मू-कश्मीर की स्वायत्तता वापस लेने के बाद तो यह और कठिन हो गया है। क्षेत्रीय भू-राजनीति में और दो देशों के बीच सम्बन्धों में कई नये कारकों के अलावा शान्ति प्रक्रिया को फिर से शुरू करना मुश्किल हो गया है।
इसलिए किसी भी बातचीत के जल्द ही होने की सम्भावना नहीं है। कश्मीर एक जटिल समस्या है, जिसे एक निश्चित समय-सीमा में हल किया जाना है। कश्मीर की स्थिति पिछले तीन दशक के हालत जैसे होने के लिए तैयार दिखती है और यह राज्य के लिए बेहद निराशाजनक सम्भावना है। इसका मतलब है कि दुर्भाग्य से दुश्वारियाँ और बढ़ेंगी तथा युद्ध की इस प्रवृत्ति का कोई अन्त नहीं होगा।
राजनेता कहते हैं कि हाँ, इसमें दो राय नहीं कि कश्मीर समस्या को हल करना एक दीर्घकालिक परियोजना है। लेकिन यह एक ऐसा कार्य है, जिसके लिए सभी प्रयास किये जाने चाहिए। इन प्रयासों को मुख्य रूप से राजनीति के इर्द-गिर्द केंद्रित होना चाहिए, न कि एक सैन्य-दृष्टिकोण के; जिसका हल शायद ही कोई निकाल सकता है।