क्या जम्मू-कश्मीर का विशेष दर्जा ख़त्म होने और धारा 370 हटाये जाने के बाद केंद्र सरकार अब केंद्र शासित राज्य बन चुके जम्मू-कश्मीर को मुआबज़े के तौर पर धारा 371 का दर्जा देने की सोच रहा है। धारा 370 के तहत जो विशेष दर्जा जम्मू कश्मीर को मिला हुआ था, उससे उसे भारतीय संघ के दायरे के भीतर आंशिक स्वायतता हासिल थी। और क्या कश्मीरी नेताओं का एक छोटा समूह इसके लिए समझौता करने को तैयार है?
अभी इसे लेकर कोई स्पष्टता नहीं है, लेकिन इस आशय की अटकलें कश्मीर में यूरोपीय संघ के प्रतिनिधिमंडल के दौरे के बाद चल रही हैं। इस प्रतिनिधिमंडल की तीन बड़े कश्मीरी नेताओं मुजफ़्फर हुसैन बेग, अल्ताफ बुखारी और उस्मान मजीद से मुलाकात हुई थी। बेग पूर्व जम्मू-कश्मीर राज्य के उपमुख्यमंत्री रहे हैं और पीडीपी के शीर्ष नेता हैं। उधर बुखारी जम्मू-कश्मीर राज्य के वित्त मंत्री रहे हैं और वे भी पीडीपी के वरिष्ठ नेता हैं। जहां तक मजीद की बात है, वे एक कांग्रेसी नेता हैं।
यह नेता दिल्ली में यूरोपीय संघ के प्रतिनिधिमंडल से कश्मीरी राजनीतिक प्रतिनिधियों के रूप में मिले। नई दिल्ली के उन्हें ऐसे समय में यूरोपीय संघ के प्रतिनिधिमंडल से मिलने देने के लिए एक तरह से तख्तापलट के रूप में देखा गया जब अधिकांश कश्मीरी नेता धारा 370 को खत्म करने के बाद नजरबंद हैं। जब से इन नेताओं के अनुच्छेद 371 के लिए सौदेबाजी की चर्चा चली है, कश्मीर में सुगबुगाहट है। स्थानीय अखबारों ने इन नेताओं के कथित प्रयासों पर प्रमुखता से रिपोर्ट छापी हैं। और बेग ने भी एक बयान जारी करके इन रिपोर्टों पर भरोसा जताया कि अनुच्छेद 371 वास्तव में उनकी गतिविधियों का लक्ष्य था।
बेग ने एक समाचार एजेंसी को दिए एक साक्षात्कार में कहा कि हम एक पहाड़ी राज्य हैं और संविधान ने सभी पहाड़ी राज्यों के लिए अनुच्छेद 371 के तहत विशेष प्रावधान प्रदान किये हैं, जैसे कि अनुच्छेद 35ए के तहत हासिल हैं।
हालांकि, यहाँ एक पेंच है। और यह जम्मू कश्मीर के लिए अनुच्छेद 371 प्रस्तावित करने के लिए बेग के विचार के बारे में है। बेग पीडीपी के संरक्षक हैं; लेकिन यह स्पष्ट नहीं है कि इस माँग के पीछे उन्हें अपनी पार्टी का समर्थन है या नहीं। पीडीपी अध्यक्ष महबूबा मुफ्ती जेल में हैं। लेकिन उनकी बेटी इल्तिज़ा मुफ्ती एक फोन के जरिए अपनी मां के सम्पर्क में रहती हैं और उसी आधार पर महबूबा की तरफ से ट्वीट करती हैं। लेकिन उनका एक भी ट्वीट बेग की गतिविधियों या उनके विचार के समर्थन या अस्वीकृति को लेकर कभी पोस्ट नहीं किया गया है।
लेकिन फिर भी बेग को पीडीपी से अलग करने की बात नहीं सोची जा सकती है। वह पीडीपी के संस्थापक सदस्य हैं और जब तक पार्टी उनसे स्पष्ट दूरी नहीं बना लेती, यही माना जाएगा कि वे पार्टी की तरफ से ऐसी बात कह रहे हैं। लेकिन ऐसा अब तक नहीं हुआ है, कमसे कम उतनी तीब्रता से तो नहीं जितना अपेक्षित किया जाता है। इससे घाटी के लोगों के मन में संदेह पैदा हो रहा है। सवाल उठाए जा रहे हैं कि क्या बेग महबूबा की ओर से यह सब कर या कह रहे हैं, या महज अपनी तरफ से। और यदि वे अपनी तरफ से कर रहे हैं, तो क्यों पार्टी (पीडीपी) उनसे किनारा कर लेती है।
नई राजनीति?
इसे देखने का एक और नजरिया है। और वह यह कि क्या बेग जम्मू और कश्मीर के लिए अनुच्छेद 371 का विचार उठाकर, अनुच्छेद 370 हटने के बाद की कश्मीर की राजनीति के असली संदर्भ को उबारने की कोशिश कर रहे हैं। वैसे यह मसला अभी विचार तक सीमित है और जल्दी इसे कश्मीर में शायद ही कोइ समर्थन मिले। घाटी पिछले तीन महीनों से अधिक समय से धारा 370 को निरस्त करने के खिलाफ बन्द जैसी स्थिति झेल रही है। सार्वजनिक परिवहन सडक़ों पर नहीं हैं। आंशिक स्वायत्तता के अचानक नुकसान की पीड़ा अभी तक है। प्रमुख नेता, जिनमें तीन पूर्व मुख्यमंत्री फारुक अब्दुल्ला, उमर अब्दुल्ला और महबूबा मुफ्ती शामिल हैं, अभी भी हिरासत में हैं। इसका अर्थ है कि ये नेता अनुच्छेद 371 के विचार को हवा नहीं दे रहे। उनकी अनुपस्थिति में, इस विचार को नए बने केंद्र शासित प्रदेश की आम जनता के बीच एक स्वीकृति के रूप में खड़ा कर पाना बेहद मुश्किल है।
लेकिन जैसे-जैसे स्थिति साफ हो रही है, बहुत संभव है कि कश्मीर में नई राजनीतिक वास्तविकता नए चेहरे सामने लाये। और वे नए मुद्दों के साथ लोगों के पास जाएंगे। और यह संभव है कि फिर अनुच्छेद 371 की माँग आम हो जाए। यह राज्य में नई राजनीति को जन्म देगा। और यह भी कि बेग और बुखारी जैसे प्रमुख नेता अनुच्छेद 370 बाद की राजनीति में दिल्ली की नई कश्मीर नीति के प्रमुख चेहरों के रूप में सामने आएँ।
अभी भी अस्पष्टता भरी स्थिति में, यह नई राजनीति एक चुनौती और अनिश्चित भविष्य का सामना कर रही है। यह देखना बहुत अहम होगा कि नेशनल कॉन्फ्रेंस, पीडीपी और यहां तक कि सजाद गनी लोन की पीपुल्स कॉन्फ्रेंस जैसी पार्टियाँ इस पर क्या प्रतिक्रिया देती हैं। उनके शीर्ष नेताओं के जेल में होने के चलते, इन दलों की भविष्य की नीति पर धुंध ही छाई हुई है। उन्होंने अब तक राज्य के विशेष दर्जे को रद्द करने का विरोध किया है और इसकी बहाली के लिए लडऩे की कसम खायी है। 5 अगस्त को अनुच्छेद 370 को निरस्त करने के बाद, मुख्यधारा के सभी दलों ने एकजुटता दिखाई थी, लेकिन इसका कोइ फायदा नहीं हुआ है।
एक बार जेल से रिहा होने के बाद ये राजनेता एकजुट होकर अनुच्छेद 370 की बहाली के लिए एक जन आंदोलन शुरू करने का निर्णय कर सकते हैं। घाटी का मूड देखते हुए इस तरह के आंदोलन को जबरदस्त जन भागीदारी मिल सकती है। ऐसा होता है तो स्वतंत्रता के लिए लम्बे समय से चल रहा आंदोलन भारत के संविधान के तहत विशेष अधिकारों की बहाली की माँग के साथ जुड़ जाएगा। एक ही मंच भले साझा न करें, अलगाववाद और मुख्य धारा की राजनीति मिलकर नई दिल्ली के सामने अपनी अनुकूल शर्तें रख सकते हैं, जिससे नई दिल्ली के लिए कश्मीर एक बड़ी चुनौती बन सकता है। सत्तर साल में पहली बार ऐसा भी हो सकता है कि कोई भी कश्मीरी नेता नई दिल्ली के पक्ष में न दिखे। लेकिन क्या नई दिल्ली इन नेताओं को लम्बे समय तक जेल में बंद रखकर नये नेतृत्व और सोच को अवसर देगा, ताकि वे अपने पां जमा सकें। हालाँकि, इस तरह की राजनीति की विश्वसनीयता विवादास्पद ही दिखती है। एक क्षेत्र, जहां अनुच्छेद 371 की माँग के इर्द-गिर्द घूमती राजनीति समर्थन पा सकती है, वह है जनसंख्या के आधार पर बदलाव को लेकर घाटी की चिंताओं को दूर करना।
लेकिन ऐसा होने के लिए अनुच्छेद 371 के आसपास के नये राजनीतिक शोर को नई दिल्ली से भी कुछ हद तक जवाबदेही की आवश्यकता होगी। और यह अब तक नहीं हुआ है। अनुच्छेद 370 हटाने के बाद नई दिल्ली ने राज्य को लेकर एक अजीब सी चुप्पी साध रखी है। उसकी पूरी ऊर्जा राज्य में कानून और व्यवस्था बनाये रखने पर केंद्रित है और अनुच्छेद 370 हटाने के िखलाफ कोई बड़ा आंदोलन खड़ा न होने देना सुनिश्चत करने तक सीमित है। कश्मीर की माँगों को लेकर अभी तक एक राजनीतिक कोशिश या सन्देश का अभाव रहा है। और देश भर में धारा 370 को खत्म करने की व्यापक लोकप्रियता को देखते हुए, नई दिल्ली के लिए कश्मीर को कुछ राजनीतिक रियायतें देने की सम्भावना बहुत कम दिखती है।
लेकिन केंद्र निश्चित रूप से फारुक, उमर और महबूबा जैसे प्रमुख मुख्यधारा के राजनीतिक अभिनेताओं को कश्मीर के राजनीतिक परिदृश्य पर वापस देखना चाहता है, लेकिन अपनी शर्तों पर। पूर्ण राज्य के दर्जे की मांग और कुछ छोटी रियायतें जैसे कि यूटी सरकार में नौकरी देना जैसे चीजें तो शायद नई दिल्ली को स्वीकार्य हो भी जाएँ। लेकिन कश्मीर की राजनीति के बारे में अभी यह अटकलें लगाना जल्दबाजी होगी कि आने वाले हफ्तों और महीनों में क्या होगा।