उन्हें भले ही इसके बारे में ज्यादा मालूम न हो कि राजाराम मोहन राय, ज्योति राव फूले, ईश्वरचंद्र विद्यासागर और महात्मा गांधी जैसे महापुरुषों ने स्त्री उत्थान के क्षेत्र में क्या किया था, लेकिन फिर भी वे जाने-अनजाने अपने आस-पास की महिलाओं के जीवन में आत्मविश्वास और आत्मनिर्भरता का उजाला बिखेर रहे हैं. भारत के कोने-कोने में फैले इन अनगिनत पुरुषों की कहानियों में उन तमाम पिताओं की कहानियां शामिल हैं जिन्होंने सामाजिक दबाव के बावजूद अपने घरों में बेटियों का जन्म होने दिया, खस्ता माली हालत के बावजूद उन्हें स्कूल पढ़ने भेजा और उनकी शादियों में दहेज न देने का फैसला लिया. इन कहानियों में उन तमाम पतियों की कहानियां भी मौजूद हैं जिन्होंने अपनी पत्नियों की पढ़ाई शादी के बाद पूरी करवाई, उन्हें उनकी इच्छा के अनुसार घर पर रहने या अपने लिए रोजगार का चुनाव करने के साथ-साथ अपनी मर्जी से नौकरी करने के लिए प्रोत्साहित किया. इनमें उन भाइयों की कहानियां भी महत्वपूर्ण हैं जिन्होंने अपनी बहनों को अपना व्यक्तित्व खोजने के लिए प्रोत्साहित किया और उनके सपनों तक पहुंचने के रास्ते गढ़ने में उनका हाथ बंटाया. यहां उन सभी प्रेमियों और मित्रों की कहानियों का भी जिक्र करना जरूरी हो जाता है जिन्होंने अपने साथ जी रही लड़कियों को अपने ही जैसा सामान्य इंसान समझा और उन्हें स्नेह से स्वीकार कर लिया. उन सभी शिक्षकों का जिक्र करना तो सबसे जरूरी है जिन्होंने इस देश की लाखों लड़कियों के बुझे हुए सपनों में उम्मीद और उत्साह के रंग भर दिए. महानगरों और छोटे कस्बों से लेकर भारत के अनगिनत गांवों में महिलाओं के साथ ईमानदारी और स्नेह से खड़े हो रहे ऐसे तमाम पुरुषों की कई उज्जवल कहानियां हैं. साथ और स्नेह की इन व्यक्तिगत कहानियों के अलावा, कई ऐसे पुरुषों की कहानियां भी हमारे आस-पास बिखरी पड़ी हैं जिन्होंने अपने परिवारों में जी रही लड़कियों के साथ-साथ महिलाओं के सामूहिक विकास के लिए छोटे-छोटे लेकिन मजबूत इरादों वाले प्रयास किए. ये दो कहानियां उन दो पुरुषों की हैं जो दूर-दराज के कस्बों और गांवों में जिंदगी गुजार रही महिलाओं की बेहतरी के लिए खामोशी से काम कर रहे हैं. प्रियंका दुबे की रिपोर्ट.
उल्हास पीआर सामाजिक लापरवाही से पनपे एक ऐसे गुमनाम मुद्दे पर खामोशी से काम कर रहे हैं जो दिल्ली जैसे महानगरों में हर साल कम-से-कम 40 महिलाओं की मौत का कारण बनता है. मुंबई में रहने वाले 43 वर्षीय उल्हास लगभग पिछले तीन साल से दिल्ली की सड़कों पर दुपहिया वाहन चलाने वाली महिलाओं के लिए हेलमेट पहनने को कानूनी तौर पर अनिवार्य करवाने की लड़ाई लड़ रहे हैं. इनमें गाड़ी के पीछे बैठने वाली महिलाएं भी शामिल हैं. फिलहाल दिल्ली शहर में केंद्रित इस मुहिम के जरिए उल्हास दिल्ली मोटर व्हीकल एक्ट के सेक्शन 129 में दर्ज रुल 115 (2) का विरोध कर रहे हैं. यह नियम कहता है कि दुपहिया चलाने वाली महिलाओं के लिए हेलमेट पहनना अनिवार्य नहीं है. साथ ही गाड़ी की पिछली सीट पर बैठकर यात्रा करने वाली महिलाओं के लिए भी यह आवश्यक नहीं है.
आंकड़े बताते हैं कि हेलमेट न पहनने की वजह से साल 2010 में 70 महिलाओं की मृत्यु हुई थी. इसी वजह से 2011 में 47 महिलाओं की जान गई और 2012 में 35 महिलाएं हेलमेट न पहनने की वजह से जान से हाथ धो बैठीं. अपनी लघु फिल्मों और धरना प्रदर्शनों से लेकर दिल्ली हाई कोर्ट में जनहित याचिका दायर करने तक अलग-अलग तरीकों से इस मुद्दे को उठा रहे उल्हास मानते हैं कि दिल्ली मोटर व्हीकल एक्ट स्त्रियों के प्रति भेदभावपूर्ण है. तहलका से बातचीत में वे कहते हैं, ‘मौजूदा कानून के मुताबिक पुरुषों के लिए हेलमेट लगाना जरूरी है लेकिन महिलाओं के लिए नहीं.
उल्हास पीआर दोपहिया वाहनों पर बैठने वाली महिलाओं के लिए हेलमेट अनिवार्य करने की मुहिम चला रहे हैं
गाड़ी के पीछे बैठने वाली महिलाओं के साथ-साथ गाड़ी चलाने वाली लड़कियों के लिए भी हेलमेट कम्पलसरी नहीं है. मुझे तो लगा था कि दिल्ली सरकार मेरी याचिका पर तुरंत कार्रवाई करेगी, लेकिन उन्होंने तो मेरे खिलाफ वकीलों की फौज खड़ी कर दी. मुझे तो समझ में नहीं आता कि अदालती आदेशों के बावजूद दिल्ली सरकार इस कानून में बदलाव क्यों नहीं कर रही. या तो इस सरकार के लिए प्रदेश की महिलाओं के जीवन का कोई मूल्य नहीं या फिर वह आपराधिक स्तर तक लापरवाह है.’
उल्हास ने अपनी इस मुहिम की शुरुआत आठ मार्च, 2010 को दिल्ली विश्वविद्यालय के गार्गी कॉलेज से की थी. उन्होंने यूनिवर्सिटी की100 छात्राओं से बातचीत की और सभी ने एक सुर में कहा कि महिलाओं के लिए हेलमेट पहनना अनिवार्य किया जाना चाहिए. इसके बाद उन्होंने अपनी याचिका के साथ दिल्ली के 70 विधायकों को एक-एक हेलमेट का सांकेतिक उपहार भी दिया. फिर धरना प्रदर्शनों, लघु फिल्मों और सत्तासीन लोगों को लिखे जाने वाले पत्रों का सिलसिला शुरू हुआ जो आज भी जारी है. लेकिन मामला आगे न बढ़ता देख उल्हास ने अगस्त, 2011 में अपनी याचिका दिल्ली हाई कोर्ट में दाखिल की. 25 अप्रैल, 2012 को उल्हास के पक्ष में फैसला सुनाते हुए अदालत ने दिल्ली सरकार को आदेश दिया कि कानून में जरूरी फेर-बदल करके महिलाओं के लिए हेलमेट अनिवार्य किया जाए. उल्हास कहते हैं, ‘अदालती आदेश के महीनों बाद भी जब कोई सुगबुगाहट नहीं हुई तो जुलाई में हमने अवमानना की अर्जी लगाई. अदालत ने सरकार को दिसंबर तक कानून में तब्दीली लाने के निर्देश तो दे दिए हैं लेकिन मुझे कोई उम्मीद नहीं है. अगर एक महिला मुख्यमंत्री के रहते हुए भी सरकार अपनी ही आधी आबादी की सुरक्षा को लेकर इतनी लापरवाह है तो देश के बाकी राज्यों से क्या उम्मीद की जा सकती है?’
मरुगनंथम ने किया कमाल
कुछ दिन पहले तक विजया और लता नाम की बहनें कोयंबटूर में नाममात्र की तनख्वाह पर नौकरी किया करती थीं. पिछले साल नवंबर में उन्होंने जैसे-तैसे 85,000 रुपये इकट्ठा किए और उनसे एक स्थानीय कारीगर द्वारा ईजाद की गई मशीन खरीद डाली. बस तभी से मानो उनकी सारी आर्थिक परेशानियां छूमंतर हो गईं. इसका मतलब यह नहीं कि यह कोई नोट छापने की मशीन है. दरअसल इससे महिलाओं की सैनिटरी नैपकिन बनाई जाती है. ‘हमने एक तमिल पत्रिका में इसके बारे में पढ़ा था और तभी हमने इसे खरीदने का फैसला कर लिया था,’ लता कहती हैं. आज वे नैपकिन बेचकर महीने में 5,000 रुपये से ज्यादा आसानी से कमा लेती हैं और उनका उत्पाद कोयंबटूर और आस-पास के ग्रामीण क्षेत्रों में खासा सफल है. उनकी नैपकिन ‘टच फ्री’ के नाम से बाजार में उपलब्ध है. उनके घर से थोड़ी ही दूरी पर रहने वाली अवकाशप्राप्त शिक्षिका राजेश्वरी ने भी इसी तरह का अपना एक छोटा-सा कारखाना लगा रखा है. ‘हमारी नैपकिन बाजारों में बिकने वाली आम नैपकिन से मोटी होती है’, वे कहती हैं, ‘ये उन ग्रामीण महिलाओं को ध्यान में रखकर बनाई गई है जिन्हें दिनभर खेतों में काम करना पड़ता है, जिससे कि एक ही पैड पूरे दिन चल सके.’
बेहद कम लागत में तैयार होने वाली इस सैनिटरी नैपकिन को बनाने वाली मशीन 47 वर्षीय ए मुरुगनंथम का आविष्कार है जिन्हें दसवीं कक्षा में ही अपनी पढ़ाई छोड़नी पड़ी थी. प्रति घंटे 120 नैपकिन का उत्पादन करने वाली ऐसी करीब 100 मशीनें अब तक पूरे देश में लगाई जा चुकी हैं जिनमें से 29 तो सिर्फ हरियाणा में हैं. इसके अलावा इन मशीनों को उत्तर प्रदेश, आंध्र प्रदेश, बिहार और उत्तराखंड में भी लगाया जा रहा है.
ए मुरुगनंथम ने महिलाओं के लिए सस्ते सैनिटरी नैपकिन बनाने की कम खर्चीली मशीन बनाई है
मुरुगनंथम को इस बात की जानकारी होने में ही दो साल लग गए कि सैनिटरी नैपकिन में प्रयोग होने वाली पैडिंग चीड़ के पेड़ के गूदे से बनती है न कि साधारण कपास से. अपने आविष्कार की जबरदस्त फलता के बावजूद मुरुगनंथम ने अपनी इस मशीन का पेटेंट अधिकार बेचने से साफ इनकार करते हुए एक निजी कंपनी का ब्लैंक चेक वापस कर दिया. उनका कहना था कि वे अपनी मशीन का उपयोग ग्रामीण और गरीब शहरी महिलाओं के बीच सफाई और स्वास्थ्य को बढ़ावा देने के लिए करना चाहते हैं. मुरुगनंथम के मुताबिक देश के ग्रामीण क्षेत्रों में ज्यादातर महिलाएं सैनिटरी पैड के रूप में कपड़े का इस्तेमाल करती हैं जो असुरक्षित है और इससे तमाम तरह की बीमारियां होने का खतरा रहता है. 2006 में आईआईटी मद्रास ने मुरुगनंथम को ‘समाज के स्तर में सुधार के लिए किए गए आविष्कार’ की श्रेणी में प्रथम पुरस्कार से नवाजा था. 2008 में उन्होंने आईआईएम अहमदाबाद में देश भर से उपस्थित हुए आविष्कारकों की बैठक को संबोधित भी किया.
मगर सफलता के इस मुकाम तक का संघर्ष आसान नहीं रहा. पिता के स्वर्गवास के बाद मुरुगनंथम के परिवार को काफी समय तक भीषण संघर्ष करना पड़ा था. उस दौरान कुछ सालों तक एक वेल्डिंग की दुकान में एक साधारण मैकेनिक का काम करने के बाद उन्होंने कोयंबटूर में अपनी खराद की दुकान खोली. चार साल की अथक मेहनत के बाद उन्हें सैनिटरी नैपकिन बनाने वाली मशीन बनाने में सफलता मिली. मुरुगनंथम बताते हैं, ‘जब मैंने शोध करना शुरू किया तो मेरे परिवारवालों को लगा कि मैं पागल हो गया हूं. यहां तक कि इस दौरान मेरी मां मुझे छोड़ कर चली गई और मेरी बहन ने मुझे नजरअंदाज करना शुरू कर दिया.’ लेकिन आज मुरुगनंथम की सफलता पर सभी को बेहद गर्व का अनुभव होता है.
–पीसी विनोज कुमार
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