जागुड़ी गांव में हम हाकिम जादुपेटिया के घर पहुंच तो गए हैं लेकिन उनकी व्यस्तता में कोई कमी नहीं आई है. हाकिम इशारे से हमें बैठने को कहते हैं. उनकी पत्नी लालमुनी जादुपेटिया तो इतनी तल्लीन हैं कि वे हमारी ओर देखती भी नहीं. हम खाट पर बैठ जाते हैं. हमें थोड़ी-सी हैरानी और चिढ़ हो रही है कि वे हमें थोड़ा वक्त देकर भी तो अपना काम कर सकते थे, लेकिन तभी हमारी नजर फिर जादुपेटिया दंपति पर जाती है और हमारा गुस्सा काफूर हो जाता है. वे किसी ध्यानमग्न योगी की तरह अपने काम में लगे हैं, दीन-दुनिया से बेखबर. तकरीबन 10 मिनट बाद काम से निपटकर वे कहते हैं, ‘माफ कीजिएगा, बीच में काम छोड़ नहीं सकता था नहीं तो गड़बड़ हो जाता.’ हाकिम आगे बताते हैं कि वे घुंघरू बना रहे थे और एक घुंघरू तैयार करने में उस पर 17 बार हाथ लगाना पड़ता है. एक बार भी हाथ गलत तरीके से लगा तो वह घुंघरू बेकार हो जाता है.
कुल 17 बार हाथ फेरने के बाद बनी कलाकृति की कीमत मात्र 10 रुपये है. इतनी कम कीमत क्यों? जवाब मिलता है, ‘ऐसा क्यों, यह तो नहीं जानता. लेकिन इतना जरूर जानता हूं कि हमारी कला की मांग और कीमत तो दुनिया में दिन-प्रतिदिन बढ़ती जा रही है, यहां तक कि कच्चे माल का मूल्य भी दिन दोगुना-रात चौगुना बढ़ रहा है, लेकिन हमारे हुनर का मूल्य एक जगह ठहरा हुआ है.’ हम फिर पूछते हैं कि यह स्थिति है तो यह काम करते ही क्यों हैं. उनकी गर्वीली आवाज गूंजती है, ‘बुनियादी पेशा है, इसे छोड़ नहीं सकते. इसे छोड़कर और करेंगे भी क्या? वैसे हमें यह उम्मीद भी लगी रहती है कि आज अगर दुनिया में हमारी कला के दीवाने बढ़ रहे हैं, इसकी मांग बढ़ रही है, कीमत बढ़ रही है तो कल को शायद हमारे हुनर का मूल्य भी बढ़ जाए.’
जागुड़ी गांव में इस समुदाय के 22 घर हैं. यहां हमारी मुलाकात पैगंबर, मकबूल, अरजीना और प्रहलाद जादुपेटिया से होती है. कोई नाक-कान और गले के आभूषण बनाने में व्यस्त है तो कोई घुंघरू व मूर्ति बना रहा है. हम प्रहलाद से पूछते हैं कि कला को जिंदा रखने की जिद तो ठीक है लेकिन एक साल में वे इससे कितना कमा पाते हैं. जवाब में प्रहलाद हंसते हैं. उनका जवाब थोड़ा दार्शनिक है, ‘यह तो हमें आज तक समझ में नहीं आया. दरअसल हम पता करना भी नहीं चाहते.’
जागुड़ी झारखंड के संथाल परगना इलाके में दुमका से केवल 35 किलोमीटर दूर है. खस्ताहाल सड़क इस सफर को तीन घंटे में बदल देती है. जादुपेटिया समुदाय के लोग कई पीढ़ियों से पीतल, मिट्टी, मोम, धूमन (साल के पेड़ से निकलने वाला चिपचिपा पदार्थ), सरसों के तेल आदि के मेल से नायाब कलाकृतियां बनाते हैं. कला को मूल धर्म मानने वाला यह समुदाय हिंदू-मुसलमान-ईसाई आदि धर्मों के सम्मिलित स्वरूप वाला है. यह समुदाय कला की जो शैली अपनाए हुए है उसे डोकरा आर्ट कहते हैं जिसकी चमकती हुई मूर्तियां और कलाकृतियां बड़े लोगों के ड्रॉइंग रूम में, बड़े समारोहों में स्मृति चिह्न के रूप में और बड़े शहरों के कला घरों में महंगी कृतियों की श्रेणी में देखी जा सकती हैं.
जागुड़ी से हम करीब पंद्रह किलोमीटर दूर बसे जबरदाहा गांव में पहुंचते हैं. वहां अलीम अली से मुलाकात होती है. अलीम युवा कलाकार हैं. पिछले साल झारखंड में हुए 34वें राष्ट्रीय खेल के दौरान अलीम और उनके साथियों ने ही प्रतिभागियों को देने के लिए राष्ट्रीय खेल के शुभंकर की अनुकृति और डोकरा आर्ट की कलाकृतियां तैयार की थीं. सरकार के बुलावे पर अलीम अपने गांव और आस-पास के गांव के जादुपेटिया समुदाय के करीब 50 लोगों को लेकर रांची पहुंचे थे. नईमुद्दीन, रतनी, शंभू, ढुबरी, हारिज, निजाम, ख्वाजामुद्दीन, मुमताज, मदीना, नियामन, ललन, सुखचांद, हिरामन, भानु, खुदीमन, सहिजन, नवाज अली, अबेदीन आदि सब दो माह तक कलाकृतियां बनाते रहे. बाद में इनकी मजदूरी का भुगतान करके सरकारी विभाग ने इन्हें अपने-अपने गांव तक पहुंचा दिया.
साथ लौटा तो केवल काम का आश्वासन. लेकिन आज अलीम और उनके साथी अपने गांव के पास के ही सरसडंगाल खदान में पत्थर तोड़ने का काम करते हैं. अलीम कहते हैं कि इस पेशे से परिवार चलना बहुत मुश्किल है. वे एक पुराना अलबम उठा लाते हैं और दिखाते हुए कहते हैं, ‘देखिए, हम शिमला, गुवाहाटी, शिलांग, चेन्नई, गोवा, कोलकाता आदि सभी जगह जाकर प्रदर्शनी लगा चुके हैं. इसके लिए सरकार हमें मदद देती थी. लेकिन अब सरकार और सरकारी संस्थाओं ने हमें हमारे हाल पर छोड़ दिया है, इसलिए मजदूरी करने के सिवा हमारे पास और कोई विकल्प भी नहीं है. साल में एक बार शांति निकेतन में मेला लगता है तो वहां के लिए हम सारे लोग काम करते हैं. बाकी तो बस यूं ही कटती है.’
अलीम हमें इसका अर्थशास्त्र समझाने में कामयाब होते हैं. वे कहते हैं, ‘हम एक बार में 30-35 किलो पुराना पीतल बाजार से लाते हैं, जिसकी कीमत लगभग दस हजार रुपये होती है. इतना पैसा हमारे पास होता नहीं, इसलिए हमारे लोग डेढ़ गुना भुगतान के वायदे पर घर के गहने गिरवी रखकर महाजनों से रुपये लेते हैं. दस हजार के पीतल से 20 हजार का माल तैयार होकर आढ़त में बिकता है. महाजन 100 का 150 रुपये लेता है. तो 15 हजार रुपये हमें महाजन को ही देने पड़ते हैं, शेष जो पांच हजार बचते हैं उसी में हमारी मजदूरी भी होती है, भट्टी जलाने के लिए कोयला, डिजाइन तैयार करने के लिए मोम, धूमन, सरसों तेल आदि का खर्च भी इसी में शामिल है. समझ सकते हैं कि क्या अनुपात है हमारी कलाकारी में बचत का!’
अलीम हमें यह भी बताते हैं कि ये कलाकृतियां कैसे बनती हैं. पहले पुराने पीतल को लाकर उसे भट्टी में डाला जाता है. फिर उसे तोड़कर उसके छोटे टुकड़े या चूर्ण बनाया जाता है. उसके बाद धूमन, सरसों का तेल और मोम को मिलाकर एक खास किस्म का धागा बनता है. ऐसे धागों से मिट्टी पर डिजाइन तैयार किया जाता है. फिर मिट्टी के सांचे पर बने डिजाइन के ऊपर मिट्टी की एक और तह चढ़ाई जाती है. फिर उसके ऊपरी भाग पर एक छोटा-सा छेद छोड़कर उसके ऊपर पीतल को एक कटोरेनुमा मिट्टी के पात्र में डालकर उसे भी मिट्टी में ही बंद कर दिया जाता है. ऐसा आकार बनाया जाता है कि पीतल पिघलकर मोम वाले भाग में स्वत: पहुंच जाए. फिर उसे भट्टी में डाल दिया जाता है. गर्मी से पिघलकर पीतल मोम वाले हिस्से से डिजाइन के चारों ओर फैल जाता है. तैयार डिजाइन वाला धागा गल जाता है और उसकी जगह पिघला हुआ पीतल ले लेता है. यह उस जमाने की तकनीक है जब कला विशुद्ध रूप से इंसानी हुनर थी, मशीन के हस्तक्षेप से पूरी तरह मुक्त.
सवाल उठता है कि आखिर क्यों इतनी मेहनत से बनी कलाकृतियों के लिए कलाकार को कम पैसे मिलते हैं जबकि बाजार में यह मुंहमांगे दामों पर बिकती है. अलीम बताते हैं कि इन्हें बनाने के बाद पॉलिश करनी होती है. गांव में बिजली नहीं होने के कारण बिना पॉलिश किए ही इनको बाजार में बेचना पड़ता है. ऐसी हालत में एक घुंघरू 10 रुपये में तो कान के फूल और गले के हार 25 से 30 रुपये में बिक पाते हैं. खरीदने वाले इसे मशीन से पॉलिश करवाते हैं और तत्काल इसकी कीमत में 10 से 20 गुना इजाफा हो जाता है. अगर बिजली का बंदोबस्त हो जाए तो पॉलिश करने वाली मशीन खरीदने के लिए भी काफी पैसों की जरूरत होगी.
इस समुदाय के लोगों की बसाहट जागुड़ी, जबरदाहा, बिसरियान, ढेबाडीह, ठाकुरपुरा, सापादाहा, बिसनपुर, खेजुरडंगल, देबापाड़ा, मुजराबाड़ी, नावाडीह जैसे 12 गांवों में है, लेकिन जागुड़ी और जबरडाहा को छोड़ बाकी गांव इस पारंपरिक पेशे से तौबा कर चुके हैं.
इस समुदाय और कला का कोई लिखित इतिहास नहीं मिलता लेकिन माना जाता है कि जब से मानव में शृंगार की भावना आई तब से इसका अस्तित्व है. चूंकि वे आदिवासी समुदाय के बीच बसे हैं, इसलिए इनकी कला में भी आदिवासी पुट है. सिद्धू कान्हु विश्वविद्यालय के इतिहास विभाग के पूर्व अध्यक्ष डॉ सुरेंद्र झा कहते हैं कि इस समुदाय का लिखित इतिहास तो कहीं नहीं मिलता लेकिन यह तय है कि ये घुमंतू लोग हैं और इनकी कलाकृतियों को क्लासिकल ट्राइबल आर्ट की श्रेणी में रखा जाता है.
[box]जादुपेटिया समुदाय के लोगों की बसाहट करीब 12 गांवों में हैं, लेकिन जागुड़ी और जबरडाहा को छोड़ बाकी गांव इस पारंपरिक पेशे से तौबा कर चुके हैं[/box]
जादुपेटिया समुदाय का कलाकर्म तो क्लासिकल है ही, उनकी जीवनशैली भी खास और विचित्र है. जागुड़ी और जबरदाहा गांव में जादुपेटिया परिवारों के बीच जाने के बाद कई दिलचस्प बातें जानकारी में आती हैं. पता चलता है कि पैगंबर जादुपेटिया के बेटे का नाम प्रहलाद जादुपेटिया है. प्रहलाद जादुपेटिया ने अपने बेटे का नाम अहमद जादुपेटिया रखा है. एक ही घर परिवार में निजाम, मदीना, भानु, शंभू जैसे सदस्य मिलेंगे. नाजिर जादुपेटिया ने अपनी बेटी का नाम मरियम रखा है और फिर उसकी शादी एक अंसारी परिवार में की है. वे किस समुदाय से आते हैं, हिंदू हैं या मुसलमान इसका सीधा जवाब कोई नहीं दे पाता. हालांकि अलीम कहते हैं कि वे लोग मुसलमान समुदाय से आते हैं. यह पूछने पर कि कौन-से मुसलमान, अलीम कहते हैं कि पता नहीं.
इस खास समुदाय की खास कला को लेकर सरकार चिंतित क्यों नहीं है? हम दुमका के उपायुक्त हर्ष मंगला से पूछते हैं कि क्यों सरकार इस विशेष समुदाय को अपने हाल पर छोड़कर आधुनिक समय में भी पसंद की जाने वाली विधा को सदा-सदा के लिए खत्म कर देना चाहती है. हर्ष मंगला कहते हैं, ‘इस समुदाय के 250 परिवारों में से जो बेहतर हैं उन्हें झारक्राफ्ट (कला एवं संस्कृति मंत्रालय की शाखा) से सहयोग मिल रहा है.’ यह पूछने पर कि क्या इस विकट स्थिति में उनकी सहयता के लिए कोई योजना बन सकती है, हर्ष मंगला कहते हैं, ‘फिलहाल तो कोई योजना नहीं है, जब कोई योजना आएगी तो उसका लाभ उन्हें दिया जाएगा.’
वे यह बात ऐसे कहते हैं जैसे इस कलाकर्म में लगने वाली नई पीढ़ी भी अपने उद्धार के लिए योजना के इंतजार में विरासत का बोझ ढोने की गारंटी दे रही हो! रही बात राजनीतिक दलों की तो संख्या बल में यह समुदाय मुठ्ठी भर है इसलिए शायद इसकी विडंबनाएं राजनीति के गलियारे में कभी मसला नहीं बनने वालीं. और तब यह तय-सा लगता है कि शायद कुछ सालों बाद 12 में से बचे दो गांवों के जादुपेटिया समाज के लोग भी अपने इस आदि-बुनियादी पेशे से तौबा करके दिहाड़ी मजदूरी करने परदेश जाकर बस जाएंगे जिसके लिए संथाल परगना का इलाका लंबे समय से जाना जाता रहा है.