धर्म आवश्यक है, परन्तु अति आवश्यक नहीं। क्योंकि धर्म से पहले हर किसी को जीवन की आवश्यकता है। जीवन बचे, इसके लिए पेट भरने और साँस लेने की आवश्यकता होती है। अगर ये नहीं होंगे, तो जीवन ही नहीं रहेगा। फिर धर्म किसके लिए, किस काम का? इसका अर्थ यह है कि धर्म जीवन के लिए नहीं, वरन् जीवन को सन्मार्ग पर रखने के लिए, मानवता के लिए और सामाजिक व्यवस्था के लिए हैं। हालाँकि अगर पूरी दुनिया का एक ही धर्म होता, तो भी लोग जी सकते थे। परन्तु लोगों की अलग-अलग सोच ने, अलग-अलग भाषा ने, अलग-अलग विचारों, संस्कारों, संस्कृतियों व व्यवस्थाओं ने कई धर्मों एवं पन्थों को जन्म दे डाला। फलस्वरूप सभी धर्मों के मानने वालों में न केवल मतभेद पनपे, वरन् कई विवाद भी पैदा हो गये। लोगों का अपने-अपने धर्म को ही सर्वोपरि मानना, एक-दूसरे पर हमलावर रहना इसके सबसे बड़े कारण हैं।
लोगों को समझना पड़ेगा कि सर्वोपरि तो ईश्वर है। ईश्वर के बाद अगर कोई है, तो वह प्रकृति है। जो लोग सत्ता या ताक़त के नशे में चूर होकर यह कहते हैं कि वे जो चाहें कर सकते हैं; तो ऐसे लोग ज़रा सोचें कि क्या वे संसार में कुछ ऐसा कर सकते हैं, जो उनकी क्षमता के बाहर हो, असम्भव हो? क्या उनमें प्रकृति से उलझने की क्षमता है? क्या वे प्रकृति या ईश्वरीय सत्ता को चुनौती दे सकते हैं? ईश्वर की दया के सहारे प्रकृति की गोद में एक कीड़े-मकोड़े की भाँति जीने वाले स्वयं को महाबलशाली और भाग्यविधाता समझने की जो भूल करते हैं, वह एक हास्य स्वप्निल भ्रम के सिवाय और कुछ नहीं। क्योंकि एक मामूली-सा झटका किसी को भी तहस-नहस अथवा पूर्णतया नष्ट कर सकता है। फिर किस बात का दम्भ भरना?
हालाँकि इस सत्य को चुनौती नहीं दी जा सकती कि प्राणियों के बस का कुछ नहीं है। क्योंकि जीवन के लिए कर्म तो उन्हें ही करना है। क्योंकि हर कोई कर्म के अनुरूप फल पाता है और भक्षण के चलते ही जीवित है। परन्तु इस बात का भ्रम भी व्यर्थ है कि धर्म से ही उद्धार होगा। उद्धार तो कर्म से ही होगा। परन्तु इसका अर्थ यह भी नहीं कि कुछ करने की सामथ्र्य होने के चलते मनुष्य अथवा अन्य कोई प्राणी सर्वश्रेष्ठ हो गया। वह जो भी चाहे कर सकता है। जीव जीवन रहते कुछ-न-कुछ तो करता ही है, किन्तु किसके बल पर? शक्ति के बल पर और शक्ति तभी है, जब प्राण हैं। दोनों ही उसके पास हैं; परन्तु दोनों ही उसके नहीं हैं। वरन् ईश्वर के हैं। यही बात इस दिग्भ्रम से निकालती है कि हम कुछ कर रहे हैं, या हम कुछ भी कर सकते हैं। परन्तु इसका अर्थ यह भी नहीं कि हम कुछ भी न करें। जीने के लिए कर्म तो करना ही पड़ेगा। बिना कर्म के जीवन भी मरण के समान हो जाएगा। इसीलिए गोस्वामी तुलसीदास ने लिखा है :-
”कर्म प्रधान विश्व रचि राखा।
जो जस करई, सो तस फल चाखा।।“
अर्थात् कर्म की प्रधानता के चलते ही पूरे विश्व की रचना हुई है। इसलिए जो जैसा कर्म करता है, उसे उसी (कर्म) के अनुरूप फल (परिणाम) मिलता है। परन्तु इस संसार में सब अपने-अपने लिए ही कर्म कर रहे हैं। अगर हम दूसरों की रक्षा भी करते हैं, तो इसलिए ताकि हम भी सुरक्षित रह सकें। अगर हम किसी के लिए कुछ करते हैं, तो इसलिए कि वह भी हमारे लिए कुछ करे, या भविष्य में करेगा।
इसका अर्थ यह है कि संसार में जितने भी प्राणी हैं, सब स्वार्थ से जुड़े हैं। यह स्वार्थ ही है कि हम जिसे नहीं चाहते या अपने हित में नहीं मानते या अपने से अलग समझते हैं या जिससे $खतरा महसूस करते हैं, उसे कुचल देना चाहते हैं। यही कुचलने की सोच झगड़े की जड़ है, जिसके पीछे कहीं-न-कहीं अपने-अपने धर्म, भाषा, संस्कार, रंग, रूप, आचार-व्यवहार, त्योहार, खानपान एवं संस्कृति को महत्त्व देने की कोशिश तथा दूसरे के प्रति अस्वीकृति ही होती है। मनुष्य के अतिरिक्त दूसरे किसी भी जीव को धर्म से कोई लेना-देना नहीं है। उसे कर्म से लेना-देना है। क्योंकि कर्म के बिना तो किसी का जीवन सम्भव ही नहीं है। आज भी हर प्राणी प्रकृति प्रदत्त स्वभाव के अनुरूप जीने के लिए कर्म करता है। परन्तु मनुष्य में भटकाव का स्वभाव है। इस भटकाव को रोकने के लिए ही धर्म बनाये गये हैं। परन्तु आज मनुष्य कर्म तथा धर्म, दोनों से ही भटक गया है। यही कारण है कि अब मनुष्य मनुष्य से लड़ रहा है। फिर भी वह अपने को श्रेष्ठ मानने का भ्रम पालता है। परन्तु यह कैसी श्रेष्ठता है कि दूसरों को चैन से जीने नहीं देती? दूसरे को दबाने, नष्ट करने के लिए पाप करा देती है। वे लोग श्रेष्ठ कैसे हो सकते हैं, जो अत्याचार, अलगाववाद, अनैतिकता, अपराध तथा घृणा को बढ़ावा देते हों। वह धर्म कैसे हो सकता है, जो किसी भी प्रकार का पाप करने के लिए प्रेरित करे? धर्म तो पाप से बचाने के लिए है।