दक्षिण में भाजपा और कांग्रेस की पैठ का संकेत देंगे नतीजे
साल 2024 के आम चुनाव का पहला बड़ा इम्तिहान कर्नाटक में होगा। चुनाव आयोग ने 10 मई को वहाँ मतदान तय किया है और कांग्रेस और भाजपा वहाँ मुख्य दौड़ में दिख रहे हैं। चुनाव सर्वे पर भरोसा न भी करें, तो भाजपा जहाँ प्रधानमंत्री मोदी के चेहरे पर निर्भर दिख रही है, वहीं कांग्रेस स्थानीय मुद्दों, जिनमें 40 फ़ीसदी कमीशन का मुद्दा शामिल है; के भरोसे अपनी नैया पार लगने की उम्मीद कर रही है।
इस साल प्रधानमंत्री मोदी आठ बार कर्नाटक का दौरा कर चुके हैं और कांग्रेस ने अपना नया अध्यक्ष कुछ ही महीने पहले मल्लिकार्जुन खडग़े के रूप में कर्नाटक से चुना है। राज्य में तीसरी मज़बूत पार्टी पूर्व प्रधानमंत्री एच.डी. देवेगौड़ा की जनता दल (एस) है, जिसे सिर्फ़ यह चिन्ता है कि किसी एक पार्टी के पक्ष में नतीजा गया तो सबसे ज़्यादा नुक़सान उसी को झेलना पड़ सकता है। दक्षिण में पाँव जमाने की भाजपा की कोशिशों की परीक्षा कर्नाटक के नतीजों से तय हो जाएगी। यह भी पता चल जाएगा कि क्या 2024 से पहले दक्षिण में कांग्रेस फिर अपने पाँव जमा रही है?
कर्नाटक के चुनाव में हाल के महीनों में स्थानीय मुद्दे काफ़ी तेज़ी से उभरे हैं। भाजपा वहाँ राष्ट्रीय मुद्दे उभारने की कोशिश में है, ताकि कांग्रेस को बढऩे से रोका जा सके। प्रधानमंत्री मोदी के काफ़ी चुनावी दौरे भाजपा ने रखे हैं। उसका भरोदा मोदी पर ही टिका है। यह माना जाता है कि मुख्यमंत्री के रूप में बसवराज बोम्मई बहुत प्रभावशाली प्रदर्शन नहीं कर पाये हैं और उनकी सरकार भी कई बार विवादों में घिरी है, जिसमें सबसे बड़ा मुद्दा भ्रष्टाचार का है। इसे ही कांग्रेस सबसे बड़ा चुनावी मुद्दा बनाये हुए है। कांग्रेस के लिए यह चुनाव इसलिए भी इज़्ज़त का चुनाव है, क्योंकि उसके नये अध्यक्ष मल्लिकार्जुन खडग़े कर्नाटक से हैं। खडग़े ने राहुल गाँधी से मिलकर कर्नाटक के टिकट तय किये हैं। वैसे भी कांग्रेस जब 166 उम्मीदवारों की घोषणा कर चुकी थी, तब जाकर भाजपा ने उम्मीदवार घोषित करने शुरू किये। कांग्रेस की इस पहल का लाभ प्रचार के रूप में उन उम्मीदवारों को मिला, जिनके नाम घोषित हो चुके थे। कर्नाटक का चुनाव राहुल गाँधी के लिए भी व्यक्तिगत रूप से बहुत अहम है। उनकी ‘भारत जोड़ो यात्रा’ काफ़ी दिन तक कर्नाटक में रही थी और उसे जनता का ख़ासा समर्थन भी मिला था। यह पहला ऐसा चुनावी राज्य होगा, जहाँ से राहुल गाँधी की यात्रा गुज़री है। ज़ाहिर है जीत की स्थिति में कांग्रेस इसका श्रेय राहुल गाँधी को देगी। कांग्रेस ने दिसंबर में हिमाचल विधानसभा चुनाव भी जीता था; लेकिन राहुल तब तक यात्रा के लिए वहाँ नहीं गये थे।
राहुल गाँधी अब कर्नाटक में प्रचार कर रहे हैं। प्रियंका गाँधी की जनसभाएँ भी कांग्रेस ने वहाँ रखी हैं। प्रियंका गाँधी का कांग्रेस में रोल धीरे-धीरे विस्तार ले रहा है, इसमें कोई दो-राय नहीं है। हो सकता है 2024 के लोकसभा चुनाव में कांग्रेस प्रियंका गाँधी को बड़े रोल के रूप में जनता के सामने करे। फ़िलहाल तो राहुल गाँधी ही पार्टी के प्रधानमंत्री का चेहरा हैं। प्रधानमंत्री मोदी के साथ-साथ गृह मंत्री अमित शाह भी कर्नाटक में भाजपा की चुनावी कमान संभाले हुए हैं। पार्टी अध्यक्ष जे.पी. नड्डा रणनीति के अलावा संगठन की ज़िम्मेदारियाँ तय कर रहे हैं।
भाजपा का उभार
इस साल अब तक उत्तर पूर्व के तीन राज्यों में चुनाव हुए हैं। इनमें त्रिपुरा में भाजपा ने बहुमत हासिल किया था और अन्य दो मेघालय और नागालैंड में उसे क्रमश: तीन और 12 सीटें ही मिलीं थीं। अब कर्नाटक की चुनौती उसके सामने है। जानकारों का मानना है कि कांग्रेस उसे वहाँ कड़ी टक्कर देने की स्थिति में है। भाजपा कर्नाटक में अपनी पूरी ताक़त दक्षिण भारत के इस राज्य में झोंक रही है। कर्नाटक उन छ: बड़े राज्यों में शामिल है, जहाँ 2024 लोकसभा चुनाव से पहले विधानसभा चुनाव होने हैं।
कर्नाटक में लोकसभा के 543 सदस्यों में से 28 (कुल सदस्यों का 5.35 फ़ीसदी) चुने जाते हैं। देखा जाए, तो कर्नाटक देश के सबसे सांसदों वाले राज्यों की सूची में सातवें नंबर पर है। इतिहास पर नज़र दौड़ाएँ, तो ज़ाहिर होता है कि राज्य में कांग्रेस को दबदबे को भाजपा ने अपने गठन के ही सन् 1980 में चुनौती दी और 110 सीटों पर चुनाव लडक़र 18 पर जीत हासिल की। पाँच साल बाद सन् 1985 में भाजपा लड़ी, तो 116 सीटों पर; लेकिन उसे दो ही सीटें नसीब हुईं। इसका कारण था रामकृष्ण हेगड़े के नेतृत्व में जनता पार्टी का 139 सीटें जीतना, जिसने कांग्रेस भी ठिकाने लगा दिया।
सन् 1989 में भी भाजपा को चार ही सीटें मिलीं। हालाँकि राममंदिर आन्दोलन के बाद नब्बे के दशक में भाजपा का प्रभाव बढ़ा। सन् 1994 के चुनाव में उसे 40 और सन् 1999 में 44 सीटें मिलीं। सन् 2004 में वह 79 सीटों पर पहुँच गयी और आख़िर सन् 2007 में पार्टी को बी.एस. येदियुरप्पा के रूप में अपना पहला मुख्यमंत्री भी मिल गया। लेकिन एक हफ़्ते में ही सहयोगी जेडीएस ने हाथ खींच लिये और येदियुरप्पा को इस्तीफ़ा देना पड़ा।
सन् 2008 में विधानसभा के चुनाव हुए और भाजपा को इस बार 110 सीटें हासिल हुईं। पार्टी ने दोबारा येदियुरप्पा को मुख्यमंत्री की ज़िम्मेदारी सौंपी। वह अगस्त, 2011 तक मुख्यमंत्री रहे, क्योंकि उनकी जगह पार्टी ने सदानंद गौड़ा को मुख्यमंत्री बनाया, जो एक साल से पहले ही चलते बने और भाजपा ने इस बार जगदीश शेट्टार सौंपा। लेकिन सन् 2013 के चुनाव में भाजपा की सीटें घटकर 40 पर आ गयीं और कांग्रेस ने सरकार बनायी। येदियुरप्पा भ्रष्टाचार के मामलों में उलझे, जिससे उन्हें और पार्टी को नुक़सान उठाना पड़ा है।
सन् 2014 में नरेंद्र मोदी प्रधानमंत्री बने और इसके बाद सन् 2018 में हुए चुनाव में भाजपा को 104 सीटें मिलीं; लेकिन उसका बहुमत नहीं हुआ। लिहाज़ा कांग्रेस और जेडीएस ने गुपचुप समझौता करके सरकार बना ली। हालाँकि भाजपा ने कांग्रेस के लोगों को फोडक़र सरकार गिरा दी और येदियुरप्पा मुख्यमंत्री बने; लेकिन एक साल पहले पार्टी ने उनकी जगह बसवराज बोम्मई को मुख्यमंत्री बना दिया।
मज़बूत रही है कांग्रेस
हार हो या जीत, कर्नाटक में कांग्रेस एक ऐसी पार्टी है, जिसने कभी भी 26 फ़ीसदी से कम मत हासिल नहीं किये। अब तक के आख़िरी चुनाव में उसे सन् 2018 में 38.09 फ़ीसदी वोट हासिल हुए थे, जो भाजपा के मुक़ाबले दो फ़ीसदी ज़्यादा थे। भले कांग्रेस को भाजपा को सीटें कम मिली थीं। सन् 1983 में पहली बार कर्नाटक में गैर कांग्रेस मुख्यमंत्री बना था। एक ज़माना वह भी था जब कई सीटों पर कांग्रेस के विधायक निर्विरोध ही चुन लिये जाते थे।
जेडीएस के उभार से भी कांग्रेस को नुक़सान पहुँचा है, क्योंकि उनका वोट बैंक कई जगह एक-सा है। पिछले लोकसभा चुनाव में भले भाजपा ने राज्य में 25 सीटें जीत ली थीं; लेकिन आने वाले विधानसभा चुनाव में कांग्रेस मज़बूत दिख रही है। कर्नाटक की राजनीति को गहराई से देखने पर ज़ाहिर होता है कि भाजपा कभी भी विधानसभा चुनाव में कांग्रेस के वोट शेयर को पार नहीं कर पायी।
कांग्रेस इस बार कर्नाटक में ख़ास ज़ोर लगा रही है। उसे उम्मीद है कि भाजपा सरकार के प्रति जनता में ग़ुस्सा है और इसका कारण भ्रष्टाचार है। कांग्रेस के कर्नाटक के कार्यकारी अध्यक्ष बी.एन. चंद्रप्पा ने फोन पर ‘तहलका’ से बात करते हुए कहा- ‘जनता कांग्रेस को सत्ता में ला रही है। कमीशन वाली सरकार जा रही है। हमारे मुद्दे साफ़ हैं और कांग्रेस जनता का लड़ाई लड़ रहा है।’ कांग्रेस इस बार पूरी तरह अपने दम पर चुनाव मैदान में डटी है। कांग्रेस के लिए कर्नाटक एक मज़बूत गढ़ रहा है। हालाँकि हाल के दशकों में कांग्रेस का राज्य में आधार खिसका है। सन् 1952 से सन् 1983 तक राज्य, जिसे पहले मैसूर कहा जाता है, में कांग्रेस लगातार सत्ता में रही। हालाँकि सन् 1983 के चुनाव में कांग्रेस को झटका लगा जब जनता दल ने उसे सत्ता से बाहर कर दिया। लेकिन सन् 1989 के विधानसभा चुनाव में कांग्रेस ने जबरदस्त वापसी की। वह भी रिकॉर्ड सीटों के साथ।
सन् 1989 में कांग्रेस की जीती 178 सीटों का रिकॉर्ड आज तक नहीं टूट पाया है। कांग्रेस ने न सिर्फ़ यह चुनाव जीता, बल्कि पाँच साल बाद सन् 1999 में 132 सीटें जीतकर दोबारा सरकार बनायी। लेकिन उसका जादू सन् 2004 में टूट गया और उठापटक के दौर के बाद सन् 2006 में हुए चुनाव में उसने जेडीएस के साथ सरकार में हिस्सेदारी की, जिसका नेतृत्व उसके हाथ में नहीं था।
कांग्रेस ने सत्ता का सूखा ज़्यादा साल नहीं चलने दिया और सन् 2013 के विधानसभा चुनाव में पूर्ण बहुमत की सरकार बनाकर सत्ता में वापसी की। पिछले चुनाव सन् 2018 में हुआ, जिसमें भाजपा; लेकिन कांग्रेस ने जेडीएस के साथ मिलकर सरकार बनायी, जो कुछ ही समय में टूट गयी और भाजपा ने सत्ता हासिल की। इसमें कोई दो-राय नहीं कि कांग्रेस इस बार चुनाव में काफ़ी मज़बूत दिख रही है। काफ़ी कुछ अगले 23 दिन में होने वाले चुनाव प्रचार पर निर्भर करेगा। इस दौरान पार्टी अध्यक्ष मल्लिकार्जुन खडग़े से लेकर राहुल गाँधी तक कर्नाटक में डेरा जमाएँगे। कांग्रेस की योजना तेज़ तरार अभियान जारी रखने की है, जिसमें उसका सबसे बड़ा मुद्दा राज्य सरकार का भ्रष्टाचार है।
जेडीएस की स्थिति
जेडीएस दो राष्ट्रीय पार्टियों कांग्रेस और भाजपा के वोटों का हमेशा बँटवारा करती रही है। इस बार उसकी स्थिति बहुत बेहतर नहीं दिख रही। पार्टी के एक बड़े नेता ने नाम न छापने की शर्त पर इस संवाददाता से बातचीत में स्वीकार किया कि भाजपा सरकार की नाकामी को भुनाने में कांग्रेस जेसीएड से आगे रही है। उन्होंने कहा- ‘हमारा अपना जनाधार है। लेकिन यदि कांग्रेस 100 से आगे निकल जाती है, तो उसका काफ़ी नुक़सान जेडीएस को होगा। ऐसा नहीं कि हम जीरो हो जाएगा; लेकिन हमारा सीट काफ़ी घट जाएगा।’
जेडीएस की एक क्षेत्रीय दल के नाते कर्नाटक में अच्छी पकड़ रही है। देश के प्रधानमंत्री रहे एचडी देवेगौड़ा ने सन् 1999 में जनता दल सेक्यूलर (जेडीएस) का गठन किया और सन् 2006 में पहली बार उसने अपनी सरकार बनायी। देवेगौड़ा के बेटे एचडी कुमारस्वामी कांग्रेस के साथ मिलकर बनायी इस सरकार के मुख्यमंत्री बने। देखा जाए, तो प्रदेश में यह पहली मिली-जुली सरकार थी।
इसके बाद जेडीएस को सन् 2018 में सत्ता में आने का अवसर मिला और इस बार फिर कांग्रेस के साथ। लेकिन कुछ ही महीनों में कुमारस्वामी ने कांग्रेस के रवैये की निंदा की और बाद में यह सरकार टूट गयी और भाजपा की सरकार बनी। आज की तारीख़ में देखें, तो मुख्य मुक़ाबला कांग्रेस और भाजपा में है; लेकिन चर्चा है कि जेडीएस असदुद्दीन ओवैसी की पार्टी एआईएमआईएम से गठबंधन कर सकता है। ओवैसी 25 सीटों पर उम्मीदवार उतारकर मुस्लिम वोट साधना चाहते हैं। इन दलों के अलावा कर्नाटक में महेश गौड़ा की कर्नाटक प्रगन्या पन्था जनता पार्टी (केपीजेपी) और कन्नड़ अभिनेता उपेंद्र राव की उत्तम प्रजाकीया पार्टी (यूपीपी) भी हैं। महेश गौड़ा ने अभिनेता उपेंद्र राव के साथ अक्टूबर, 2017 में केपीजेपी गठित की थी; लेकिन सन् 2018 में राव ने अलग होकर यूपीपी बना ली।
पिछला चुनाव
सन् 2018 के कर्नाटक विधानसभा चुनाव में 82 दल मैदान में उतरे थे। इस चुनाव में कुल 224 सीटों में से भाजपा 104 सीटें जीतकर सबसे बड़ी पार्टी बनी जबकि कांग्रेस ने भाजपा से ज़्यादा 39 वोट फ़ीसदी वोट शेयर के साथ 80 सीटें जीतीं, जो भाजपा से 24 कम थीं। जेडीएस के हाथ 37 सीटें आयीं, जबकि छ: सीटें अन्य ने जीती थीं। बाद में दलों में टूट फूट हुई, जिससे यह सारे आँकड़े बदल गये। इस बार 2.5 करोड़ महिलाओं के साथ 5.21 करोड़ मतदाता नयी सरकार का चयन करेंगे।
डी.के. बनाम सिद्धारमैया
कर्नाटक में कांग्रेस जहाँ सत्ता में आने की उम्मीद कर रही है, वहीं यह सवाल भी उठ रहा है कि उसके दो बड़े नेताओं प्रदेश अध्यक्ष डी.के. शिवकुमार और पूर्व मुख्यमंत्री सिद्धारमैया में से पार्टी की स्थिति में मुख्यमंत्री कौन बनेगा? कांग्रेस ने मार्च के आख़िर में ही क़िस्तों में उम्मीदवार घोषित करने शुरू कर दिये थे। कांग्रेस के सत्ता में आने के बाद वोक्कालिंगा समुदाय के डी.के. शिवकुमार और कुरुवास (अनुसूचित जाति) समुदाय के सिद्धारमैया मुख्यमंत्री पद के दावेदार हैं। कर्नाटक में वोक्कालिंगा की तरह लिंगायत भी बड़ा समुदाय है, जो स्वर्ण और दलित में विभाजित है।
डी.के. शिवकुमार ने हाल में यह बयान देकर कि यदि पार्टी के सत्ता में आने के बाद पार्टी अध्यक्ष मल्लिकार्जुन खडग़े मुख्यमंत्री पद के दावेदार बनते हैं तो वह उनका समर्थन करेंगे। डी.के. के इस बयान को सिद्धारमैया की राह रोकने की कोशिश बताया जा रहा है क्योंकि ख़ुद डी.के. मुख्यमंत्री पद के उम्मीदवार हैं। वह कह चुके हैं कि उन्हें भरोसा है कि पार्टी उनकी मेहनत और वफ़ादारी को पुरस्कृत ज़रूर करेगी। उधर सिद्धारमैया के समर्थक भी अपने नेता को भावी मुख्यमंत्री के रूप में प्रचारित कर रहे हैं।
यह कांग्रेस की रणनीति भी हो सकती है, क्योंकि वह बिना चेहरे के चुनाव में उतरेगी, यह तय है। कर्नाटक में मुख्यमंत्री वोक्कालिगा या लिंगायत से बनता रहा है और सिद्धारमैया अनुसूचित जाति से बने हैं। डी.के. ने प्रदेश अध्यक्ष बनकर पार्टी को काफ़ी सक्रिय किया है, इसमें कोई दो-राय नहीं। इसके अलावा डी.के. पार्टी के सबसे बड़े फंड प्रबंधकों में माने जाते हैं। देखना दिलचस्प होगा कि ऊँट किस करवट बैठेगा।
भाजपा का चेहरा कौन?
भाजपा के सबसे बड़े नेता बीएस येदियुरप्पा उम्र की बात कहकर चुनाव नहीं लडऩे का ऐलान कर चुके हैं। हालाँकि सभी जानते हैं कि मुख्यमंत्री बनने की उनकी चाहत कभी ख़त्म नहीं हुई। पार्टी के पास मुख्यमंत्री वासवराज बोम्मई का चेहरा है। हालाँकि कांग्रेस की तरह वह भी शायद बिना किसी घोषित चेहरे के चुनाव लड़ेगी। येदियुरप्पा को कर्नाटक में लिंगायत समुदाय का बड़ा नेता माना जाता है। कर्नाटक भाजपा में बगावत भी दिखी, जब पूर्व मुख्यमंत्री और भाजपा नेता जगदीश शेट्टार ने कहा कि पार्टी आलाकमान ने उन्हें चुनाव नहीं लडऩे के लिए कहा है। पार्टी के फ़रमान के बावजूद हुबली के 67 साल के विधायक शेट्टार चुनाव में उतरने के लिए प्रतिबद्ध दिखे। उन्होंने बाक़ायदा शीर्ष नेताओं को अपने फ़ैसले से अवगत भी करवा दिया। शेट्टार के मुताबिक, सर्वे में उनकी पॉपुलैरिटी अच्छी है और वे कोई चुनाव भी नहीं हारे हैं।
भाजपा के उम्मीदवारों की घोषणा करने से पहले ही येदियुरप्पा ने बिना आलाकमान की परवाह किये अपनी सीट अपने बेटे के नाम करने का ऐलान कर दिया था। येदियुरप्पा को भाजपा ने कुछ महीने पहले केंद्रीय बोर्ड में शामिल किया था। हालाँकि कुछ लोग मानते हैं कि वे पार्टी से नाराज़ हैं। उनकी नाराज़गी का कारण उन्हें आनन-फ़ानन हटाकर बोम्मई को मुख्यमंत्री बनाना रहा है। फ़िलहाल येदियुरप्पा ने बेटे विजयेंद्र को वारिस घोषित कर दिया है, जो उनकी सीट शिकारीपुरा से चुनाव लड़ सकते हैं।
क्षेत्रीय और राष्ट्रीय मुद्दे
कर्नाटक में क्षेत्रीय मुद्दे चलेगे या राष्ट्रीय? कांग्रेस स्थानीय मुद्दों पर अभियान चला रही है, जबकि भाजपा राष्ट्रीय मुद्दों पर उतर रही है। प्रधानमंत्री मोदी के हाल के कर्नाटक दौरों में उनके भाषण देखें, तो वह राष्ट्रीय मुद्दों की ही बात कर रहे हैं। इसका कारण भाजपा का यह डर भी है कि उसकी सरकार की कारगुज़ारी उतनी अच्छी नहीं रही है कि वह उसके सहारे वोट ले सके। इसके अलावा भाजपा हिन्दुत्व का एजेंडा छूने से भी नहीं हिचक रही। हाल के महीनों में कर्नाटक में हिजाब का मुद्दा चलाने की काफ़ी कोशिश की गयी है। यह मामला सुप्रीम कोर्ट तक गया। कर्नाटक की राजनीति में क्षेत्र बड़े कारक हैं। चिकमंगलूर में वोक्कालिगा और लिंगायत बहुलता है, जबकि उडुपी इला$के में हिन्दू क्षत्रिय प्रभावी भूमिका में हैं। मैसूर में जहाँ जेडीएस प्रमुख पार्टी रही है, वहीं चिकमंगलूर और उडुपी में भाजपा-कांग्रेस में टक्कर है। कर्नाटक में इस बार मुस्लिम वोटर भी एक बड़ा कारक होगा। भले ओवैसुद्दीन ओवैसी की एआईएमआईएम मैदान में उतरेगी।
जानकारों का मानना है कि इस बार मुस्लिम वोट में बड़ा बँटवारा नहीं होगा और इसका लाभ कांग्रेस को मिल सकता है। कांग्रेस इस चुनाव में भ्रष्टाचार को सबसे बड़ा मुद्दा बनाया हुए है। कांग्रेस का आरोप है कि भाजपा सांप्रदायिक ध्रुवीकरण की कोशिश कर रही है। कांग्रेस भ्रष्टाचार और बोम्मई सरकार की विफलताओं को मुद्दा बना रही है।
प्रधानमंत्री मोदी ने 12 मार्च को राहुल गाँधी के लंदन के भाषण में लोकतांत्रिक संस्थाओं पर हमले और लोकतंत्र बचाने के लिए यूरोपीय देशों और अमेरिका से हस्तक्षेप की अपील का मुद्दा उठाकर साफ़ कर दिया कि भाजपा इस बार विधानसभा चुनाव में भी राष्ट्रीय मुद्दों को ज़्यादा तरजीह देगी। देखा जाए, तो भाजपा का सारा प्रचार मोदी पर निर्भर है।