कर्नाटक का जनादेश अपने साथ जीत और हार के ज़रूरत से ज़्यादा निहितार्थ निकालने और इस पर अति प्रतिक्रिया दिखाने का जोखिम लेकर आया है। कांग्रेस की असली परीक्षा इसी साल राजस्थान, मध्य प्रदेश और छत्तीसगढ़ में होने वाले विधानसभा चुनाव से पहले पार्टी के भीतर के कलह पर अंकुश लगाने और इसके बाद 2024 के आम चुनाव के लिए विपक्षी गठबंधन को मूर्त रूप देने की है। क्योंकि कर्नाटक का मॉडल अन्य राज्यों में वैसा काम नहीं कर सकता है।
भाजपा को जवाबी प्रहार करने के लिए जाना जाता है और वह मनोबल बढ़ाने वाली जीत से मिली कांग्रेस की ऊर्जा को कमज़ोर करने का भरसक प्रयास करेगी। इसलिए कांग्रेस को 13 मई की कर्नाटक जीत के उत्साह को बनाये रखने और ख़ुद को एक विकल्प के रूप में पेश करने के लिए अपने शासन वाले राज्यों में भ्रष्टाचार मुक्त शासन देना ज़रूरी है। वह सिर्फ़ जीत से संतुष्ट होने का जोखिम नहीं उठा सकती। भाजपा को भी यह समझ आ गया होगा कि अकेले प्रधानमंत्री का अभियान एक अलोकप्रिय सरकार की भरपाई नहीं कर सकता, जो आरोपों से घिरी हुई थी। सत्तारूढ़ व्यवस्था के रूप में उसे अपने काम की जवाबदेही स्वीकार करनी चाहिए थी, न कि मतदाताओं के सामने मुद्दों पर बात करने की बजाय सांप्रदायिक रुख़ देना चाहिए था। नतीजों का अर्थ है कि पार्टी राज्यों में अब उतनी अजेय नहीं है, जैसी कि वह राष्ट्रीय स्तर पर दिखायी देती है।
दीवार पर लिखी इबारत को पहचानते हुए भाजपा ने पहले ही प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी के नौ साल के शासन की उपलब्धियों के संदेशों को प्रसारित करने के घोषित उद्देश्य के साथ सभी 545 लोकसभा क्षेत्रों को कवर करते हुए ‘महा जनसंपर्क अभियान’ की योजना बनायी है। महीने भर की यह क़वायद 30 मई से शुरू होगी, जिस दिन मोदी सरकार नौ साल पूरे करेगी और यह 30 जून तक जारी रहेगी। कांग्रेस के लिए व्यापक जीत निश्चित ही मनोबल बढ़ाने वाली है; लेकिन 224 सदस्यीय विधानसभा में 135 सीटों के साथ पूर्ण बहुमत की जीत के बाद भी कांग्रेस भाजपा की हार से काफ़ी कुछ सीख सकती है। चुनाव के दौरान कांग्रेस एकजुट रही, जबकि भाजपा नेता आपस में हिसाब बराबर करते और विभाजनकारी मुद्दे उठाते दिखे। अपने अभियान में कांग्रेस ने देशी डेयरी ब्रांड ‘नंदिनी’ सहित स्थानीय मुद्दों को उठाया। निर्णायक $फैसले के साथ कर्नाटक के मतदाताओं ने राजनीतिक वर्ग को एक महत्त्वपूर्ण सबक़ दिया है कि वे नैरेटिव बदलने की अनुमति नहीं देंगे, बल्कि अपनी आकांक्षाओं को ज़्यादा महत्त्व देंगे।
हालाँकि कर्नाटक विधानसभा चुनाव के नतीजों को प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी के ख़िलाफ़ जनादेश और अगले साल होने वाले लोकसभा चुनाव के लिए एक बड़ी उपलब्धि मान लेना भूल और जल्दबाज़ी होगी। कांग्रेस दावा कर सकती है कि नफ़रत पर मोहब्बत की जीत हुई है और भारत जोड़ो यात्रा ने पार्टी के कार्यकर्ताओं को फिर से सक्रिय और मतदाताओं को उत्साहित कर दिया है। हालाँकि कर्नाटक में कांग्रेस द्वारा लोगों को दी गयी पाँच गारंटी को पूरा करना वहाँ बन रही कांग्रेस सरकार के लिए एक बड़ी चुनौती होगी। यह भी लगता है कि एक ग़ैर-गाँधी को पार्टी प्रमुख के रूप में चुनना भी कांग्रेस के लिए लाभकारी रहा है। उनका ज़िम्मा अब विपक्षी दलों और इसके बड़े नेताओं- नीतीश कुमार, अरविंद केजरीवाल, ममता बनर्जी और के. चंद्रशेखर राव को साथ लाना होगा। साथ ही आम चुनाव तक अपने लम्बे समय के विपक्षी सहयोगियों के साथ निरंतरता भी सुनिश्चित करनी होगी।