जैसे ही पाकिस्तान के सेना प्रमुख जनरल कमर जावेद बाजवा ने करतारपुर साहिब गुरु द्वारा को श्रद्धालुओं के लिए खोलने की अनौपचारिक घोषणा की वैसे ही लोगों में इसका श्रेय लेने की होड़ लग गई। जावेद ने यह घोषणा गुरु नानक देव जी की 550वीं जयंती पर की। इस मुद्दे पर एक बेमतलब विवाद शुरू हो गया। पंजाब की सत्ताधारी पार्टी और विपक्षी दल इस में अपनी राजनीतिक रोटियां सेंकने लगे।
एक दूसरे से ऊपर दिखने की सबसे शर्मनाक घटना तो डेरा बाबा नानक में देश के उपराष्ट्रपति वेंकैया नायडु की उपस्थिति में घटी। विवाद का मुद्दा था नींव पत्थर पर राज्य के पूर्व मुख्यमंत्री प्रकाश सिंह बादल और पूर्व उप मुख्यमंत्री सुखबीर सिंह बादल के नामों का होना। कांग्रेस के एक मंत्री सुखविंदर सिंह रंधावा तो अपना विरोध जताने उस समय डायस पर चढ़ गए जब केंद्रीय मंत्री हरसिमरत कौर बादल भाषण दे रही थीं। उनका कहना था कि वह उनकी पार्टी की छवि बिगाडऩे के लिए राजनैतिक बयान दे रही हैं। उन्होंने कहा कि इस ऐतिहासिक मौके पर 1984 के दंगों के मुद्दे को उठाना पूरी तरह गलत है। मुख्यमंत्री कैप्टन अमरिंदर सिंह ने कहा कि राजनैतिक लाभ के लिए धार्मिक मुद्दों को उठाना अकालियों की पुरानी आदत है।
इस विवाद का केंद्र तो थे पंजाब के मंत्री और पूर्व क्रिकेटर नवजोत सिंह सिद्धू जो गलियारा निर्माण के लिए पाकिस्तान में रखे जाने वाले नींव पत्थर के समारोह में भाग लेने पाकिस्तान गए। इससे पूर्व वे इस साल अगस्त में पाकिस्तान गए थे। चाहे राजनीति हो या क्रिकेट, सिद्धू विवाद खड़े करने के लिए जाने जाते हैं।
अगस्त में जब इमरान खान ने पाकिस्तान के वज़ीरेआज़म का पद ग्रहण किया तो उनके शपथ समारोह में जा कर सिद्धू ने विवाद खड़ा कर दिया। विवाद का असली कारण था सिद्धू का पाकिस्तान के थलसेना प्रमुख जनरल बाजवा को गले लगाना। असल में सिद्धू ने उन्हें तब गले लगाया था जब बाजवा ने उन्हें बता दिया कि उनका देश सिख श्रद्धालुओं के लिए करतारपुर का रास्ता खोलने पर विचार कर रहा है। ध्यान रहे कि गुरु नानक देव जी ने यहां अपने जीवन के 18 साल बिताये थे। विश्व के सिखों की यह रास्ता खोलने की बहुत पुरानी मांग रही है।
पाकिस्तान के साथ जिस प्रकार के रिश्ते रहे हैं उनकी पृष्ठभूमि में सिद्धू का इस तरह बाजवा को गले लगाना भारत में कुछ लोगों को सही नहीं लगा। देश के मीडिया के कुछ ‘चैनलस’ जो भाजपा के नज़दीक हैं ने इस ‘देशद्रोही’ काम की आलोचना की थी। पर सिद्धू को इसका कोई फर्क नहीं पड़ा और उन्होंने यह कहते हुए अपनी बात को सही ठहराया कि कोई भी सच्चा सिख ऐसा ही करता जब उसे अचानक बातया जाता है कि अब उसके लिए करतारपुर के गुरु द्वारे के दर्शन और वहां माथा टेकना आसान होने जा रहा है।
इसमें सबसे ज्य़ादा धक्का शिरोमणि अकाली दल को लगा क्योंकि वे लोग खुद को सिखों के अकेले शुभचिंतक होने का बिल्ला लगाए बैठे थे। कांग्रेस के इस कदम से उन्हें अपनी यह पहचान मिटती दिख रही है। इस गलियारे के खुलने का अर्थ होगा अकालियों का पतन वैसे भी ने 2017 के विधानसभा चुनावों में अमरिंदर सिंह के हाथों मात खा चुके हैं। दूसरी और 2019 के आम चुनाव मात्र आठ महीने दूर है। अकालियों की सहयोगी भाजपा के चुनावी एजेंडे में पाकिस्तान विरोधी भावनाएं भरी हैं। इन हालात में जब पाकिस्तान दोस्ताना व्यवहार कर गलियारे को बना रहा है, अकालियों के लिए उसका विरोध करना बहुत कठिन हो गया है। अगर अकाली अब गलियारे पर सकारात्मक रु ख नहीं अपनाते तो वे देश और विदेश में बसे सिखों से कट जाएंगे। यही कारण है कि मोदी सरकार को भी 26 नवंबर को पाकिस्तान के नींव पत्थर रखने से दो दिन पहले यहां नींव पत्थर रखना पड़ा। श्रेय लेने की लडाई उस समय शुरू हुई जब इमरान खान ने प्रधानमंत्री बनने के बाद गलियारा बनाने की बातों को मूर्त रूप देने का फैसला कर लिया। इस तरह पाकिस्तान ने पहल की और दुनिया को इसका पता नवजोत सिंह सिद्धू के माध्यम से लगा। उनकी भूमिका केवल इतनी ही है। वह व्यक्तिगत तौर पर इमरान खान के शपथ ग्रहण समारोह में भाग लेने गए थे। सभी बातों से यह पता चलता है कि जो भी श्रेय या आलोचना सिद्धू की हो रही है उसका कारण मीडिया में बैठे उनके मित्र और विरोधी हैं। मित्र श्रेय दे रहे हैं और विरोधी आलोचना कर रहे हैं। सिद्धू की सबसे ज्य़ादा तारीफ विदेशों में बैठा पंजाबी मीडिया कर रहा है। आम सिखों का उसे श्रेय देना भी समझ में आता है, क्योंकि वे ऐसा चाहते ही थे।
सिद्धू ने चाहे पूरा श्रेय लेने के बाद ही सही पर खुद कहा है कि वे इस श्रेय का हकदार नहीं हैं। वैसे भी पहली अक्तूबर 2010 को पंजाब विधानसभा ने एकमत से गलियारा बनाने का प्रस्ताव पारित कर दिया था। बहुत सालों से गलियारा के खुलने की बात सिखों की अरदास में आती रही है। सिख नेताओं के दबाव में ही डेरा बाबा नानक में एक दूरबीन स्थापित की गई।
करतारपुर साहिब गलियारे की महत्ता
सिखों के पहले गुरू गुरु नानक देव जी का जन्म और ज्योति जोत समाने के दोनों स्थान अब पाकिस्तान में हैं। इस प्रकार देखा जाए तो पाकिस्तान के बनने का सबसे ज्य़ादा नुकसान सिखों को हुआ है। करतारपुर साहिब की स्थापना गुरु नानक देव जी ने की थी। ‘करतारपुर’ का अर्थ है ‘करतार यनी भगवान’ का स्थान। यही वह स्थान है जहां गुरू नानक देव ज्योति जोत समा गए। पाकिस्तान के पंजाब के नारोवाल जि़ले में बना यह गुरूद्वारा गुरू नानक देव के वहां आवास को दर्शाता है। 1947 में विभाजन के बाद बहुत से सिख और हिंदू जो वहां रहते थे, भारत आ गए और बहुत से मुस्लिम करतारपुर में जा बसे।
करतारपुर के बारे में बताया गया है कि करोड़ीमल जो दुनीचंद के नाम से भी जाना जाता है। ने 100 एकड़ ज़मीन गुरू जी को दी जिस पर करतारपुर बसाया गया है। यह भी कहा जाता है कि इसी स्थान से गुरू के लंगर की शुरूआत हुई। लंगर की शुरूआत के पीछे भावना सभी लोगों को एक साथ खाना खिलाने की थी। इसे जाति-पाति के विरु द्ध एक अभियान भी कहा जा सकता है। असल में उस समय पूरा समाज मज़हब और समुदाय के नाम पर बंटा हुआ था। लंगर में बनने वाले भोजन के लिए स्वयंसेवक खुद अनाज उगाते, खुद बनाते और खुद खिलाते। गुरू नानक देव के ज्योतिजोत समाने के बाद उनके हिंदू और मुस्लिम अनुयाइयों में उनके संस्कार को लेकर विवाद हो गया। बाद में उन्होंने उनके शरीर पर फूल रख दिए। फैसला यह हुआ कि जिसके भी फूल मुरझा जाएंगे वह उनके शरीर पर से अपना दावा वापिस ले लेगा। सुबह जब कपड़ा हटाया गया तो गुरू जी का शरीर वहां नहीं था और सभी फूल ताजे थे। दोनों समुदायों ने उस चादर और फूलों को आपस मे बांट लिया। मुसलमानों ने उस चादर को दफन किया और हिंदुओं ने उसका संस्कार किया। आज भी करतारपुर में गुरू जी की कब्र और उनकी समाधी साथ-साथ बनीं हैं।
गुरू नानक देव जी के वंशज जो बेदी समुदाय से हैं, ने एक और शहर डेरा बाबा नानक के नाम पर बसाया। गुरू नानक देव यहां अपनी ‘उदासी’ के समय यहां आए थे। आज यह गुरूद्वारा गुरू नानक देव जी के यहां आने के प्रतीक के रूप में खड़ा है। इन दोनों गुरूद्वारों के बीच रावी नदी बहती है। इन दोनों पवित्र स्थानों ने 1965 और 1971 के युद्धों को भी भोगा था।
1999 में अटल बिहारी वाजपाई की यात्रा के बाद करतारपुर साहिब का यह गुरूद्वारा आम लोगों के लिए खोल दिया गया था। सिखों की लंबे समय से मांग थी कि श्रद्धालुओं की सुविधा के लिए करतारपुर गलियारा बनाया जाए। अब उनका सपना सच होता लगता है। भारत सरकार ने इस गलियारे को बनाने की घोषणा कर दी है। दूसरी ओर पाकिस्तान का उत्तर भी साकारात्मक है। असल में यह सही दिशा में उठाया गया एक कदम है। यह लड़ाई के उल्ट सहयोग की बात है, शत्रुता के विरूद्ध दोस्ती की पहल है। इस घोषणा का सभी सही सोच के लोगों ने स्वागत किया है। यह शांति की दिशा में एक बड़ा कदम माना जा रहा है।
प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी ने इस गलियारे को दोनों देशों के बीच एक सेतु की संज्ञा दी है। उन्होंने उम्मीद जताई है कि यह गलियार दोनों देशों के लोगों के लिए बेहतर भविष्य को लाएगा। ‘आदमी से आदमी’ संपर्क की बात करते हुए मोदी ने कहा कि क्या कभी किसी ने सोचा था कि बर्लिन की दीवार गिरेगी।
अमेरिका में स्थित यूनाइटेड सिख मिशन के संस्थापक रशपाल सिंह ढींडसा ने बताया कि उनके एनजीओ ने इस मुद्दे पर 2004 में कई प्रस्ताव भेजे। खास तौर जब वे श्रद्धालुओं के जत्थे लेकर अमेरिका से पाकिस्तान आए। उन्होंने बताया कि इस दौरान उन्होंने एक प्रस्ताव भी तैयार किया था जिसमें करतारपुर गलियारे को ‘करतारपुर साहीं मार्ग’ का नाम दिया गया था। इतना ही नहीं बल्कि उनके एक सदस्य सुरिंदर सिंह ने इसका पूरा ‘सर्वे’ किया और सभी बातें लेकर 172 लाख अमेरिकी डालर का बजट भी तैयार कर उसे छपवा दिया था। हमने एक सामुदायिक मांग तत्कालीन प्रधानमंत्री डाक्टर मनमोहन सिंह और यूपीए की प्रमुख सोनिया गांधी को की थी। इसके अलावा वे राहुल गांधी और कैप्टन अमरिंदर सिंह से भी मिले थे।
इनके अलावा अकाली नेता कुलदीप सिंह बडाला ने भी इस दिशा में काफी प्रयास किए। कैप्टन अमरिंदर सिंह ने बताया कि यह मुद्दा डाक्टर मनमोहन सिंह ने श्री गुरू ग्रंथ साहिब 400वीं जयंती पर पाकिस्तानी नेता परवेश मुशर्रफ और परवेज इलाही के साथ भी उठाया था।
अकाली-भाजपा नेताओं की कांगे्रस और खास कर सिद्ध को पीछे रखने की कोशिश करना समझ में आता है। वे यह सब राजनैतिक कारणों से कर रहे हैं। उधर अमरिंदर का कहना है कि सिद्धू का सोचने का अपना तरीका है। हालांकि सिद्ध ने कहा कि उनकी पाकिस्तान की यात्रा उन्होंने व्यक्तिगत तौर पर इमरान खान को मित्र होने के कारण की है। बाकी गलियारे को लेकर उन पर धार्मिक प्रभाव तो है ही। पार्टी के भीतर के लोग मानते हैं कि जबसे सिद्धूू पार्टी में आएं हैं वे अपना व्यक्तिगत एजेंडा ही चला रहा है। बहुत मुद्दों पर सिद्ध ने मुख्यमंत्री और बाकी साथियों का साथ नहीं दिया है। पंजाब के एक वरिष्ठ मंत्री ने अपना नाम न बताने की शर्त पर कहा कि ये मतभेद इस गलियारे के मुद्दे पर भी खुल कर सामने आए। जब उन्होंने मुख्यमंत्री की अनदेखी का खुद को आगे बढ़ाया।
आम सिखों के लिए इस बात का कोई महत्व नहीं कि इस का श्रेय किसे दिया जाए। वे इसे अपने विश्वास की नज़र से देखते है।