इंसानों को जीने के लिए जल-भोजन के अलावा पर्यावरण की बहुत ज़रूरत है। क्योंकि पृथ्वी पर मनुष्य और अन्य प्राणी तभी तक जीवित हैं, जब तक वे साँस ले पा रहे हैं। सभी जानते हैं कि मनुष्य सहित सभी जीवों के जीने के लिए साँस लेना सबसे ज़्यादा ज़रूरी है, जिसके लिए ऑक्सीजन की ज़रूरत होती है।
यह ऑक्सीजन पेड़ों और वनस्पतियों से मिलती है। लेकिन पिछले पाँच दशक के दौरान अपने स्वार्थ के लिए मनुष्य ने पेड़ों को जमकर काटा है, जबकि पेड़ काटने की तुलना में पौधरोपण काफी कम किया है। यही कारण है कि पेड़ों और वनस्पतियों की अनेक प्रजातियाँ काफी कम हो चुकी हैं, जिनमें कई तो खत्म होने की कगार पर हैं। सवाल यह है कि हर साल पर्यावरण दिवस के नाम पर करोड़ों रुपये खर्च करने वाली संस्थाएँ, सरकारें क्या वाकई इस दिशा में गम्भीर हैं? हमारे देश में हर साल पौधरोपड़ के नाम पर करोड़ों रुपये खर्च करने वाले अधिकतर नेता और अखबारों की सुॢखयाँ बनने के शौकीन लोग एक पौधा लगाकर फोटोशूट कराने से नहीं चूकते; लेकिन जब अगले दिन से उस पौधे की ओर पलटकर भी नहीं देखते।
सवाल यह है कि तेज़ी से काटे जा रहे जंगल और इंसानों की बढ़ती आबादी से हमारा जीवन खतरे में पड़ता जा रहा है। क्योंकि जंगलों को काटने से वातावरण दूषित होने के साथ-साथ वन्य जीवों का भी जीवन खतरे में पड़ रहा है।
अक्टूबर, 2019 में मुम्बई की आरे कॉलोनी में 200 हरे पेड़ों को अवैघ रूप से काट दिया गया। यही नहीं वहाँ 2600 से अधिक पेड़ों को काटे जाने की योजना बनायी गयी। यह काम लकड़ी माफिया और राजनीतिक-प्रशासनिक गठजोड़ से आगे बढ़ा, जिसके चलते पेड़ काटने का विरोध कर रहे लोगों की भी नहीं चली। आिखरकार इस मामल में कुछ लोग हाई कोर्ट गये, लोकिन वहाँ माफिया की जीत हुई। इस पर गुस्सा ए लोगों ने सड़क पर उतरकर नारेबाज़ी भी की। मगर तब की भाजपा-शिवसेना की महाराष्ट्र सरकार ने इस ओर कोई ध्यान नहीं दिया। यहाँ तक कि प्रकृति प्रेमी प्रदर्शनकारियों में कुछ लोगों की मौत भी हो गयी। नतीजा यह निकाल कि आरे के आसपास पर्यावरणीय क्षेत्र को तबाह कर दिया गया और लकड़ी माफिया जीत गये। इस मामले में आदित्य ठाकरे ने आवाज़ उठायी थी, पर कोई फायदा नहीं निकला।
दुर्लभ पेड़ और वनस्पतियाँ
पर्यावरण के दृष्टि से हमारा देश एक सम्पन्न देश है। यहाँ दुनिया में पाये जाने वाले फलों के पेड़ों में से लगभग 80 फीसदी फलों के पेड़ यहीं मिलते हैं। इसी तरह मसालों और जड़ी-बूटियों से भरपूर पेड़-पौधे भी हमारे देश में काफी संख्या में मिलते हैं। हर पेड़ की अपनी अलग खासियत और अपना अलग उपयोग है। इनमें बहुत से पेड़ और वनस्पतियाँ खत्म होने के कगार पर बढ़ रहे हैं, जिन्हें बचाना हम सबकी ज़िम्मेदारी है। हमारे देश में निम्नलिखित पेड़ और वनस्पतियाँ कम हो रही हैं :-
वट वृक्ष
हज़ारों साल तक रहने वाला वट वृक्ष हिन्दू धर्म में काफी महत्त्व रखता है। इसे बरगद भी कहा जाता है। यह अधिकतर धार्मिक स्थलों, जंगलों में मिलता है। लेकिन पिछले कुछ वर्षों से इनकी संख्या लगातार कम हो रही है। यह एक ऐसा पेड़ है, जिसे लोग जल्दी नहीं लगाते। अगर यह पेड़ खुद ही कहीं उग आये, तो अलग बात; पर इसे रोपने की ज़हमत लोग नहीं उठाना चाहते। हालाँकि बरगद के पेड़ों को अगर काटा न जाए, तो इनकी संख्या घटने का सवाल नहीं। लेकिन लोगों ने पिछले तीन-चार दशक में हज़ारों वट वृक्ष काट दिये हैं।
इसके बावजूद हमारे यहाँ लाखों वट वृक्ष बचे हुए हैं। हज़ारों साल पुराने वट वृक्षों में प्रयाग का अक्षयवट, गया का गयावट, उज्जैन का सिद्धवट, मथुरा-वृंदावन का वंशीवट, पंचवटी (नासिक) का पंचवट प्रमुख माने जाते हैं।
हिंदुस्तान में दुनिया का सबसे चौड़ा वट वृक्ष भी है, जिसका नाम है- द ग्रेट बनियान ट्री। यह लगभग 14,500 वर्ग मीटर में फैला हुआ है। इस बरगद की 3,372 से अधिक जटाएँ हैं, जो ज़मीन तक उतरकर जड़ का रूप ले चुकी हैं। इस अकेले पेड़ पर 87 प्रजातियों के हज़ारों पक्षी और सैकड़ों अन्य जीव निवास करते हैं।
फिलहाल 24 मीटर ऊँचा यह विशालकाय वृक्ष करीब 18.92 वर्ग मीटर क्षेत्र में फैला हुआ है और इसकी परिधि करीब 486 मीटर है। वहीं ज़मीन तक पहुँचने वाली इसकी जड़ें 3800 के करीब हैं। सन् 1884 और 1987 में चक्रवाती तूफान आने से इस पेड़ को काफी नुकसान पहुँचा था। इसके अलावा सन् 1925 में इसका काफी हिस्सा बीमारी लगने के कारण काटना पड़ा था, अन्यथा यह पेड़ और भी विशालकाय होता।
पीपल
पीपल का हिन्दू धर्म में सबसे ज़्यादा महत्त्व है। पीपल की पूजा करने और इस पर दैवीय शक्तियों का वास होने की मान्यता के चलते इस पेड़ को काटने से भी लोग बचते हैं; बावजूद इसके पिछले कुछ वर्षों में पीपल के पेड़ों का खूब कटान हुआ है। हालाँकि पीपल के पेड़ की लकड़ी अमूमन कोई भी घरों में इस्तेमाल नहीं करता। इस पेड़ की सबसे बड़ी खासियत है कि यह लगातार ऑक्सीजन छोड़ता है। इतने पर भी लोग इसे लगाने से कतराते हैं। यह एक ऐसा पेड़ है, जो कहीं भी उग आता है। लेकिन लोग घरों में इसे लगाने से डरते हैं।
पीपल के पेड़ चिडिय़ों द्वारा इसका फल खाकर विष्टा करने से भी उग आते हैं। अधिकतर पीपल के पेड़ धाॢमक स्थलों पर होते हैं। भारत में पीपल के पेड़ों के अनुकूल जलवायु होने के चलते इनकी संख्या बहुतायत में है। लेकिन शहरों के बढ़ते मकडज़ाल ने इस स्वास्थ्यवर्धक पेड़ को काफी हानि पहुँचायी है।
24 घंटे ऑक्सीजन छोडऩे वाले इस पेड़ की पत्तियाँ, फल और छाल औषधीय गुणों से सम्पन्न हैं। इस पेड़ की खासियत यह है कि यह जहाँ होता है, वहाँ शीतलता रहती है। इसके अलावा यह दूसरे पेड़ों की शाखाओं पर भी उगने की क्षमता रखता है। कई बार घरों की दीवारों पर भी यह आसानी से उग आता है।
गूलर
गूलर एक औषधीय पेड़ है, जिसका फल बहुत ही काम का है। लेकिन इसका फल अमूमन लोग नहीं खाते, क्योंकि उसमें पकते-पकते उडऩे वाले कीड़े पड़ जाते हैं। इस दुर्लभ पेड़ का तना, छाल और जड़ का औषधीय महत्व काफी है। गूलर की लकड़ी मजबूत नहीं होती, लेकिन हल्के-फुल्के कामों में इस्तेमाल हो जाती है। इसका दुर्लभ फूल किसी को देखने को नहीं मिलता। कहा जाता है कि इसका फूल रात्रि में बहुत कम समय के लिए खिलता है और उसे देखने वाले को अथाह सम्पत्ति की प्राप्ति होती है। बस यही वजह है कि इसका धार्मिक महत्त्व भी है। इस वृक्ष पर शुक्र का आधिपत्य माना गया है और वृषभ व तुला राशि का यह प्रतिनिधि पेड़ है। अफसोस कि अब इसके पेड़ों की संख्या तेज़ी से घटती जा रही है और इसके पौधे कोई लगाता ही नहीं है। शायद इसकी वजह इसकी कम उपयोगी लकड़ी हो।
शीशम
मज़बूत लकड़ी वाला शीशम का पेड़ औषधीय गुणों से भी भरपूर होता है। इसकी लकड़ी घरों के दरवाजे, खिड़कियाँ और अन्य फर्नीचर बनाने के लिए बेहतरीन रहती है। भारतीय उप महाद्वीप का यह पेड़ प्रोटीनयुक्त पत्तियों और फलियों वाला होता है। इस पेड़ को तैयार होने में लम्बा समय लगता है। लेकिन इसकी लकड़ी उतनी ही मज़बूत, भारी और महँगी होती है। यही वजह है कि माफिया इसका अवैध कटान जमकर करते हैं। आयुर्वेद में इसकी छाल, पत्तियों और जड़ का विशेष महत्व बताया गया है। यही नहीं इसकी पत्तियों को पशु बड़े चाव से खाते हैं। जहाँ भी यह पेड़ होता है, वहाँ ज़मीन और अधिक उपजाऊ हो जाती है। पिछले तीन दशकों से शीशम की संख्या लगातार घटती जा रही है।
चन्दन
एक समय में हिन्दुस्तान में चन्दन के जंगल के जंगल थे। इसकी लकड़ी इतनी महँगी है कि इसके हजारों तस्कर पैदा हो गये। तेज़ी से अवैध रूप से हुई इसकी लकड़ी की तस्करी से आज इसके पेड़ों की संख्या काफी कम हो चुकी है। भारत का चन्दन पूरी दुनिया में निर्यात होता है। हालाँकि चन्दन की खेती भी भारत में होती है, लेकिन जंगलों से इसके पेड़ों को तेज़ी से काटा जा रहा है, जिस पर कोई सख्त कार्रवाई नहीं होती। चन्दन में सबसे महँगा लाल चन्दन होता है, जो काफी दुर्लभ भी है। इसकी लकड़ी हमेशा महकती रहती है और शीतलता प्रदान करती है। सरकारों को इसे बचाने पर ध्यान देना चाहिए।
अन्य पेड़
इसके अलावा कैम, जो कि श्लेचेरा सोपबेरी प्रजाति का है, धीरे-धीरे कम हो रहा है। पलाश भी अब कोई नहीं लगाता। पुराने पलाश के पेड़ उम्र या अवैध कटान के चलते आधे से अधिक खत्म हो चुके हैं और नये कोई लगाता नहीं। इससे वृक्षों की यह प्रजाति भी नष्ट होने की ओर अग्रसर है। पलाश एक औषधीय गुण वाला पौधा है। इसके फूल के हरे भाग की सब्ज़ी बनाकर खाने से जोड़ों के दर्द में आराम मिलता है। पलास को टेसू, किंशुक, छूल, ढाक, परसा और केसू भी कहते हैं। अमलतास भी अब भारत में धीरे-धीरे कम होता जा रहा है। अमलतास की फली औषधीय गुणों से सम्पन्न होती है।
विलुप्त होते औषधीय पौधे
भारत में औषधीय पौधों की हमेशा से भरमार रही है। यही कारण है कि यहाँ आयुर्वेद दवाओं का निर्माण बड़े पैमाने पर किया जाता है। लेकिन पिछले कुछ दशकों से औषधीय पौधे तेज़ी से घट रहे हैं। इन पौधों में सोनाख, चिरौंजी, गूगल (गुग्गल), चिरौंजी, अरनी (दशमूल द्रव), शतावरी, आँवला, दिव्यसार, वरुण, सैंजना, लिसोड़ा (गूँदी), गाँगड़ी, केंत, कदम्ब, इक्षवाकु (कछी तुमड़ी), सफेद मूसली, तेंदू आदि प्रमुख हैं। यह सब विलुप्त हो गये हैं या विलुप्त होने के कगार पर हैं। पिछले कुछ समय से जंगल से जलाऊ लकड़ी, इमारती लकड़ी का व्यापारियों द्वारा अवैध कटान किया जा रहा है।