हमारे बड़े लोग जब देश की सेवा नहीं कर पाते या जब उन्हें देश की सेवा नहीं करने दी जाती तो वे कथा लिखकर अपनी व्यथा बताना चाहते हैं. पहले चलन था, लोग नेकी करके उसे कुएं में डाल देते थे. कुएं में न सही, कहावत में तो डालते ही थे. अब चलन बदल गया है. लोग, खासकर बड़े लोग नेकी करते हैं और उसे कभी बाद में लिखी जाने वाली आत्मकथा में डालने के लिए सुरक्षित रखते हैं. जब उनका जीवन एकदम सार्वजनिक होता है, उन पर सौ कैमरे, सौ अखबार, पत्रकार निगाह रखते हैं तब तो उनकी इन नेकियों का किसी को पता नहीं चल पाता है. जब वे रिटायर हो जाते हैं, देश सेवा का वह पद उनसे दूर हो जाता है या छुड़ा लिया जाता है तब उन्हें अपनी नेकियों को बताने के लिए आत्मकथा लिखनी पड़ती है. ये आत्मकथाएं कमाल की होती हैं. नेकी तक तो ठीक, जो नेकियां वे करना तो चाहते थे पर बंबई की फिल्मों में चर्चित जालिम जमाने ने जिन्हें करने नहीं दिया था, अब उन्हें भी वे आत्मकथा में डालते हैं. हमको या आपको गुजरात जाना हो तब दो-चार बार सोचना पड़ता है. तत्काल तक में आजकल टिकट मिलना कठिन हो जाता है. एक सरकारी और एक गैर-सरकारी हवाई कंपनियों में हड़ताल की होड़ लगी है क्योंकि उनके मालिक घटिया प्रबंध की होड़ में एक-दूसरे को पीछे छोड़ रहे हैं, लेकिन यह सब दिक्कत तो हमारी और आपकी है. कमाल तो तब होता है जब ऐसे लोग गुजरात नहीं जा पाए जिनके लिए घर के आंगन में हेलिकॉप्टर खड़ा हो या हवाई अड्डे से वायु-सेना का विशेष विमान उन्हें पलक झपकते ही गुजरात पहुंचा सकता हो.
देश को 10 साल बाद पता चला है कि वे तो गुजरात जाने के लिए तड़प रहे थे, पर जा नहीं पाए. जिस कुर्सी पर वे बैठे थे, शायद वह कुर्सी कुल मिलाकर गुजरात जाने वाले जहाज की कुर्सी से थोड़ी ज्यादा अच्छी, थोड़ी सुविधाजनक और आरामदायक रही होगी. तभी तो ऐसी नेकी वे चाहकर भी नहीं कर पाए. यह भी संभव है कि वह कुर्सी उन्हें गुजरात से भी ज्यादा दूर किसी और बड़ी यात्रा पर ले जा सकती थी. एक गुंजाइश यह भी थी कि उस कुर्सी से थोड़ी देर के लिए उतर जाने के बाद फिर से उसी कुर्सी पर बैठ जाने का एक और मौका मिल जाता. वह मौका नहीं मिला तो चलो आत्मकथा. यह कथा बहुत लंबी है. हमारे बड़े लोग जब देश की सेवा नहीं कर पाते या जब उन्हें देश की सेवा नहीं करने दी जाती तो वे कथा लिखकर अपनी व्यथा बताना चाहते हैं.
भाषाएं अलग-अलग हो सकती हैं पर इन आत्मकथाओं की भावनाएं बिल्कुल एक सी होती हैं. नाम और काम बदल जाते हैं पर संदर्भ कभी बदलता नहीं. अक्सर ऐसी आत्मकथाएं अंग्रेजी में लिखी जाती हैं. अंग्रेजी की बड़ी दुकानों पर बिकती हैं. हवाई अड्डों पर मिलती हैं और अंग्रेजी के अखबारों में ही इनको लेकर वैसे तूफान उठते हैं जिन्हें चाय की प्याली से जोड़कर देखा जाता है.
थोड़ी भी बिकने लायक कोई गुंजाइश हो तो ऐसी आत्मकथाओं का हिंदी अनुवाद भी बाजार में आ जाता है. लेकिन न तो मूल अंग्रेजी में कोई सुगंध रहती है, न ही हिंदी अनुवाद में. ऐसी आत्मकथाएं ज्यादातर भूतपूर्व हो चुके अभूतपूर्व लोग ही लिखते हैं, इसलिए इसी तुकबंदी में यह भी जोड़ा जा सकता है कि इनके लेखक भी भूत ही होते हैं – अंग्रेजी में जिन्हें ‘घोस्ट राइटर’ कहते हैं.
आत्मकथाएं पहले भी लिखी जाती रही हैं पर तब अक्सर अपने जीवन के चढ़ाव से पहले मिले फुर्सत के कुछ क्षणों में ये लिख ली जाती थीं. इसका सबसे अच्छा उदाहरण है- राजेंद्र प्रसाद जी की आत्मकथा. इस पूरी मोटी पुस्तक में आखिरी की पंक्ति तक में पाठकों को यह पता नहीं चलेगा कि वे देश के पहले राष्ट्रपति थे. आत्मकथा के अंतिम पन्नों में वे बता रहे हैं कि अंतरिम सरकार में उनके पास कृषि मंत्रालय था. अंतिम पन्नों में राजेंद्र बाबू यह बता रहे हैं कि देश में उस समय अकाल जैसी परिस्थितियां थीं और उन्होंने किस तरह भागदौड़ करके अभावग्रस्त इलाकों में अनाज पहुंचवाया था. यह बात अलग है कि जिस प्रकाशक ने बाद में यह आत्मकथा छापी उसने इसके मुखपृष्ठ पर राष्ट्रपति भवन का फोटो भी चिपका दिया था.
उस दौर की बहुत-सी आत्मकथाएं जेल में भी लिखी गई थीं. तब हमारे नेता किन्हीं और कारणों से जेल में रखे जाते. आज जैसे कारणों से नहीं. तब वे लोग जेल से छूटकर जल्दी बाहर आने की कोशिश भी नहीं करते थे. इसलिए उनको वहां खूब लिखने का मौका मिलता था. जेल में आज के नेताओं का बहुत -सा वक्त अपने वकीलों, गवाहों और अपने अवैध व्यापारों को बचाने में खप जाता है. इसलिए उनसे जेल में आत्मकथा लिखने की उम्मीद भी नहीं की जा सकती है. तो यदि आप बड़े आदमी हैं और मानी गई उस दुनिया से बाहर फेंक दिए गए हैं तो अपनी आत्मकथा जरूर लिख डालें.
पर इत्ता ध्यान रहे कि वह केवल आपकी न हो, उसमें दूसरों की कुछ चिंता हो. हमारा भी कुछ बखान हो. ऊंचे माने गए जीवन में जिस क्षण जो ठीक फैसले लिए जाने चाहिए थे यदि उस क्षण आप उनको नहीं ले पाए तो फिर घड़ी छिन जाने के बाद उनको जग के सामने रखना जग हंसाई से ज्यादा कुछ नहीं होगा.