पिछली गर्मियों में सुल्ली डील ऐप आया और अब बुल्लीबाई ऐप। मुस्लिम महिलाओं को निशाना बनाने के लिए। मुस्लिम महिलाओं की फोटो लगाकर उनकी आभासी नीलामी के लिए! धर्म को जोड़कर नफ़रत की राजनीति को इस अकल्पनीय और निम्न स्तर तक देखना सच में बहुत घिनौना है। पहले अल्पसंख्यक समुदाय की महिलाओं के प्रति साम्प्रदायिक भड़काऊ बयान या ताने, कार्य या शैक्षणिक संस्थानों में पक्षपात तक सीमित थे। लेकिन अन्य के लिए घृणा का इस स्तर तक पहुँचना अकल्पनीय है।
एक भारतीय मुस्लिम महिला के रूप में मैंने साम्प्रदायिक रूप से भड़काने वाली कई टिप्पणियाँ सुनी हैं। हाल के वर्षों में इनमें तेज़ी आयी है। नहीं, कोई कुछ ज़्यादा नहीं कर सकता। नतीजे के डर से बहुत खुले तौर पर प्रतिक्रिया भी नहीं करते। इसके अलावा कोई हेल्पलाइन नंबर नहीं है, जहाँ कोई पहुँच सके। यह भी सुनिश्चित नहीं है कि संकट-कॉल से राहत मिलेगी या नहीं। उन्होंने कहा कि वे सरकारी ख़ेमे में आ जाएँगे, जो बदले में बाबुओं और मंत्रियों के दबाव में होंगे। ध्यान रहे राजनीतिक, प्रशासनिक और पुलिस मशीनरी चलाने वाले कई लोग दक्षिणपंथी पृष्ठभूमि वालों के साथ हैं। वास्तव में अगर व्यवस्था निष्पक्ष होती, तो सरकारी बंदोबस्त का पर्याप्त डर होता; लेकिन ऐसा है नहीं।
ज़मीनी हक़ीक़त को चिन्ताजनक कहा जा सकता है। लिंच करने वाले क्रूर लोगों और अभद्र भाषा का इस्तेमाल करने वालों पर तथाकथित हिन्दुत्व के शीर्ष स्तर का हाथ रहा है और उन्हें उनसे सुरक्षा मिलती रही है। यही कारण है कि वे बिना किसी बाधा के बच जाने का इंतज़ाम कर लेते हैं। कई मामलों में तो पस्त-बिखरे पीडि़तों को ही अपराधी के रूप में नामित कर दिया जाता है।
अजीब या कुछ उतना अजीब कारण नहीं, से मैंने लम्बी और छोटी ट्रेन यात्रा के दौरान सबसे ख़राब साम्प्रदायिक टिप्पणियाँ सुनी हैं। टिप्पणियाँ- ‘वो मुसलमान जैसा दिख रहा है, उनसे दूर रहो’ से लेकर ‘ये मुसलमान लोग कुछ भी कर सकते हैं… मरना, काटना, बम बनाना !’
मेट्रो से गुडग़ाँव से नई दिल्ली आते समय मेरा मोबाइल बज उठा। दूसरी और से मेरे एक दोस्त की ऊँची और स्पष्ट आवाज़ थी- ‘अस्सलाम-अलैक्कुम’। और जबसे मैं इन शब्दों में निहित अर्थ से अच्छी तरह वाक़िफ़ हूँ, ‘आप शान्ति में रहें’। मैं इसमें ‘वालेकुम-सलाम’ (आप भी शान्ति में रहें) के साथ प्रत्युत्तर करती हूँ। आख़िरकार, क्या हम सब शान्ति के लिए तरसते नहीं हैं? लेकिन उस शाम जैसे ही मैंने ‘वालेकुम-सलाम’ कहा; डिब्बे वालों ने मेरी तरफ़ देखा। और तब तक बहुत धूर्तता से घूरते रहे, जब तक, शायद उन्हें यह आभास नहीं हो गया कि मैं बिना आस्तीन के ब्लाउज के साथ साड़ी में हूँ। इसलिए मैं सुरक्षित श्रेणी में रखी जा सकती हूँ। नहीं, मैं एक आतंकवादी के रूप में चिह्नित नहीं हुई। अगर मैं बुर्के में होती, तो उन नज़रों की सीमा की कल्पना भी नहीं कर पाती।
उसी शाम मैंने एक लड़के को मेट्रो स्टेशन के प्लेटफॉर्म पर खड़े दाढ़ी वाले शेरवानी पहने आदमी की ओर इशारा कर अपने पिता से सवाल करते हुए सुना- ‘पापा! क्या आतंकवादी लोग ऐसे ही दिखते हैं?’ पिता ने अपने बेटे को ‘नहीं’ नहीं कहा, उलटे उस व्यक्ति की तरफ़ से नफ़रत और ग़ुस्से से देखा। मानो सोच रहा हो कि एक मुसलमान की हिम्मत कैसे हुई कि वह उसी मंच पर खड़ा है, जहाँ वह और उसका बेटा खड़ा हो।
मैं उन दर्दनाक ट्रेन यात्राओं में से एक के विवरण को भुला नहीं सकती, जो मैंने की थीं। जैसे ही मुझे शाहजहाँपुर में अपने नाना के आकस्मिक निधन की ख़बर मिली, मैंने दिन में चलने वाली ट्रेनों में से एक में सवार होने का फ़ैसला किया; जो मुझे बरेली होते हुए नई दिल्ली से शाहजहाँपुर ले जाती। चारों ओर की शोर-शराबे से अचानक विचलित होकर, मैंने अपने कम्पार्टमेंट-वालों की ओर देखा। कई साड़ी पहने महिलाएँ अपने माथे पर लाल बिंदी लगाये आपस में बातें करने में व्यस्त थीं, जब पाँच बुर्क़ा पहने महिलाओं के एक समूह ने कम्पार्टमेंट के भीतर प्रवेश किया। इनमें से तीन कम्पार्टमेंट के फर्श और दो लकड़ी के बर्थ पर बैठीं। साड़ी पहने महिलाएँ अचानक उत्तेजित दिखीं। वे मुझे अपने क़रीब खींचने लगीं, साथ ही बुर्क़ा पहने दो महिलाओं से दूर हट गयीं। साथ ही मुझे कहा- ‘बहनजी! एक मुसलमान औरत से अलग रहो, अलग बैठो, …मुसलमानों से दुर्गन्ध आती है। ये लोग मुसलमान हैं।‘ (बहन, इन मुस्लिम महिलाओं से दूर बैठो…मुसलमानों की गन्ध आती है। वे मुसलमान हैं।)’
हालाँकि बुर्क़ा पहने महिलाओं ने ट्रेन के डिब्बे के भीतर एक-एक शब्द सुना; लेकिन कोई प्रतिक्रिया नहीं दी। मैं निराश होकर इधर-उधर देखती रही। मुझे पता है, मुझे साड़ी पहने समूह को बताना चाहिए था कि मैं भी एक मुसलमान हूँ। मुझे बुर्क़ा पहने मुस्लिम महिलाओं की ओर से बहस करनी चाहिए थी।
मुझे कहना चाहिए था कि मुसलमान दुर्गन्ध नहीं करते! या फिर साड़ी पहने मैं उनके साम्प्रदायिक रवैये पर कड़ा व्याख्यान दे सकती थी और इसके साथ ही कुछ आक्रामक मुद्रा भी अपना सकती थी।
लेकिन मैंने एक भी शब्द नहीं बोला। मैं चुप रही। एक मूर्ख कायर की तरह वहाँ बैठ गयी। मैं चुप क्यों रही, और बात नहीं की या क्यों पलटवार नहीं किया? क्या मैं डर गयी थी? हाँ, मैं डर गयी थी। आख़िर हिन्दुत्ववादी द्वारा चलती ट्रेनों में मुस्लिम यात्रियों पर हमला करने और उनकी पिटाई करने की ख़बरें तो पढ़ी ही थीं। ऐसी तमाम ख़बरें हैं। इसलिए मैं बहुत दबी-सी और शान्त बैठी रही। विशेष रूप से शून्य में घूरती रही। लेकिन अपनी बेबसी पर आत्मनिरीक्षण करती रही। शाहजहाँपुर की शेष एक घंटे की यात्रा में मैं तनाव से भरी बैठी रही। बुर्क़ा पहने महिलाओं पर किये गये तानों पर प्रतिक्रिया न करने के लिए मैं ख़ुद से नाराज़ और परेशान थी। उस पूरे अनुभव ने मुझे बेहद परेशान कर दिया। वास्तव में ऐसा होना मुझे आज भी परेशान करता है। इस क्षण में जब मैं उस घटना को याद करती हूँ। अन्य घटनाएँ और अनुभव सहज ही आँखों के सामने तैर जाते हैं। चोट और दर्द के निशान आज भी उद्वेलित करते हैं।
वर्षों पहले 60 के दशक के मध्य में मुझे लखनऊ के लोरेटो कॉन्वेंट में भर्ती कराया गया था। यह स्कूल में मेरा पहला दिन था और आज तक इसका विवरण अपरिवर्तित है; क्योंकि पहले ही दिन एक विशेष कक्षा की सहपाठी, 10 वर्षीय त्रिपाठी ने कक्षा में मेरे बगल की कुर्सी पर बैठने से इन्कार कर दिया था। यह चुटकी लेते हुए- ‘मैं तुम्हें जानती हूँ, मुसलमान… मेरी दादी कहती हैं कि सभी मुसलमान दुर्गन्ध करते हैं!’
हालाँकि मेरी सबसे अच्छी याद उसी कक्षा के शिक्षक की है, जिन्होंने उस लड़की को मेरे बग़ल में रखी कुर्सी पर बैठने के लिए मजबूर किया था। विडम्बना यह है कि बहुत बाद के चरण में हमारे माता-पिता पड़ोसी रहे, जो उसी सरकारी कॉलोनी में रहते थे। हालाँकि दोनों परिवारों ने कुछ हद तक एक-दूसरे से दोस्ती की। लेकिन मैंने उससे और उसके पूरे परिवार- उसके भाई-बहनों और उसके चिकित्सक माता-पिता से दूर रहना मुनासिब समझा। क्योंकि उस पहली चोट को मिटाया नहीं जा सका। धार्मिक तनाव से भरी उस पहली साम्प्रदायिक टिप्पणी को मिटाना लगभग असम्भव है। मैंने एक के बाद एक साम्प्रदायिक हमले अनुभव किये हैं। यहाँ तक कि उन लोगों से भी, जो मेरी मुस्लिम पहचान से अच्छी तरह वाक़िफ़ थे। इन कई हमलों में से मैं एक विशेष घटना को विस्तार से बताना चाहती हूँ- ‘साल 2000 की जनवरी में इंडियन एयरलाइंस के एक विमान को अपहृत करके कंधार ले जाया गया था और उड़ानों के दौरान अतिरिक्त सुरक्षा प्रदान करने की बात चल रही थी। मुझे तब एक राष्ट्रीय दैनिक के लिए साक्षात्कार करना था। तत्कालीन सचिव नागरिक उड्डयन (भारत सरकार)। वह नई दिल्ली के शाहजहाँ रोड पर मेरे पड़ोसी थे। लेकिन उस साक्षात्कार के लिए उन्होंने मुझे अपने ऑफिस आने को कहा। जैसे-जैसे साक्षात्कार आगे बढ़ा, मैंने उनसे उन सुरक्षा उपायों का विवरण पूछा जिन्हें उनके मंत्रालय ने अपहरण रोकने के लिए शुरू करने की योजना बनायी थी। उन्होंने रुटीन उपायों के बारे में बताया- ‘हवाई अड्डों पर सुरक्षा कड़ी कर दी गयी, अस्थायी पास जारी करना बन्द कर दिया गया है।‘
उन्होंने इससे जुड़े कुछ अन्य सवालों के जवाब दिये, लेकिन जब मैंने उनसे सुरक्षा उपायों के सटीक कार्यान्वयन के बारे में विस्तार से पूछा, तो वह शुरू में चुप रहे; लेकिन फिर लगभग ची$खते हुए बोले- ‘मैं आपको वो सटीक विवरण क्यों बताऊँ! आप कुरैशी, तो आप…शायद आप…!’
शायद क्या? ‘आप कुरैशी! आप उस दुश्मन देश में उन लोगों को बता सकते हैं… सीमा पार हमारे दुश्मन को! आप …आप एक मुस्लिम हैं।’
क्या! मैंने किसी तरह उस अपमान को सहन किया, उनकी साम्प्रदायिक टिप्पणियों पर प्रतिक्रिया किये बिना। लेकिन फिर वापस गाड़ी चलाते हुए, मेरा ग़ुस्सा फूट पड़ा। क्या बकवास है? उसकी इतने घिनौने, असभ्य और साम्प्रदायिक तरीक़े से बात करने की हिम्मत कैसे हुई? उसने मुझे उस तीसरे दर्जे के तरीक़े से अपमानित करने की हिम्मत कैसे की?
नहीं, ऐसी कोई जगह नहीं थी, जहाँ मैं उसके ख़िलाफ़ शिकायत दर्ज करा सकती थी। जब हत्यारे अछूते चले गये, तो उन बाबुओं के लिए इतनी कम सज़ा की उम्मीद तो थी, जो साम्प्रदायिक टिप्पणियों से गहरी मार करके चोट पहुँचाते और घायल करते हैं। मैंने शीर्ष नौकरशाहों से कठोरतम साम्प्रदायिक टिप्पणियाँ सुनी हैं। एक सिविल अधिकारी ने मुझसे मेरे तलाक़ से सम्बन्धित कई अजीबोग़रीब सवाल पूछे, एक सवाल का जवाब देने के लिए उकसाया- क्या वह मेरे तलाक़ पर किसी तरह का शोध कर रहा था? दर्द होता है जब आपसे सबसे अजीब चीज़े पूछी जाती हैं- ‘मुसलमान कैसे खाते हैं? या स्नान करते हैं? या कैसे रहते हैं? या दाढ़ी बनाते हैं? या प्यार करते हैं? या असफल विवाहों के अनुबन्ध रद्द करने के लिए क्या करते हैं?’ और आज जब हिन्दुत्व ब्रिगेड और साम्प्रदायिक तत्त्व दो समुदायों के लोगों को एक-दूसरे के क़रीब नहीं रहने दे रहे हैं। हमें मिथकों और ग़लत धारणाओं और दूसरे के बारे में तीसरे वर्ग के दुष्प्रचार से भरा जाएगा। शायद यह सत्तारूढ़ दल के अनुकूल है। यह उन्हें कई विभाजन पैदा करने में मदद करता है।
मुस्लिम समुदाय के लिए तथ्य जगज़ााहिर हैं। सच्चर समिति, गोपाल सिंह समिति, कुंडू समिति की रिपोट्र्स में सब है। इन रिपोट्र्स में मुस्लिम समुदाय की निराशाजनक स्थितियों का विवरण है। देश में मुस्लिम महिलाओं की स्थिति पर भी विस्तृत रिपोर्ट हैं। सबसे बड़ा तथ्य यह है कि मुस्लिम महिलाएँ तीन मोर्चों पर वंचित हैं- महिलाओं के रूप में; अल्पसंख्यक समुदाय के सदस्यों के रूप में; और सबसे अधिक ग़रीब महिलाओं के रूप में।
वास्तव में 10 साल पहले जब प्रोफेसर जोया हसन और रितु मेनन की किताब ‘अनईकुअल सिटिजन्स : ए स्टडी ऑफ मुस्लिम वीमेन इन इंडिया’ लॉन्च हुई, तो इसने मुस्लिम महिलाओं की स्थिति पर तत्काल ध्यान आकर्षित किया। उनके निष्कर्ष 12 राज्यों और 40 ज़िलों में फैले 10,000 घरों के सर्वेक्षण पर आधारित थे। जैसा कि प्रो. जोया हसन की टिप्पणी थी- ‘सर्वेक्षण से पता चलता है कि मुस्लिम महिलाओं की स्थिति निराशाजनक है। मुस्लिम महिला की छवि एक परदे वाली महिला के रूप में स्थापित हो चुकी है, जिसकी सारी समस्याएँ उसके धर्म से जुड़ी हैं; लेकिन यह वास्तविकता नहीं है। हमने उसकी सामाजिक-आर्थिक स्थिति, उसकी शिक्षा, रोज़गार के अवसरों, कल्याणकारी योजनाओं और राजनीतिक जागरूकता का अध्ययन किया है। साथ ही उनका भी अध्ययन किया है, जो लिंग सम्बन्धी मुद्दे हैं। जो विवाह, घरेलू हिंसा, निर्णय लेने के अधिकार और गतिशीलता के आसपास घूमते हैं। हमने उनकी स्थितियों की हिन्दू महिलाओं के साथ तुलनात्मक अध्ययन भी किया है। सबसे ख़ास बात यह है कि मुसलमानों और महिलाओं की स्थिति देश के एक क्षेत्र से दूसरे क्षेत्र में भिन्न होती है। दक्षिण भारत में मुसलमान बिहार और उत्तर प्रदेश में अपने समकक्षों की तुलना में थोड़ा बेहतर हैं।’
उन्होंने यह भी विस्तार से बताया कि मुस्लिम महिलाओं ने सात दशक के विकास में कुछ ठोस लाभ कमाये हैं। वे राजनीति की दुनिया में, व्यवसायों, नौकरशाही, विश्वविद्यालयों और सार्वजनिक और निजी क्षेत्रों में उनकी अनुपस्थिति सी ज़ाहिर होती हैं। वे शायद ही कभी सशक्तिकरण, ग़रीबी, शिक्षा या स्वास्थ्य पर बहस में शामिल होती हैं। न ही उनसे भेदभाव बड़ी चिन्ता या बहस का विषय बन पाता है। मुस्लिम महिलाओं को हर रूप, चाहे अल्पसंख्यक समुदाय के सदस्यों, महिलाओं या ग़रीब महिलाओं के रूप में वंचित किया जाता है। वे धार्मिक अल्पसंख्यकों के सशक्तिकरण के कार्यक्रमों में काफ़ी हद तक ग़ायब दिखती हैं। उदाहरण के लिए मुस्लिम महिलाओं के लिए शिक्षा, रोज़गार, कौशल विकास और बुनियादी सुविधाओं तक पहुँच में पर्याप्त प्रगति नहीं हुई है।’
बेशक, मुझे यह अहसास है कि ख़राब सामाजिक-आर्थिक स्थिति केवल मुस्लिम महिलाओं में ही नहीं है, बल्कि यह उनके द्वारा झेले जाने वाले वृहद् सामाजिक नुक़सान के समग्र सन्दर्भ में उनकी हाशिये की स्थिति को दर्शाती है।
एक और गम्भीर तथ्य सामने आता है कि एक ओर बड़ी संख्या में मुस्लिम महिलाओं ने मतदान किया और चुनाव प्रक्रिया में भाग भी लिया। लेकिन दूसरी ओर बहुत कम संख्या में ही वे किसी पद के लिए चुनी गयी हैं। मुस्लिम महिलाओं के लिए निर्वाचित होना कठिन है। उनकी भागीदारी में उनके लिंग और साथ ही उनकी अल्पसंख्यक धार्मिक स्थिति दोनों ने बाधा डाली और हिन्दुत्व द्वारा बनाये गये सभी प्रचारों के विपरीत, तीन तलाक़ का मुद्दा समुदाय द्वारा ही दरकिनार कर दिया गया; क्योंकि यह इस्लामिक नहीं है। तथ्य यह है कि आज एक मुस्लिम महिला और उसके परिवार की भलाई प्रभावित हो रही है और हिंदुत्व ब्रिगेड और नफ़रत की राजनीति ख़तरनाक गति से फैल रही है।
(उपरोक्त लेखिका के अपने विचार हैं।)