भारतीय पुरुष कबड्डी टीम पहली बार बिना स्वर्ण पदक के घर लौटी है। 1990 से लेकर 2014 तक भारत ने पुरुष कबड्डी में सात स्वर्ण पदक जीते हैं। ईरान के हाथों भारत की सेमीफाइनल में हार से आम दर्शक सदमें में हैं। आखिर भारतीय कबड्डी को हुआ क्या है? क्या यह टीम में एक ‘अंहकार’ के कारण हुआ या फिर टीम के चयन में कुछ कमी रह गई।
भारत की कबड्डी टीम बहुत मज़बूत मानी जाती है। पर इस बार टीम की रक्षा पंक्ति काफी कमज़ोर साबित हुई। इनमें सुरजीत सिंह और सुरेंद्र नड्डा का न होना काफी भारी पड़ गया। ये दोनों खिलाड़ी ऐसे हंै जिन्होंने प्रो कबड्डी लीग और 2016 विश्व कप में शानदार प्रदर्शन किया था। इनके स्थान पर लिए गए राजू लाल चौधरी निरंतर अच्छा प्रदर्शन नहीं कर पाए। बीच-बीच में वह अच्छा खेले पर एक बड़े अंतरराष्ट्रीय मुकाबले में तो खिलाड़ी को हमेशा ही अच्छा खेलना पड़ता है। असल में यह टूर्नामेंट किसी प्रकार के प्रयोग के लिए नहीं था। यहां भारत को अपनी सर्वश्रेष्ठ टीम लेकर ही आना चाहिए था।
दाएं छोर को सुरक्षित करने वाला मोहित छिल्लर शुरू से ही कमज़ोर साबित हो रहा था। बांग्लादेश जैसी टीम के खिलाफ भी वह प्रभावित नहीं कर पाया। यह पहला मैच था। टीम के साथ गए पदाधिकारियों को यह संकेत समझ लेना चाहिए था। पता नहीं वे लोग क्या अंदाजा लगाए बैठे थे। वैसे तो 2016 के विश्व कप में जब कोरिया ने भारत को 34-32 से हरा दिया था तो यह स्पष्ट हो गया था कि अब भारत का मुकाबला करने के लिए ईरान और कोरिया तैयार हैं। यदि लोगों को याद हो तो उस टूर्नामेंट के फाइनल में भी ईरान ने आधे समय तक बढ़त ले रखी थी। उस समय अजय ठाकुर ने शानदार ‘रेड्स’ डाल कर बहुत मुश्किल से टीम को जिताया था। भारत के लिए वह एक ‘वेकअप काल’ थी। पर भारत नहीं जागा।
अजय ठाकुर की चोट
भारतीय टीम का पूरा दारोमदार अजय ठाकुर पर था। एक बार चोट के कारण जब उन्हें बाहर जाना पड़ा तो पूरी टीम जैसे बिखर सी गई। इसके साथ ही यदि कोरिया के खिलाफ मैच की बात करें तो भी यह संकेत साफ थे कि भारत केवल अपने पुराने नाम के भरोसे नहीं जीत सकता। पूल मैच में कोरिया से हार में भी हमारी रक्षा पंक्ति का लचर खेल दिखा था। एक टीम जो पिछले 28 साल से नहीं हारी थी उसके लिए यह हैरानी भरा था कि उनके पास किसी खिलाड़ी का स्थान लेने वाला कोई दूसरा खिलाड़ी नहीं था।
एक कमी जो टीम में देखने को मिली वह थी अनुभव की। टीम में प्रदीप नरवाल, मोनू गोयट और राहुल चौधरी जैसे प्रतिभाशाली खिलाड़ी थे, पर उनमें अनुभव की कमी साफ नजऱ आई। यह भी साबित हुआ कि प्रो कबड्डी लीग में खेलना और एक बड़े अंतरराष्ट्रीय टूर्नामेंट में खेलने में ज़मीन आसमान का अंतर है। इन खिलाडिय़ों को अभी उस स्तर पर खेलना सीखना होगा। यदि आप दुबई में आयोजित कबड्डी मास्टर्स पर नजऱ डालें तो पाएंगे कि इन खिलाडिय़ों ने वहां उतना अच्छा प्रदर्शन नहीं किया जितना प्रो कबड्डी लीग में किया था। असल में भारत को एक संतुलित टीम चाहिए थी। ऐसी टीम जिसमें युवा और अनुभवी दोनों ही तरह के खिलाड़ी होते। टीम में पूर्व कप्तान अनूप कुमार और मनजीत छिल्लर की कमी महसूस की जा रही थी।
प्रो कबड्डी प्रीमियर लीग ने इस खेल को दुनिया भर में लोकप्रिय बना दिया। लोकप्रियता के साथ इसे पूरी गंभीरता से भी लिया जाना ज़रूरी था। इसी वजह से कोरिया और ईरान जैसी नई मज़बूत टीमें तैयार हो गई। भारत, पाकिस्तान और बंाग्लादेश जैसी टीमें जहां कबड्डी पारंपरिक रूप से खेली जाती है, अब पिछड़ते दिख रहे हैं। नए देशों के खिलाडी जब प्रो कबड्डी जैसी प्रतियोगिताओं में भारत या पाकिस्तान के खिलाडिय़ों के खिलाफ खेलते हैं तो उनकी सारी तदवीरें सीख लेते हैं। फिर वे भारत के खिलाफ अपनी रणनीति तैयार कर लेते हैं।
विश्व कप के बाद आयोजित कबड्डी मास्टर्स में कोरिया और ईरान ने अपनी दोयम दर्जे की टीमें उतारी थी। इन पर जीत में भारत को कोई कठिनाई नहीं हुई। इस वजह से भारत यह अनुमान नही लगा पाया कि इन दोनों देशों ने पिछले दो सालों में अपना स्तर कितना बढ़ा दिया है।
भारत को अब गंभीरता के साथ सोचने की ज़रूरत है। यह ठीक है कि इस टीम के आत्मविश्वास को एक झटका सा लगा है, लेकिन अभी सभी कुछ खत्म नहीं हुआ। इस हालत में उन्हें सही टीम तैयार करनी होगी। एक सही ‘कंबीनेशन’ के साथ। उन्हें यह भी मानना होगा कि अब कोई भी मुकाबला आसान नहीं है। भविष्य में बाकी देश और मज़बूत हो कर उभरेंगे। भारत को अपनी पुरानी निर्धारित पद्धति में नए हालात के अनुसार बदलाव भी करना पड़ेगा। नई रणनीति इज़ाद करनी होगी।