चौदहवीं लोकसभा में पहुंचने का उनका सपना एक बार टूटकर भी पूरा हो गया. हालांकि उनकी जीत तय मानी जा रही थी, मगर यह इतनी नाटकीय होगी, इसकी कतई उम्मीद नहीं थी. यह उस बात की स्वीकृति भी है कि सपा का विजय मार्च अभी जारी है. प्रदेश के इतिहास में यह दुर्लभ मौका सिर्फ तीसरी बार आया है. उनसे पहले कांग्रेस के पीडी टंडन 1952 के उपचुनाव में इलाहाबाद पश्चिम से और टिहरी रियासत के राजा मानवेंद्र शाह 1962 में टिहरी गढ़वाल लोकसभा सीट से निर्विरोध चुने गए थे. सपा गर्व और संतोष के आलम में मस्त है.
राजनीति में कोई स्थायी दुश्मन नहीं होता. डिंपल के चुनाव ने इस बात को साबित किया. 2009 के फिरोजाबाद लोकसभा उपचुनाव में कांग्रेस ने डिंपल के खिलाफ राज बब्बर को मैदान में उतारा था और उन्हें मात भी दी थी. राज बब्बर 85 हजार वोटों से जीते थे. इसीलिए इस बार जब कन्नौज से अखिलेश की सीट पर डिंपल को उतारने की तैयारी हुई तो सपा ने जीत के लिए जरूरी सारे समीकरण पहले ही बिठा लिए थे. इसके तहत 2012 विधानसभा चुनाव में कन्नौज की छिबरामऊ विधानसभा सीट से कांग्रेस के प्रत्याशी रहे छोटे सिंह यादव और तिर्वा विधानसभा सीट से कांग्रेस के उम्मीदवार रहे दिगंबर सिंह यादव की सपा में वापसी कराई गई. फिर कन्नौज के विकास के लिए अनेक कदम उठाए गए और लोगों तक यह संदेश पहुंचाया गया कि सरकार पूरी तरह से उनके साथ खड़ी है.
इस व्यवस्था के बाद जब डिंपल ने नामांकन से पूर्व कन्नौज में जनसभा की तो उसमें संयत मगर तीखे शब्दों में मायावती के शासन की कलई खोलने से गुरेज नहीं किया. तब तक यही माना जा रहा था कि डिंपल को थोड़ी-बहुत चुनौती अगर मिलेगी तो वह बीएसपी की ओर से ही मिलेगी. लेकिन नामांकन की तारीख बीतते ही यह साफ हो गया कि डिंपल को कहीं से भी चुनौती नहीं मिलने जा रही और फिर संयुक्त समाजवादी दल के दशरथ शंखवार तथा निर्दलीय संजीव कटियार के भी नाम वापस ले लेने के बाद डिंपल का निर्वाचन निर्विरोध हो गया.
इस निर्विरोध निर्वाचन ने कुछ चर्चाओं को भी हवा दी है. कांग्रेस द्वारा उम्मीदवार न खड़ा किया जाना तो समझ में आता है. एक तो कन्नौज में कांग्रेस का संगठन लगभग खत्म हो चुका है. वहां शीला दीक्षित के जमाने के बचे-खुचे लोग ही कांग्रेसी झंडा लहरा रहे हैं. दूसरे, जिस तरह सपा की बैसाखी के सहारे केंद्र की सरकार खड़ी है वैसे में कांग्रेस के लिए यह संभव नहीं था कि वह फिरोजाबाद जैसे तेवर कन्नौज में दिखाए. कांग्रेस के सामने एक सच्चाई यह भी थी कि तीन महीने पहले हुए विधानसभा चुनावों में कन्नौज की पांचों सीटों पर उसकी दुर्गति हुई थी. सबसे बड़ा आश्चर्य रहा बसपा का मैदान छोड़ जाना. इसे कन्नौज लोकसभा चुनाव में करीब 2,18,000 वोट मिले थे और वह दूसरे स्थान पर रही थी.
2012 के विधानसभा चुनाव में हालांकि कन्नौज की पांचों विधानसभा सीटों पर सपा का ही कब्जा हुआ था, मगर बसपा के कुल वोट लोकसभा चुनाव की तुलना में बढ़कर 2,68,090 हो गए थे. यानी बसपा की चुनौती कन्नौज में कायम थी. इसलिए अब बसपा कार्यकर्ताओं में तरह-तरह की कानाफूसियां हो रही हैं. कहा जा रहा है कि उम्मीदवार खड़ा न करने के पीछे भ्रष्टाचार के मामलों में लोकायुक्त जांच में फंसे मायावती सरकार के दो पूर्व मंत्रियों नसीमुद्दीन सिद्दीकी और रामवीर उपाध्याय की सरकार के साथ कोई ‘डील’ हुई है. इसी कारण बसपा ने कन्नौज में उम्मीदवार नहीं उतारा. बसपा द्वारा चुनाव न लड़ने के लिए दी जा रही दलील भी हास्यास्पद है. बसपा के प्रेस नोट में कहा गया- ‘प्रदेश में सपा की सरकार बनते ही अराजकता का माहौल व्याप्त हो गया है. सपा ने परिवारवाद की परंपरा को जारी रखते हुए कन्नौज में अखिलेश यादव की पत्नी डिंपल यादव को चुनाव मैदान में उतारा है. सपा की इस नीति का पर्दाफाश करने व यूपी सरकार को छह माह का समय देने की मुलायम सिंह यादव की गुहार के मद्देनजर बसपा ने कन्नौज में उम्मीदवार न उतारने का फैसला किया है.’ यह बसपा का दिवालियापन है या अपने दागदार दामन को छिपाने की कोशिश! लोकतंत्र में विपक्षी की असलियत उजागर करने के लिए चुनाव के अलावा कौन-सा तरीका है?
भाजपा का मामला और छीछालेदर वाला है. यह पार्टी जिस तरह से राष्ट्रीय स्तर पर गुटबाजी और किरकिरी के लिए बदनाम है उसी तरह का असमंजस उसने कन्नौज में भी दिखाया. ब्राह्मण बहुल इस क्षेत्र में भाजपा तीसरे स्थान पर रहती आई है. पार्टी ने लखनऊ में बाकायदा घोषणा की थी कि निकाय चुनाव को महत्व देते हुए वह कन्नौज का उपचुनाव नहीं लड़ेगी. जबकि 2009 के लोकसभा चुनाव में भाजपा को यहां डेढ़ लाख वोट मिले थे. खैर, एक दिन बाद नामांकन का समय खत्म होने से महज एक घंटे पहले कई दलों में पाला बदल चुके जगदेव सिंह यादव को अचानक ही पार्टी ने टिकट दे दिया. जगदेव नामांकन करने जब तक पहुंचते तब तक समय सीमा खत्म हो चुकी थी. अब पार्टी के प्रदेश अध्यक्ष लक्ष्मीकांत बाजपेयी ने नामांकन न हो पाने का ठीकरा समाजवादी पार्टी के सिर पर फोड़ते हुए आरोप लगाया कि सपा कार्यकर्ताओं ने उन्हें नामांकन नहीं करने दिया. सच्चाई यह है कि भाजपा को चुनाव लड़ने के लिए कोई योग्य प्रत्याशी मिल ही नहीं रहा था.
डिंपल की निर्विरोध जीत सपा के लिए नई खुशियां लेकर आई है, मगर उम्मीद यही की जानी चाहिए कि यह निर्विरोध जीत अपवाद ही बनी रहे, परंपरा न बने. लोकतंत्र में जनता की सबसे बड़ी ताकत अपने वोट की होती है. इस तरह का आयोजन एक तरह से जनता के हाथों से ताकत छीनने जैसा है. खुद मुलायम सिंह और अखिलेश यादव को भी अहसास होगा कि इस जीत में जनता की इच्छा अनुपस्थित है. खुद राजनेता भी तो अन्ना जैसों को चुनौती देते रहते हैं चुनाव लड़ने की, तो फिर खुद चुनाव से क्यों भागना?