राजनीतिक तनाव से देश में गृह युद्ध का भी बढ़ रहा ख़तरा
दुनिया भर की निगाह इस बात पर टिकी है कि पाकिस्तान में पूर्व प्रधानमंत्री इमरान ख़ान और वहाँ की ताक़तवर सेना में चल रही जंग में किसकी जीत होती है? हाल के दशकों में पाकिस्तान में यह नयी तरह की राजनीतिक जंग है, जिसमें सेना के सामने मुश्किल चुनौती वाली स्थिति है। यह पहली बार दिखा है कि सेना की सत्ता पर पकड़ उतनी मज़बूत नहीं रही। नहीं तो यही होता रहा था कि सेना (एस्टेब्लिशमेंट) मौक़ा मिलते ही सत्ता पर क़ाबिज़ हो जाती थी। इमरान ख़ान ने निश्चित ही यह ठान लिया लगता है कि वह सेना की सत्ता के सामने हथियार नहीं डालेंगे। बहुत-से लोगों को यह भी लगता है कि वर्तमान स्थितियाँ पाकिस्तान को गृह युद्ध की तरफ़ धकेल सकती हैं। पाकिस्तान में इसी महीने सेना के ताक़तवर जनरल क़मर जावेद बाजवा रिटायर हो रहे हैं, लिहाज़ा पाकिस्तान एक देश के रूप में कठिन दौर में है।
पाकिस्तान में हाल में पूर्व प्रधानमंत्री इमरान ख़ान पर हमले के बाद वहाँ की सियासत काफ़ी गरमा गयी है। इमरान ख़ान हमले के बाद भी झुकने को तैयार नहीं और अपनी पार्टी तहरीक-ए-इंसाफ़ (पीटीआई) का मार्च जारी रखे हुए हैं। पाकिस्तान की राजनीति समझने से ज़ाहिर होता है कि इमरान ख़ान पर हमला आम हमला नहीं था और यह या तो उनकी जान लेने की कोशिश थी या उन्हें चेतावनी देने की कोशिश कि वह सेना-आईएसआई के ख़िलाफ़ अपनी ज़ुबान बन्द रखें।
इस सारी स्थिति में सत्तारूढ़ शाहबाज़ शरीफ़ की पार्टी पीएमएल (एन) और भुट्टो की पार्टी पाकिस्तान पीपल्स पार्टी (पीपीपी) अजब दुविधा में फँस गये हैं। कारण यह है कि सेना के दबदबे से यह दोनों पार्टियाँ भी छुटकारा पाना चाहती हैं; लेकिन उनके सामने फ़िलहाल सेना से बड़ी चुनौती इमरान ख़ान बन गये हैं। इमरान के मार्च को जनता से मिल रहे समर्थन से शरीफ़ और भुट्टो दोनों हिले हुए हैं। पाकिस्तान की राजनीति के नब्ज़ समझने वाले जानकारों का कहना है कि यदि आज चुनाव हो जाएँ, तो इमरान ख़ान बाज़ी मार सकते हैं। यही कारण है कि इमरान ख़ान लगातार देश में चुनाव करवाने की माँग कर रहे हैं।
सेना और सत्तारूढ़ दल की हाल की पीटीआई को तोडऩे की कोशिशें सफल नहीं हुई हैं और समर्थक नेता इमरान ख़ान से जुड़े हुए हैं। इमरान ख़ान की जनता के बीच चल रही रैलियाँ जिस तरह की भीड़ जुटा रही हैं, उनसे ज़ाहिर हो जाता है कि पूर्व प्रधानमंत्री को अगला चुनाव जीतने का पक्का भरोसा है। इमरान ख़ान के साथ लोगों के दिखने की एक बड़ी बजह यह भी है कि पीएमएल(एन)-पीपीपी-अन्य दलों की मिली जुली सरकार कई मोर्चों पर नाकाम साबित हुई है और जनता की अपेक्षाएँ वैसी-की-वैसी ही हैं। इमरान ख़ान इससे उत्साहित हैं।
आज की तारीख़ में पीएमएल(एन)-पीपीपी की प्राथमिकता इमरान ख़ान से निपटने की बन गयी है। लिहाज़ा उन्हें सेना का साथ पड़ रहा है। वहाँ इसी महीने के आख़िर में सेनाध्यक्ष जनरल क़मर जावेद बाजवा रिटायर हो रहे हैं और सत्तारूढ़ दल अपना समर्थक सेनाध्यक्ष बनाना चाहता है, ताकि इमरान ख़ान को कमज़ोर किया जा सके। सेना के बीच भी एक बड़ा वर्ग इमरान ख़ान से ख़फ़ा है, क्योंकि सेना अपनी सत्ता को चुनौती को बर्दाश्त नहीं कर पा रही। हालाँकि ऐसा नहीं है कि सेना के बीच सभी इमरान ख़ान के विरोधी ही हैं। सेना का एक वर्ग ऐसा भी है, जो इमरान ख़ान का समर्थन करता है।
इसके अलावा पाकिस्तान की ताक़तवर एजेंसी आईएसआई में भी पदों पर बैठे लोग इमरान ख़ान से ख़फ़ा हैं। इमरान ख़ान ने तो नाम लेकर आरोप लगाया था कि हाल में उन पर जो जानलेवा हमला हुआ था, उसके पीछे आईएसआई और सरकार के दो बड़े लोग शामिल थे। इन सभी ने इसका खण्डन किया था; लेकिन यह तो पाकिस्तान में आम चर्चा है कि सेना इमरान ख़ान को बर्दाश्त नहीं कर पा रही। जनता में सेना का जो रुतबा कभी था, वह अब कम हो चुका है।
इमरान ख़ान चतुर राजनीतिक साबित हुए हैं। वह सेना के राजनीतिक में दख़ल का विरोध करने के लिए भारत का सहारा लेते हैं। उन्हें पता है कि भारत की सेना बहुत अनुशासित है और यह बात पाकिस्तान में बड़ी संख्या में लोगों को पसन्द है। इमरान ख़ान भारत के प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी की तारीफ़ करते हैं और कहते हैं कि भारत का दुनिया में डंका इसलिए बजता है कि वह ठोक-बजाकर अपनी बात कहता है। जबकि पाकिस्तान की छवि तो भीख माँगने वाले देश की बन गयी है, जो अमेरिका के सामने गिड़गिड़ाता फिरता है।
ऐसा कहकर इमरान ख़ान पाकिस्तान की जनता के स्वाभिमान को जगाना चाहते हैं। साथ ही वह जनता को यह सन्देश देना चाहते हैं कि सेना नहीं, चुनी हुई सरकार ही उनका कल्याण कर सकती है और देश को आगे बढ़ा सकती है। पाकिस्तान में हाल के वर्षों में सेना के प्रति जनता का वह भरोसा नहीं रह गया है, जो कभी होता था। कारण यह है कि युवा रोज़गार चाहते हैं और देश-विदेश में अपनी प्रतिभा का डंका बजाना चाहते हैं।
वह भारत के युवाओं से अपनी तुलना करते हैं और महसूस करते हैं कि सेना और सरकारों की भूख ने देश के युवाओं को बहुत पीछे धकेल दिया है, जबकि भारत के युवा दुनिया भर में नाम कमा रहे हैं। वह महसूस करते हैं कि पाकिस्तान में सेना और राजनीति के लोग भारत-पाकिस्तान के बीच दुश्मनी दिखाकर उनकी भावनाओं से खेलते रहे हैं और हक़ीक़त में उन्हें इससे कुछ हासिल नहीं हुआ है, न ही देश का इससे कुछ भला हुआ है।
पाकिस्तान की जनता और युवाओं में जो स्थिति आज बन रही है, वह मोहभंग होने जैसी है। उन्हें रास्ता नहीं दिख रहा; लेकिन वह महसूस कर रहे हैं कि जब तक देश की राजनीति का ढर्रा नहीं बदलता, देश के हालत में बदलाव नहीं आ सकता। सत्ता में बैठे लोगों ने देश के लोगों में भारत के पार्टी नफरत के बीज इतने गहरे बो दिये हैं कि उन्हें इससे बाहर निकलने में वक़्त लगेगा। लेकिन यह भी सच है कि पाकिस्तानी युवा कुछ अलग दिशा में सोचने लगे हैं। यही कारण है कि पाकिस्तान में जनता के बीच सेना का जो समर्थन एक दशक पहले तक था, वह अब नहीं रहा। जनता पहले यह सोचती थी कि भारत के ख़तरे से उन्हें सेना ही बचा सकती है; लकिन अब लोग यह सवाल करने लगे हैं कि वास्तव में भारत की तरफ़ से उन्हें ख़तरा है? या यह सिर्फ़ सेना और राजनीति के लोगों का खड़ा किया हौवा है?
ऐसे में आज जब इमरान ख़ान सेना के ख़िलाफ़ खड़े दिख रहे हैं, तो जनता सेना की जगह इमरान ख़ान की तरफ़ देख रही है। उन्हें लगता है कि इमरान ख़ान नया पाकिस्तान बना सकते हैं। उन्हें रोज़गार दे सकते हैं और महँगाई से उन्हें बचा सकते हैं। इमरान ख़ान की राजनीति भिन्न है। वह अन्य दलों के भारत के ख़िलाफ़ प्रलाप की जगह भारत और नरेंद्र मोदी की तारीफ़ करके जनता को बताना यही चाहते हैं कि हमें दूसरे देशों के आगे भीख नहीं माँगनी है, और अगर भारत की तरह अपनी ताक़तवर छवि बनानी है, तो बदलाव करना होगा। इमरान ख़ान भारत की दुनिया में मज़बूत देश की छवि को अपने लिए भुनाना चाहते हैं। पाकिस्तान की जनता को यह रास आ रहा है, क्योंकि उन्हें लगता है कि इमरान सही कह रहे हैं।
आज़ादी मार्च
इमरान ख़ान की पार्टी पाकिस्तान तहरीक-ए-इंसाफ़ (पीटीआई) ने 10 नवंबर से अपना आज़ादी मार्च फिर शुरू करके यह जता दिया है कि वह झुकने को तैयार नहीं। जानलेवा हमले और कोर्ट के उनके चुनाव लडऩे पर प्रतिबन्ध के बावजूद इमरान ख़ान मैदान में डटे हुए हैं। बहुत-से जानकार मानते हैं कि इमरान ख़ान की जान को अब गम्भीर ख़तरा है। यदि ऐसा होता है, तो पाकिस्तान में गृह युद्ध शुरू होने के ख़तरे से इनकार नहीं किया जा सकता। अभी भी जो हालात हैं, उन्हें बेहतर नहीं कहा जा सकता। अमेरिका सहित कई देशों की नज़र पाकिस्तान पर टिकी है।
लोगों से ज़्यादा-से-ज़्यादा तादाद में मार्च में शामिल होने की इमरान ख़ान की अपील का भी जबरदस्त असर दिखा है। वजीराबाद से शुरू हुआ मार्च बताता है कि इमरान जनता को साथ लाने में सफल रहे हैं। इमरान ख़ान ख़ुद इस मार्च में शामिल हुए। इमरान ख़ान पर हमले के बाद अब पाकिस्तान की शहबाज़ शरीफ़ सरकार को उनकी सुरक्षा सुनिश्चित करना बेहद ज़रूरी होगा; क्योंकि यदि इमरान ख़ान दोबारा किसी हमले का शिकार होते हैं, तो इसका सीधा आरोप सरकार और सेना पर लगेगा। पिछले हमले के बाद भी जब इसे लेकर पाकिस्तान में सर्वे किये गये थे, तो ज़्यादातर लोगों ने यही माना था कि इस हमले के पीछे सेना का हाथ है।
हमले के बाद पीटीआई के कार्यकर्ताओं ने जिस क़दर ज़ोरदार प्रदर्शन पाकिस्तान में किये थे, उससे सरकार और सेना दोनों पर दबाव बढ़ा है। कराची, फ़ैसलाबाद, रावलपिंडी, क्वेटा और लाहौर से लेकर तमाम बड़े शहरों में पीटीआई के कार्यकर्ताओं ने सड़क पर उतरकर जिस तरह हुकूमत के ख़िलाफ़ प्रदर्शन किया, उससे ज़ाहिर हो गया कि सरकार के लिए यह विरोध आसान नहीं है। इमरान ख़ान ने इस हमले के लिए जिस तरह प्रधानमंत्री शहबाज़ शरीफ़, गृह मंत्री राणा सनाउल्लाह और पाकिस्तान की ख़ुफ़िया एजेंसी आईएसआई के महानिदेशक मेजर जनरल फ़ैसल नसीर का नाम लेकर आरोप लगाया, उससे यह तो साफ़ है कि सरकार के भीतर की सूचनाएँ इमरान ख़ान को मिलती हैं।
वहाँ के सर्वोच्च न्यायालय के दख़ल के बाद इमरान ख़ान पर हुए हमले को लेकर दर्ज की गयी एफआईआर को पीटीआई ने नकार दिया था। पीटीआई का कहना था कि एफआईआर में वज़ीर-ए-आज़म शहबाज़ शरीफ़, गृह मंत्री राणा सनाउल्लाह और पाकिस्तान की ख़ुफ़िया एजेंसी आईएसआई के महानिदेशक मेजर जनरल फ़ैसल नसीर का नाम नहीं है; इसलिए वह इस एफआईआर को पूरी तरह ख़ारिज करती है।
इमरान ख़ान का सेना के ख़िलाफ़ यह मोर्चा क्या रंग लाएगा? अभी कहना मुश्किल है। लेकिन एक बात तय है कि अब पीएमएल(एन) और पीपीपी दोनों इमरान ख़ान के लिए मुश्किलें खड़ी करने की कोशिशें करेंगे। यह स्थिति पाकिस्तान को और कठिन हालात की तरफ़ धकेल सकती है। पाकिस्तान की सेना की मीडिया विंग इंटर सर्विस पब्लिक रिलेशंस यानी आईएसपीआर भले इमरान ख़ान के लगाये सभी आरोपों को ख़ारिज कर रही हो, हमले को लेकर पाकिस्तान की सियासत ही नहीं सेना-आईएसआई के भीतर जबरदस्त हलचल है। आईएसपीआर का कहना है कि इमरान ख़ान के $फौज और इसके एक बड़े अधिकारी पर लगाये आरोप बेबुनियाद और ग़ैर-ज़िम्मेदाराना हैं और उन्हें स्वीकार नहीं किया जा सकता, इमरान ख़ान की पार्टी के तमाम नेता इन आरोपों पर डटे हुए हैं।
इमरान की जंग
इमरान ख़ान आज की तारीख़ में एक से ज़्यादा मोर्चों पर लड़ रहे हैं। उन्हें जनता के समर्थन का एक बड़ा कारण उनका अमेरिका विरोध है। इमरान ख़ान ने अपनी सरकार गिराने का आरोप भी अमेरिका पर ही लगा दिया था। इमरान ख़ान शाहबाज़ शरीफ़ सरकार पर संकटग्रस्त अर्थ-व्यवस्था को सँभालने में नाकाम रहने का आरोप लगा रहे हैं। वह हाल में सेनाध्यक्ष बाजवा के अमेरिकी जाकर मदद लेने का विरोध कर चुके हैं। सरकार इमरान ख़ान से ख़फ़ा है। लिहाज़ा वह उन पर दबाव बनाने के तरीक़े निकाल रही है। हाल में पीटीआई की सरकार के समय अमेरिका से आये विवादित कूटनीतिक सन्देश के मामले में पूछताछ के लिए फेडरल इन्वेस्टिगेशन एजेंसी (एफआईए) ने इमरान ख़ान को तलब किया था।
एफआईए इमरान ख़ान से प्रतिबंधित चंदा लेने के आरोप पर भी पूछताछ कर रही थी और इसके बाद ही पाकिस्तान के निर्वाचन आयोग ने इमरान ख़ान पर चुनाव लडऩे का प्रतिबन्ध लगाया था। इमरान ख़ान की पार्टी के उपाध्यक्ष शाह महमूद क़ुरैशी को भी अमेरिकी सन्देश मामले में तलब किया गया था। निश्चित ही इससे पाकिस्तान में सियासी टकराव बढ़ा है। इमरान ख़ान इस दौरान राजनीतिक रूप से इसका जवाब देते दिखे थे, जब उन्होंने पूर्व प्रधानमंत्री नवाज़ शरीफ़ और मौज़ूदा सत्ताधारी गठबंधन की प्रमुख पार्टी पाकिस्तान मुस्लिम लीग (नवाज़) की उपाध्यक्ष मरियम नवाज़ को चुनौती दी कि वह अपने निर्वाचन क्षेत्रों में उनके ख़िलाफ़ मैदान में उतरें और चुनाव जीतकर दिखाएँ।
इमरान ख़ान सरकार के साथ-साथ राष्ट्रपति आरिफ़ अल्वी के ख़िलाफ़ भी मोर्चा खोल चुके हैं। दिलचस्प बात यह है कि अल्वी कभी पीटीआई से जुड़े रहे हैं। हालाँकि बदले हालात में इमरान ख़ान ने हाल में जिस लहजे में अल्वी को पत्र लिखा, उससे संकेत मिलता है कि ख़ान राष्ट्रपति से नाराज़ हैं। इमरान ने कहा है कि देश में झूठे आरोप लगाये जा रहे हैं। लोगों को परेशान किया जा रहा है। गिरफ्तारियाँ हो रही हैं, और पुलिस हिरासत में यातनाएँ दी जा रही हैं। उन्होंने राष्ट्रपति से इन सबको रोकने के लिए तुरन्त क़दम उठाने की माँग की थी।
खान की चुनौती से निपटने के लिए शहबाज़ शरीफ़ और उनकी सरकार ने इमरान ख़ान की साख धूमिल करने की रणनीति अपनायी है। ऐसे ख़ुलासे किये जा रहे हैं, जो इमरान की छवि पर विपरीत असर डालें। हालाँकि जनता के इमरान के प्रति समर्थन को देखते हुए लगता नहीं कि इसका ज़्यादा असर हुआ हो। हाँ, इससे राजनीतिक टकराव ज़रूर बढ़ा है और देश में हिंसा और अव्यवस्था की आशंका ज़ोर पकड़ती जा रही है।
कौन बनेगा सेना प्रमुख?
पाकिस्तान में सेनाध्यक्ष का चयन अब कई कारणों से राजनीतिक हो गया है। इमरान ख़ान की तरफ़ से सेना के ख़िलाफ़ मोर्चा खोलने के बाद अब सबकी नज़र सरकार पर लगी है कि किसे नया सेनाध्यक्ष बनाया जाता है? देश में सेना के सत्ता में फिर क़ाबिज़ होने की भी अटकलें चल रही हैं। वैसे सेना प्रमुख जनरल क़मर जावेद बाजवा यह स्पष्ट कर चुके हैं कि उनकी मंशा अपना कार्यकाल और बढ़ाने की नहीं है। हालाँकि पाकिस्तान के हालात में कुछ भी कहना मुश्किल है।
बाजवा 29 नवंबर को रिटायर होने वाले हैं। सरकार किसे यह ज़िम्मा देगी? यह अभी तक साफ़ नहीं है। प्रधानमंत्री शहबाज़ शरीफ़ चाहते हैं कि जनरल बाजवा का कार्यकाल बढ़ा देना ज़्यादा बेहतर होगा। हो सकता है कि शरीफ़ ने इस बारे में बाजवा से बात भी की हो। बाजवा पहली ही एक्सटेंशन पर हैं। सन् 2016 में सेना प्रमुख बनने के बाद सन् 2019 में उनका कार्यकाल तीन साल के लिए बढ़ाया गया था।
दिलचस्प यह है कि इमरान ख़ान ने कहा था कि जब तक देश में चुनाव होने और नयी सरकार बनने तक जनरल बाजवा को उनके पद पर बने रहने दिया जाये। सरकार के पास हाल के दिनों में अलग-अलग तरह के सुझाव आये हैं। इनमें बाजवा का कार्यकाल बढ़ाने के अलावा वर्तमान मिली-जुली सरकार और नेशनल असेम्ब्ली को भंग करके अंतरिम सरकार बनाना तक शामिल है। पाकिस्तान में सेना प्रमुख के लिए जो नाम सुनने में आ रहे हैं, उनमें से एक नाम ख़ुफ़िया एजेंसी आईएसआई के प्रमुख रहे लेफ्टिनेंट जनरल असीम मुनीर भी हैं।
इस $फेहरिस्त में जनरल मुनीर के अलावा लेफ्टिनेंट जनरल साहिर शमशेद और लेफ्टिनेंट जनरल नौमान का नाम भी शामिल है। वरिष्ठता की सूची देखें, तो पहला नाम लेफ्टिनेंट जनरल ज़ुबैर महमूद हयात का आता है। इस समय वे सैन्य मुख्यालय में चीफ ऑफ जनरल स्टाफ के पद पर हैं। सरकार की तरफ़ से नये सेना प्रमुख के नाम की घोषणा नहीं होने से कई कयास लग रहे हैं। वैसे पाकिस्तान का इतिहास देखें, तो ज़्यादातर मौ$कों पर सेना प्रमुख का नाम आख़िरी दिनों में ही घोषित किया गया है। सिर्फ़ एक बार सन् 1991 में ऐसा हुआ था, जब सरकार ने दो महीने पहले ही सेना प्रमुख का नाम घोषित कर दिया था। उस समय नवाज़ शरीफ़ पाकिस्तान के प्रधानमंत्री थे। फ़िलहाल तो ऐसा लगता है कि पाकिस्तान में यह मसला ताक़त की जंग बन गया है। इसके त्रिकोण में एक तरफ़ प्रधानमंत्री शाहबाज़ शरीफ़ हैं और दूसरी तरफ़ इमरान ख़ान और तीसरी तरफ़ ख़ुद सेना प्रमुख जनरल क़मर बाजवा। वर्चस्व की इस जंग में ऊँट किस करवट बैठता है, यह देखना दिलचस्प होगा।
“अब देश के सामने बैलेट या ब्लड शेड (चुनाव या ख़ून-ख़राबा) में किसी एक को चुनने का विकल्प ही बचा है।”
इमरान ख़ान
पूर्व प्रधानमंत्री, पाकिस्तान
“इमरान ख़ान का असली एजेंडा अब बेनक़ाब हो गया है। इमरान ख़ान का मार्च राष्ट्र हित में नहीं है, बल्कि वर्तमान सरकार को अगले सेनाध्यक्ष की नियुक्ति करने से रोकना उनका मक़सद है। शाहबाज़ शरीफ़ सरकार सेनाध्यक्ष की नियुक्ति प्रक्रिया को आगे बढ़ाएगी।”
मरियम नवाज़
पीएमएल(एन), नेता
“इमरान ख़ान ने पिछले महीने दो मुद्दों पर बातचीत के लिए सरकार से सम्पर्क किया था। इनमें एक मुद्दा सेनाध्यक्ष की नियुक्ति का था। हमने इमरान ख़ान से मिलने से इनकार कर दिया।”
शाहबाज़ शरीफ़
प्रधानमंत्री, पाकिस्तान