आखिर केंद्र और राज्यों के बीच शून्य की एक स्थिति पैदा हो गयी है। कारण यह है कि मज़बूत केंद्र शायद राज्यों के प्रति अपने दृष्टिकोण में सहभागिता की भूमिका से दूर चला गया है और इसका नतीजा राज्यों में केंद्र के प्रति सम्मान की कमी के रूप में सामने आया है। तीन कृषि कानूनों के खिलाफ बहुतायत में प्रतिरोध है। महाराष्ट्र सरकार का बिना उसकी मंज़ूरी के सीबीआई जाँच के फैसले पर रोक लगाना इसका एक उदाहरण है। पश्चिम बंगाल, पंजाब, राजस्थान, छत्तीसगढ़, झारखंड तथा केरल जैसे प्रदेशों में इस बात को लेकर केंद्र के प्रति विकट नाराज़गी है कि केंद्र सरकार राज्यों को जीएसटी की क्षतिपूर्ति के लिए अपनी प्रतिबद्धता को पूरा करने में विफल रही है।
पंजाब, जो केंद्र के नये कृषि कानूनों के खिलाफ विरोध-प्रदर्शनों का केंद्र है; ने विधानसभा में केंद्रीय कानूनों को नहीं मानने के लिए बाकायदा प्रस्ताव पास किया है और अपने स्तर पर तीन विधेयक पास किये हैं। यह इस बात का संकेत है कि राज्य इस मसले पर लम्बी लड़ाई लडऩे की तैयारी कर चुका है; भले ही उसे भी अपने ये विधेयक पास करने के लिए राष्ट्रपति की मंज़ूरी की ज़रूरत रहेगी। पंजाब के इन विधेयकों में एमएसपी से नीचे की उपज की बिक्री या खरीद करने पर कम-से-कम तीन साल की कैद का प्रावधान है। राज्य इस कानून के अधीन समवर्ती सूची के तहत लागू केंद्रीय कानूनों में संशोधन कर सकते हैं। हालाँकि उन्हें इसके लिए राष्ट्रपति की सहमति लेनी होगी; क्योंकि इसके बगैर यह कानून लागू नहीं हो सकते।
वास्तव में केंद्र सरकार द्वारा कृषि क्षेत्र में सुधारों के प्रस्ताव के नाम पर अध्यादेशों का मार्ग अपनाने के बाद से केंद्र व राज्यों में विश्वास की कड़ी टूटी है। इसके बाद बिहार के विधानसभा चुनाव में वहाँ के लोगों को मुफ्त में कोरोना का टीका (वैक्सीन) देने के भाजपा के वादे ने अन्य राज्यों में आक्रोश पैदा किया है। उनका मानना है कि भाजपा ने ऐसा करके सिर्फ चुनाव जीतने के लिए एक महामारी की आड़ लेकर अनैतिक रूप से राजनीतिक लाभ लेने की कोशिश की है। यही नहीं, केंद्र-राज्य सम्बन्धों में एक और खराब मोड़ तब आया, जब उद्धव ठाकरे की महाराष्ट्र सरकार ने सीबीआई की किसी भी जाँच के लिए राज्य की अनुमति लेना अनिवार्य कर दिया।
केंद्र और राज्य दोनों ही संविधान से अपने अधिकार प्राप्त करते हैं। आज़ादी के पहले चार दशक के दौरान हमने केंद्र और राज्यों के अच्छे सम्बन्धों के तौर पर एक मज़बूत केंद्र और अब की अपेक्षा शानदार राज्य भी देखे हैं। इसके बाद सन् 1989 और सन् 2014 के बीच गठबन्धन युग के चलते क्षेत्रीय दलों के मज़बूत होने के साथ एक कमज़ोर केंद्र और मज़बूत राज्य सामने आये। सन् 2014 के बाद एक मज़बूत केंद्र का उदय हुआ और राज्य फिर कमज़ोर दिखने लगे। लेकिन इन दिनों केंद्र और राज्यों के बीच संतुलन छिन्न-भिन्न हुआ है; क्योंकि पश्चिम बंगाल, पंजाब, राजस्थान, छत्तीसगढ़, झारखण्ड और केरल समेत कई बड़े राज्य विपक्ष के पास हैं। यहाँ यह बताना ज़रूरी है कि सर्वोच्च न्यायालय ने भी केंद्र और राज्यों की सरकारों को एक निश्चित सीमा की स्वतंत्रता का आश्वासन देने के लिए सामंजस्यपूर्ण सह-अस्तित्व और परस्पर-निर्भरता दिखाने पर ज़ोर दिया है।
पिछले काफी समय तक हमने अरविंद केजरीवाल की अगुवाई वाली दिल्ली सरकार और केंद्र सरकार में भी काफी तनातनी देखी। बाद में तत्कालीन मुख्य न्यायाधीश दीपक मिश्रा की अध्यक्षता वाली पाँच-न्यायाधीशों की संविधान पीठ ने दोनों सरकारों के बीच सत्ता के टकराव पर ऐतिहासिक फैसला सुनाया। समय आ गया है जब केंद्र और राज्य, दोनों सौहार्दपूर्ण सम्बन्ध बनाये रखने के लिए अपने-अपने दृष्टिकोणों का पुनर्निरीक्षण करें; ताकि संघीय मतभेदों से संवैधानिक संकट जैसी स्थिति न बन जाए।