महेश दुबला-पतला किशोर है। पूछने पर वह खुद को 18 का बताता है। वह कूड़ा बीनता है। उसके माता-पिता और छोटे दो भाई-बहन भी यही काम करते हैं। पूरा परिवार सारा दिन गाज़ीपुर के कचरा पहाड़ पर घूमता रहता है। आते और लौटते हुए हमेशा उनकी नज़र सड़क के किनारे पर रहती है। कहीं शीशे या प्लास्टिक की बोलत दिखी, तो वे लपककर उसे उठाते हैं।
मौसम ठीकठाक यदि रहा, पुलिस वालों और इलाके के सरदारों ने सताया नहीं, तो पूरा परिवार तकरीबन 6-700 रुपये कमा पाता है। अब इस महँगाई में क्या पढ़ाई और क्या घुमायी? बस जी रहे हैं।
महेश और उसका परिवार गाज़ीपुर के कचरे के पहाड़ पर दो-जून की रोटी कमाने की मशक्कत में उस पहाड़ के रखवालों की नज़र बनाते हुए जी रहा है। उसे न सरकार से मतलब है और किसी पार्टी से। हाँ, चुनाव और सभाओं में कभी-कभी जाने पर कुछ कमाई और हो जाती है। झगड़े-फसाद दंगे में परेशानी बढ़ जाती है। आम तौर तब वे सीमा पार कर परिवार के साथ अपने दादा-दादी के घर गाज़ियाबाद आ जाते हैं।
भारत की राजधानी दिल्ली में बढ़ती आबादी की साथ डर कहीं कूड़े का फैलाव, कूड़े का टीला और कूड़े के पहाड़ हैं। केंद्र सरकार का पर्यावरण और वन विभाग और दिल्ली सरकार और एमसीडी के अफसर कूड़े के भंडारण की जगह तय करते हैं। नेशनल ग्रीन ट्रिब्यूनल से भी राय लेते हैं। फिर लैंडफिल बनाकर कूड़े का भंडारण नियत ऊँचाई तक तय होता है। लेकिन जिस तरह दिल्ली का हर दिशा में विकास हो रहा है। आबादी बढ़ती जा रही है। उसके अनुपात में कई गुना कूड़ा भी बढ़ रहा है। नियत ऊँचाई से भी कई गुना ज़्यादा कूड़ा इकट्ठा होता रहता है। प्रशासन की अनदेखी से कचरा पहाड़ बन जाता है। फिर पहाड़ की ऊँचाई घटाने की सिरदर्दी शुरू होती है। फिर नियत ऊँचाई के काफी ऊपर तक कूड़ा रहता ही है।
आज दिल्ली की स्थानीय सरकार, केंद्र सरकार और प्रशासन के लिए कूड़े के पहाड़ों का निदान एक बड़ी चुनौती हैं। सारी दुनिया में मौसम परिवर्तन (क्लाइमेंट चेंज), शुद्ध वातावरण और हरीतिया के रख-रखाव के लिए युवा सड़कों पर उतर रहे हैं। वे खुद के स्वास्थ्य की भीख माँग रहे हैं। वे चाहते हैं कि उनकी खातिर पर्यावरण और पारीस्थितिकी को बचाया जाए।
दिल्ली में कूड़े को व्यवास्थित तरीके से शोधित करने के इरादे से 60 के दशक में भलस्वा, गाज़ीपुर, ओखला नरेला बवाना में लैंडफिल बने थे। दिल्ली की आबादी और विकास के साथ कूड़ा भी कई गुना बढ़ा। अब वैकल्पिक तरीकों की तलाश में राज्य प्रशासन और मंत्री स्तर पर कई दौर में बातचीत भी हुई। लेकिन कूड़े के अंबार को ठिकाने लगाने के लिए दूसरी जगहों की तलाश तो समस्या है। साथ ही कैसे कूड़े की निस्तारण हो वह कभी प्राथमिकता की सूची मेें शामिल नहीं किया। नतीजा यह है कि पूरी दिल्ली की आबोहवा की चर्चा देश भर में ही नहीं, बल्कि दुनिया की गन्दी राजधानियों में इसकी गिनती अब होती है।
दिल्ली की इस बनी गन्दी तस्वीर को समझने और खूबसूरत बनाने की दिशा में इसी साल फरवरी में सांसद गौतम गम्भीर ने दिल्ली के पूर्वी हिस्से में गाज़ीपुर के विशाल कूड़ा पहाड़ का दौरा किया। ऐतिहासिक कुतुबमीनार की ऊँचाई से भी ऊपर बढ़ रहे कूड़े के इस पहाड़ को देखकर वे आश्चर्य में पड़ गये। गाज़ीपुर कूड़ा पर्वत पर आज 1.3 मिलियन मीठरिकस से भी ज़्यादा कूड़े को भंडारण है। अब भी इस पर कूड़ा घटाया बढ़ाया जा रहा है। इस पहाड़ की ढलानों के साथ ऊपर को बढ़ रहा यह पहाड़ आज भी खासा खतरनाक है। अपनी दुर्गंध और हवा के ज़रिये तरह-तरह की बीमारियों के संक्रमण के लिहाज़ से। यह खतरनाक है मानव, पशु और मशीनों के लिए भी। लेकिन इसकी विभिन्न दुर्घटनाओं के बावजूद इस कूड़े के निस्तारण पर कभी कोई खास बेचैनी प्रशासन में नहीं देखी गयी।
पूर्वी दिल्ली के गाज़ीपुर लैंडफिल का काम 1984 में शुरू हुआ था। देखते-ही-देखते यह भरता गया और कूड़े का पहाड़ बनने लगा। कानून की किताब में सॉलिड वेस्ट मैनेजमेंट रूल्स 2016 में बताया गया है कि एक लैंडफिल की मियाद ज़्यादा-से-ज़्यादा 25 साल होनी चाहिए। लेकिन अब तो 36 साल भी ज़्यादा हो चले। कूड़ा बढ़ता ही जा रहा है। इसकी वजह यह बतायी जाती है कि दिल्ली सरकार केंद्र सरकार और पड़ोसी राज्य सरकारें मसलन उत्तर प्रदेश, हरियाणा के कूड़े के लिए लैंडफिल की उपयुक्त जगह मुहैया नहीं करा पा रही हैं।
नेशनल ग्रीन ट्रिब्यूनल ने यह जानना चाहा था कि जब लैंडफिल की ऊँचाई की मियाद 15 फीट 2002 में ही पूरी हो गयी थी, तो गाज़ीपुर लैंडफिल मेें कूड़े का पहाड़ क्यों विकसित होने दिया गया? प्रशासन इस पर खामोश रहा। गाज़ीपुर लैंडफिल पर प्रतिदिन 2,500 से 3,000 मीट्रिक टन कूड़ा 2002 के बाद भी लगातार लादा जाता रहा। नेशनल ग्रीन ट्रिब्यूनल ने दो साल अवधि दी, जिसमेें एक उपयुक्त स्थान तलाशा जाए, जहाँ यहाँ की नियत क्षमता से अधिक कूड़ा हटाया जाए, ताकि यहाँ और कचरा फेंका जाए। लेकिन यहाँ कचरा बढ़ता ही गया। यहाँ कचरे से ऊर्जा बनाने का संयंत्र भी लगा है। लेकिन वह 1,200 टन कूड़ा ही उपयोग में लेने मे सक्षम है।
आज गाज़ीपुर का कचरा पहाड़ 80 फीट से भी ज़्यादा ऊँचा है, जबकि यहाँ की कुल क्षमता 15 फीट निर्धारित थी। आिखर स्थापना के 70 साल बाद एक दिन तेज़ आवाज़ यह असंतुलित पहाड़ धसक गया। शुक्रवार ही उस दिन था। कचरे के ढेर में दबकर तीन कारें पिचक गयीं और 15 लोग मारे गये। उस समय नेशनल ग्रीन ट्रिब्यूनल कुछ हरकत में आया। लेकिन समय बीता और फिर वही, ढाक के तीन पात।
गाज़ीपुर कचरा पहाड़ के आसपास के इलाके में तकरीबन 50 लाख से ऊपर लोगों की रिहायशी बस्तियाँ हैं। कचरा पहाड़ के दो सौ मीटर की दूरी से ही बस्तियों का सिलसिला शुरू हो जाता है। यहाँ से तकरीबन ढाई किलोमीटर दूर संजय झील है, जो आज छोटे तालाब-सी गन्दी है। यहाँ की बस्तियों में पाइप से जो पानी आता है, वह पीली रंगत लिये होता है। लेकिन न एमसीडी, न दिल्ली जल बोर्ड और न दिल्ली सरकार इस मानवीय समस्या पर गौर नहीं करती। और तो और विशेषज्ञों के अनुसार इस कचरे का असर भूमिगत जल पर भी है। इसके बावजूद केंद्र सरकार इस मानवीय समस्या के प्रति उदासीन रहीं।
लेकिन अभी दिल्ली से सांसद का मौका मुआयना करना, स्थानीय लोगों, भवन निर्माताओं और व्यापारियों में एक उम्मीद जग रहा है कि परिवेश सुधरेगा; विश्वास बढ़ेगा।
फरवरी महीने के दूसरे सप्ताह में संसदीय स्थायी समिति के साथ गाज़ीपुर पहुँचे। सांसद साथ आए विभिन्न सरकारी एजंसियों के प्रतिनिधियों से गाज़ीपुर कचरा पहाड़ की ऊँचाई कम करने में हो रही देर पर अपनी नाराज़गी जतायी। वे इस बात से खासे चकित थे कि स्थानीय एमसीडी इस मामले में गम्भीरता नहीं दिखा रही है। कचरा पहाड़ 70 एकड़ में फैला हुआ है और इसकी ऊँचाई किसी 15 मंजिला इमारत से भी ऊपर पहुँच चुकी है। प्रशासनिक अनदेखी और जन स्वास्थ्य के प्रति घोर लापरवाही का यह खतरा एक नमूना है।
हालाँकि, एमसीडी के प्रतिनिधि अलबत्ता यह तर्क देते रहे कि कचरे को अलग-अलग करने और परिष्कृत करने के लिए इस पहाड़ पर एक मशीन लगायी गयी है। मशीन यह चार हिस्सों में है, जो भवन निर्माण का अपशिष्ट कूड़ा, प्लास्टिक, मिट्टी, लोहा आदि अलग-अलग करती है। लेकिन सवाल इसकी क्षमता पर अटका है। यह मशीन यदि ठीक रहे, तो प्रतिदिन 640 मीट्रिक टन कचरा साफ कर सकती है। पूर्वी एमसीडी की कमिश्नर ने बताया कि एनएचएआई से यह बात की जा रही है कि क्या वे सड़क निर्माण के इस्तेमाल में यहाँ का कचरा लेंगे, जिसे सड़क निर्माण कार्य में इसका इस्तेमाल हो सके।
संसद में इस कचरा पहाड़ के कारण पूरे इलाके में सप्लाई हो रहे पीले से पेयजल की गुणवत्ता पर दिल्ली जल बोर्ड के अधिकारियों से जानकारी भी ली। इस बात से वे खासे नाराज़ थे कि कचरे के पहाड़ का असर न केवल घरों में पहुँच रहे कूड़े, बल्कि सप्लाई हो रहे पेयजल, भूमिगत जल और वायु प्रदूषण को बढ़ा रहा है, बल्कि इससे संजय लेक भी बर्बाद हो रही है।
उन्होंने कहा यह कचरे का पहाड़ एशिया भर में सबसे बड़ा है। यदि इस पर जनता और सरकारी एजंसियाँ नज़र रखतीं, तो समाधान काफी आसानी से हो जाता। हर घर से फेंके हुए कूड़े से आज यह कचरा पहाड़ बना। यदि हर घर के निवासी भी इस ओर ध्यान देता, तो यह शायद पहाड़ इतना घातक न बन पाता। दिल्ली राज्य के मुख्यमंत्री को इस कचरे के पहाड़ को इसकी पहले की नियत ऊँचाई तक लाने में सहयोग करना चाहिए। उनकी सरकार की मदद से इस काम को पूरा करने में आसानी होगी।
सॉलिड वेस्ट मैनेजमेंट का पूरा दारोमदार केंद्र के पर्यावरण वन विभाग के पास है। मंत्रालय अपनी प्रथामिकता के आधार पर कचरे के अध्यक्ष योजना शोधन और वितरण की योजनाओं को संचालित करता है। इसमें राज्य सरकारों से भी सक्रिय सहयोग लिया जाता है। देश के महानगरों में कचरे का एक अध्यक्ष 2007 में सालिड वेस्ट मैनेजमेंट ने किया था। इसके अनुसार, इस कचरे में वनज के अनुसार तकरीबन 41 फीसदी जैविक और निचले स्तर के 40 फीसदी निष्कय पदार्थ, छ: फीसदी कागज़, चार फीसदी प्लास्टिक चार फीसदी कपड़ा, दो फीसदी ग्लास, दो फीसदी धातुएँ व एक फीसदी चमड़ा अमूमन मिलता है।
कचरा प्रबंधन में शोध करने वाली जूलियाना लिटकोणकी ने अपनी रिपोर्ट में लिखा है कि गाज़ीपुर कचरे का पहाड़ दिल्ली के नागरिकों के कचरे में इकट्ठे होते जाने से बना। इस पहाड़ की ढलुवा परतें खासी खतरनाक हैं। ये नीचे को धसकती हैं, जो मानव, पशु और मशीनों के लिए खासी खतरनाक हैं। जो इस कचरे में खोजबीन, शोधन और इसे जलाने के काम में जुटे हैं।
दिल्ली के बाहरी इलाके ओखला लैंडफिल 1996 में बना। यह दक्षिणी दिल्ली की एमसीडी के क्षेत्र में हैं। यहाँ कचरा पिछले साल तक 58 मीटर ऊँचा हो गया था, जो अब 38 मीटर तक घटाया गया हैं। अब इसे ईको पार्क के तौर पर विकसित किया जा रहा है। इसके चारों तरफ 7,000 वर्गमीटर के क्षेत्र में हरी घास लगा दी गयी है। इस काम में कमिश्नर पुनीत गोयल ने खुद दिलचस्पी ली और इसे अमलीजामा पहनाया। इंडियन इंस्टिट्यूट ऑफ टेक्नोलॉजी के एक विशेषज्ञ के सहयोग से कचरे के टीले को अब हरियाली के एक अहम केंद्र के रूप में विकसित किया जा रहा है। ओखला वेस्ट ट्रीटमेंट से यहाँ संशोधित जल की नियमित सप्लाई है और ठीमठाक संख्या में मज़दूर हरियाली विकसित करने की प्रक्रिया में जुटे हुए हैं।
नरेला बवाना के लैंडफिल भी मर चले हैं। लेकिन वहाँ भी दिल्ली की एमसीडी खासी निष्क्रिय है। वहाँ रह रहे नागरिकों, बहुमंज़िला इमारतें के निर्माताओं और व्यापारिक संगठनों की शिकायतों पर कुछ दिन की सक्रियता और फिर घनघोर निष्क्रियता का बोलबाला है। नागरिक मुकेश वर्मा कहते हैं कि जब तक यहाँ कोई बड़ा हादसा नहीं होगा, तब तक न तो एमसीडी कुछ करेगी, न राज्य सरकार और न केंद्र सरकार का पर्यावरण विभाग। नरेला बवाना की ऊँचाई अधिकतम 15-20 मीटर नियत हुई थी, जो पीछे छूट चुकी है। पूरे इलाके में खासी दुर्गंध और गन्दगी फैली हुई है।
यदि दिल्ली सरकार और केंद्र सरकार को मिलकर महानगर की कचरा निपटान समस्या का जल्दी ही आधुनिक तरीकों से समाधान करना होगा। ऐसा नहीं होने से संक्रामक रोगों के महामारी के रूप में फैलने का खतरा बढ़ेगा, जिसके लिए न तो नागरिकों के पास क्षमता है और न प्रशासन के पास उपयुक्त साधन। दिल्ली की हर दिशा में बेतरतीब फैलाव आज है। बढ़ती जनसंख्या के लिहाज़ से मोहल्ला क्लीनिक, स्वास्थ्य केंद्र और अस्पतालों के निर्माण के साथ-साथ महानगर की साफ-सफाई पर ध्यान देना बहुत ज़रूरी है। एक अनुमान के अनुसार, आर्थिक हालात बेहतर हुए तो 2030 तक यहाँ कचरे में 165 मिलियन टन से भी ज़्यादा की बढ़ोतरी हो जाएगी, जिसका निदान हर हाल में ज़रूरी होगा।
नई दिल्ली में लगातार ध्वंस और नव निर्माण का सिलसिला जहाँ निराश करता हैं, वहीं कूड़े के पहाड़ भी। राजधानी की जनता तमाम तरह के वायु प्रदुषण की बेचैन ही रहती हैं। फिर भी देश के नागरिक अपनी राजधानी को साफ-सुथरा, सुन्दर और शान्तिपूर्ण देखना चाहते हैं। क्योंकि पूरे देश की विविधता और संस्कृति की पहचान इसी शहर से होती है। पिछले दिनों सांसद गौतम गम्भीर का दिल्ली उत्तर प्रदेश सीमा के पास गाज़ीपुर में कूड़े के विशाल पहाड़ का दौरा हुआ। इस लिहाज़ से यह दौरा अहम है कि पहली बार न केवल चंद मिनट उस समस्या पर गौर किया गया, बल्कि नाकारा अफसरशाही से संसदीय स्थायी समिति ने सवाल भी किये। यदि सांसद, स्थानीय प्रशासन और अफसरशाही नियमित तौर पर कूड़े के बढ़ते पहाड़ों पर कूड़ा लादने का सिलसिला बन्द कराकर आकर्षक पर्यावरणीय बगीचे के तौर पर विकसित करा पाते हैं, तो इन इलाकों के तकरीबन 50 लाख से भी ज़्यादा लोगों के आशीष के वे हकदार होंगे। दिल्ली और उत्तर प्रदेश की सीमा पर बसी हज़ारों बस्तियों, बहुमंज़िला खाली इमारतों और व्यायसायिक केंद्रों में घुलती कूड़े की गन्ध की बजाय सुगंधित वायु बहेगी और विकास हो सकेगा। बच्चे और युवा खेलते, टहलते मुस्कुराते दिखेंगे। यह तस्वीर ही बता सकेगी दिल्ली है वाकई दिल वालों की।