इस इकलौते भेड़िया अभयारण्य में भेड़िये हैं भी या नहीं इस सवाल के साथ हम वापस महुआडांड़ कार्यालय परिसर में पहुंचते हैं. हम कर्मचारियों से पूछते हैं, ‘सच-सच बताइए कि भेड़िये अब यहां रहते भी हैं या नहीं?’ अभयारण्य के अक्सी बीट के फॉरेस्टर रोपन उरांव, फॉरेस्ट गार्ड नंद कुमार महतो दोनों आदेशपाल प्रमोद राम को इशारा करके कुछ लाने को कहते हैं. प्रमोद राम अपने हाथ में प्लास्टर ऑफ पेरिस की कुछ आकृतियां लेकर आते हैं, जो भेड़ियों के पदचिह्न हैं. इनमें से कोई एक-दूसरे से मेल नहीं खाता; कुछ बड़े होते हैं, कुछ छोटे. हमारा सवाल होता है कि क्या ये सभी भेड़ियों के ही पदचिह्न हैं, क्या सबके पैर अलग-अलग तरीके के होते हैं. तब रूपन उरांव और महतो कहते हैं, ‘नहीं, इसमें से 2-3 उनके हैं. बाकी लकड़बग्घे और तेंदुए के.’
अभयारण्य को चलाने की सरकार की मंशा भी सवालों के घेरे में है. कर्मचारी बताते हैं कि अभयारण्य के तीन बीट कार्यालय हैं- महुआडांड़, नेतरहाट और अक्सी. तीन बीट में तीन फॉरेस्टर होने चाहिए, दो हैं. इन तीनों बीटों के अधीन दो दर्जन से अधिक सब-बीट हैं, किसी बीट में कोई कर्मी नहीं है. एक फॉरेस्टर के साथ काम करने के लिए करीब 40 गार्ड चाहिए जबकि तीनों बीट को मिलाकर एक गार्ड है, जिसकी जिम्मेदारी पूरे आश्रयणी क्षेत्र के निरीक्षण की है. पहले आहार खरीदने का भी बजट होता था, जिससे बकरी, सुअर आदि खरीदकर उनके ठिकाने के पास छोड़ दिए जाते थे. अब तो पांच-छह लाख रुपये का सालाना बजट है, उसी में सब करना होता है.
भेड़ियों की संख्या को लेकर भी भ्रम की स्थिति है. नेतरहाट और महुआडांड़ के फॉरेस्टर बताते हैं कि तीनों बीट को मिलाकर इनकी संख्या 106 है, अभी पिछले ही माह हुई गणना से ये नतीजे निकले हैं. वहीं अक्सी बीट के फॉरेस्टर रोपन उरांव बताते हैं कि 100 से ज्यादा भेड़िये तो उनके इलाके में ही हैं. वहीं रेंज ऑफिसर लालमोहन सिंह मुंडा कहते हैं कि मई, 2013 की गणना में कुल 106 भेड़िये पाए गए हैं, 2012 में ये 54 थे. उनसे यह पूछने पर कि आप गणना कैसे करते हैं और उसकी विधि क्या है, उनका जवाब होता है, ‘पदचिह्न देखते हैं, मल को देखते हैं, इसी आधार पर हमारे ट्रैकर गणना करते हैं.’ हमारा सवाल होता है, ‘तो क्या इसके लिए आधुनिक उपकरण या कैमरा ट्रैकिंग हुई है, मल जांच के लिए कोई प्रयोगशाला है?’ यह पूछने पर मुंडा फट पड़ते हैं, ‘फंड का ही तो रोना है तो उपकरण कहां से लाएं और मल जांच के लिए लैब में कैसे भेजें. एक चारपहिया गाड़ी तक तो है नहीं, दुपहिया वाहन मिला है, उसके भी तेल का बिल 24 हजार रुपये हो चुका है, अब तक नहीं मिला. अपनी जेब से कितना पैसा लगाया जा सकता है और चारपहिया वाहन के अभाव में जान पर खेलकर कोई कितना काम कर सकता है. एक वनरक्षी है, उसी से तीनों बीट पर काम लेना होता है.’
जब यह अभयारण्य बना था, तब भेड़ियों की संख्या कितनी थी, यह बताने वाला भी कोई नहीं मिलता. कुछ आंकड़े दूसरे हवाले से मिलते हैं. जानकारी मिलती है कि 2004 में यहां 568 भेड़िये थे. उस समय राष्ट्रीय स्तर पर करीब 2000 भेड़िये बताए गए थे. पांच साल बाद 2009 में गणना हुई तो यह संख्या आश्चर्यजनक रूप से 58 पर पहुंच गई. पलामू टाइगर रिजर्व के कार्यालय में मौजूद दस्तावेज बताते हैं कि 1979 में यहां 41 भेड़िये थे. वर्ष 2010 और 2011 में यहां गणना ही नहीं हुई. पलामू टाइगर प्रोजेक्ट के निदेशक आरसीएच काजमी इस बारे में कहते हैं, ‘भेड़ियों की संख्या न घट रही है, न बढ़ रही है बल्कि वह स्थिर है.’ भेड़िया अभयारण्य पर ध्यान दिए जाने के बारे में उनका सपाट जवाब है कि जो तवज्जो दी जानी चाहिए, वह दी जा रही है.
ऐसे में सवाल यह उठता है कि हमारे लोक में रचा-बसा यह वन्य प्राणी इतना उपेक्षित क्यों है. पर्यावरण में खास रुचि रखने वाले वरिष्ठ पत्रकार सोपान जोशी कहते हैं, ‘समस्या यह है कि यहां 1972 में वन्य प्राणी संरक्षण कानून बन गया और 1980 में वन अधिनियम भी लेकिन जंगलवाले इकोलॉजी को अब तक समझ ही नहीं पाए हैं और ना ही उन्हें उसके अनुरूप प्रशिक्षित किया जाता है, इसलिए वन्यप्राणियों को लेकर जो गंभीरता दिखनी चाहिए वह नहीं दिखती.’ सोपान कहते हैं कि भारत में भेड़ियों की क्या स्थिति है और उनका इकलौता अभयारण्य इस कदर उपेक्षित क्यों है, यह तो विशेषज्ञ बताएंगे लेकिन यह सूचना जरूर आई है कि यूरोप में सारे भेड़ियों को मारकर खत्म कर दिया गया है. तो क्या यूरोप की सभ्यता-संस्कृति की लहर पर सवार होने वाला भारत वही राह अपनाकर भेड़ियों को मारने के बजाय खुद मरने के लिए छोड़ देने की राह पर है?