भारत और चीन के बीच 1962 के युद्ध के बाद लंबे अरसे तक द्विपक्षीय संबंध शून्य रहे हैं. आपसी संबंधों पर जमी बर्फ 1980 के बाद पिघलनी शुरू हुई जब चीन ने भारतीयों को मानसरोवर यात्रा की अनुमति दे दी. चीन के नेता इस बात पर भी सहमत हुए कि दोनों देशों के बीच सीमा विवाद को प्राथमिकता के स्तर पर सुलझाया जाएगा.
1981 में चीन के विदेशमंत्री हुआंग हुआ भारत आए और उसके बाद आधिकारिक स्तर पर सीमा निर्धारण पर बातचीत शुरू हुई. लेकिन 1986 में सातवें दौर की बातचीत के दौरान ही चीन ने भारत के सामने एक ऐसा प्रस्ताव रख दिया जो भारत के लिए स्वीकार्य नहीं था. वह इसपर अड़ गया और आखिरकार बातचीत टूट गई. इसके बाद चीन ने अरुणाचल प्रदेश में तवांग के आस-पास सेना की कई टुकड़ियां तैनात कर दीं.
1962 के युद्ध के बाद दूसरी बार चीन की सेना ने इतना आक्रामक रुख अपनाया था. इन्हीं हालात में फरवरी, 1987 में भारत सरकार ने अरुणाचल प्रदेश को पूर्ण राज्य का दर्जा दे दिया. सालों से प्रदेश पर अपना दावा जता रहे चीन ने तुरंत ही भारत को इस फैसले के नतीजे भुगतने की चेतावनी दे दी. इस चेतावनी और चीन की बढ़ती सैनिक गतिविधियों का जवाब देने के लिए ही भारतीय सेना ने इस समय एक विशेष सैन्य अभियान चलाया. इसे ही ऑपरेशन फाल्कन कहा जाता है. इस आक्रामक सैन्य रणनीति के तहत तुरंत ही भारतीय सेना ने भारवाहक एमआई-26 हेलिकॉप्टर के इस्तेमाल से कुछ ही दिनों में उत्तरी सिक्किम से लेकर लेह के डोमचोक सेक्टर तक सैनिक टुकड़ियां तैनात कर दीं. इन क्षेत्रों के नजदीक भारतीय वायु सेना की टुकड़ियां भी तैनात की गईं. भारत ने युद्ध के अलावा इन क्षेत्रों में कभी सेना तैनात नहीं की थी. चीन के हिसाब से भारतीय सेना युद्ध के लिए पूरी तरह तैयार हो गई थी. यहां तक कि पश्चिमी विश्लेषकों ने भी यह मान लिया था कि इस क्षेत्र में एक और युद्ध होगा. हालांकि भारत सरकार इसके पक्ष में नहीं थी और इसी समय तत्कालीन विदेशमंत्री एनडी तिवारी बीजिंग पहुंचे. उन्होंने चीन के नेताओं को संदेश दिया कि सरकार सीमा विवाद को बातचीत के माध्यम से हल करने के पक्ष में है. इस तरह सैन्य रणनीति और राजनीतिक कोशिशों के बाद चीन भी बातचीत के लिए तैयार हो गया और बाद में दोनों देशों के बीच पूर्व की स्थिति में सेना तैनात करने पर सहमति बन गई.